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सौ बरस पहले आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने काशी विश्वविद्यालय को दिए थे 6400 रुपए का दान!

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की 161वीं जयंती (9 मई) पर विशेष

Jitendra Kumar by Jitendra Kumar
08/05/25
in मुख्य खबर, राष्ट्रीय, साहित्य
सौ बरस पहले आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने काशी विश्वविद्यालय को दिए थे 6400 रुपए का दान!

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गौरव अवस्थी


नई दिल्ली : युग प्रवर्तक साहित्यकार आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने केवल खड़ी बोली हिंदी का परिमार्जन और व्याकरण सम्मत भाषा पर ही जोर नहीं दिया। वह दानवीर और परोपकारी भी थे। उन्होंने करीब 100 साल पहले अपनी गाढ़ी कमाई से काशी विश्वविद्यालय को 6400 का दान दिया। काशी विश्वविद्यालय के सेंट्रल हिंदू स्कूल में सजाति के गरीब बच्चों के लिए एक छात्रवृत्ति प्रदान की और उसके अधिकारी का क्रम इस प्रकार निर्धारित किया-1-दौलतपुर (द्विवेदी जी के गाँव) का कोई कान्यकुब्ज छात्र 2- रायबरेली जिले का कान्यकुब्ज छात्र 3-अवध का कोई कान्यकुब्ज विद्यार्थी 4-कहीं का कान्यकुब्ज विद्यार्थी 5-कोई अन्य ब्राहाण छात्र।

Acharya Mahavir Prasad Dwivedi

18 वर्षो में मासिक पत्रिका सरस्वती के संपादन काल मे आधुनिक हिंदी साहित्य की नींव रखने वाले आचार्य द्विवेदी ने 1933 में प्रयाग में अपने अभिनंदन अवसर पर काशी नागरी प्रचारिणी सभा के प्रधानमंत्री को रुपयों से भरा एक लिफाफा भेंटकर सभा के दो मुलाजिमों (चपरासी और सफाईकर्मी) को साल भर की तनख्वाह देने और स्वयं का प्रतिनिधि मानने का निवेदन किया। उनकी मृत्यु के बाद सभा ने वह लिफाफा खोला और इच्छानुसार वेतन-पुरस्कार देती रही।

Acharya Mahavir Prasad Dwivedi

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का जन्म उत्तर प्रदेश के रायबरेली जनपद में गंगा किनारे सुदूर बसे गांव दौलतपुर में 9 मई 1864 को हुआ था। 21 दिसंबर 1938 को रायबरेली शहर के बेलीगंज मोहल्ले में उन्होने अंतिम सांस ली थी।

काशी विश्वविद्यालय ने नहीं दी डॉक्टरेट की उपाधि
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने जिसका श्री विश्वविद्यालय को 6400 का दान दिया था, उसी काशी विश्वविद्यालय ने उन्हें डॉक्टर की उपाधि नहीं दी। इसका किस्सा भी कुछ यूं है। काशी नागरी प्रचारिणी सभा से लंबा चला विवाद समाप्त होने के बाद बाबू श्यामसुंदर दास ने 1931 में आचार्य जी को अभिनंदन पत्र दिया। आचार्य शिवपूजन सहाय ने आचार्य द्विवेदी की 70वीं वर्षगांठ पर अभिनंदन ग्रंथ भेंट करने का प्रस्ताव रखा। इस अभिनंदन ग्रंथ को इंडियन प्रेस ने निशुल्क छाप कर दिया। 1934 में काशी में उत्सव पूर्वक अभिनंदनोत्सव आचार्य द्विवेदी को भेंट किया गया।

उत्सव आयोजक बाबू श्यामसुंदर दास चाहते थे कि काशी विश्वविद्यालय आचार्य द्विवेदी को डॉक्टरेट की उपाधि प्रदान करे। इसी उत्सव में काशी विश्वविद्यालय के संस्थापक पंडित मदन मोहन मालवीय भी उपस्थित थे लेकिन कार्यक्रम की रूपरेखा में उनका जिक्र नहीं था। बाबू श्याम सुंदर दास ने आचार्य द्विवेदी से अपना भाषण मालवीय जी के बाद देने का अनुरोध किया। आचार्य द्विवेदी ने कार्यक्रम रूपरेखा में इसका जिक्र न होने के चलते प्रस्ताव मानने से इनकार कर दिया। कहा जाता है कि इसी से मदन मोहन मालवीय आचार्य द्विवेदी से नाराज हो गए और उन्हें काशी विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट की उपाधि नहीं दी गई।

नागरी प्रचारिणी सभा को गृह पुस्तकालय दे दिया दान
आचार्य द्विवेदी ने काशी नागरी प्रचारिणी सभा को अपना पूरा ग्रह पुस्तकालय (जिसमें हिंदी, बांग्ला, गुजराती, मराठी, संस्कृत, अंग्रेजी आदि की हजारों पुस्तकें थीं) दान में दे दिया था। उन्होंने सरस्वती की संपादित मूल प्रतियां और 80 कट रचनाओं के 36 बंडल भी सभा को सौंपे थे। इसके अलावा समकालीन साहित्यकारों से महत्वपूर्ण पत्रों के भी सैकड़ों बंडल सुरक्षित रखने के इरादे से दे दिए थे। दौलतपुर के बुजुर्ग बताते हैं कि दान में दी गई पुस्तक बैलगाड़ियों में लाद कर ले जाई गईं थीं। सभा भवन में यह महत्वपूर्ण दस्तावेज और पुस्तकें दीमक चाट चुके हैं। सभा आज भी कार्यरत है लेकिन आचार्य को कभी याद नहीं करती।

विलायत में विद्यार्थी की शिक्षा के लिए प्रशस्ति भी लिखी
सरस्वती के संपादन के दौरान एक पाई रिश्वत न लेने और सत्य पर अडिग रहने वाले महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ‘अयोध्याधिपस्य प्रशस्ति’ लिखकर एक विद्यार्थी को शिक्षा के लिए विलायत भेजने का मार्ग प्रशस्त किया था। अनेक गरीब लड़कियों के विवाह, विधवाओं को संकटकाल में सहायता करने वाले महावीर प्रसाद द्विवेदी को आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ‘अवतारी पुरुष’ मानते थे। महावीर प्रसाद द्विवेदी के नाम से हिंदी साहित्य के 1900-1925 के कालखंड को आज भी ‘द्विवेदी युग’ कहा जाता है।

हजार रुपए से बनवाया पत्नी की स्मृति में मंदिर
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के कोई सन्तान न थी । पत्नी के जीते जी तथा मरने पर लोगों ने उन्हें दूसरा विवाह करने के लिए लाख समझाया परन्तु उन्होंने स्वीकार नहीं किया। गंगा में डूबकर निधन के बाद उन्होने अपनी पत्नी के प्रेम को साकार रूप देने के लिए स्मृति-मन्दिर का निर्माण कराया। जयपुर से एक सरस्वती और एक लक्ष्मी की दो मूत्तियाँ मँगाई। वहीं से एक शिल्पी भी बुलाया। उसने उनकी स्त्री की एक मूर्ति बनाई। वह द्विवेदी जी को पसन्द न आई। फिर उसने दूसरी बनाई । सात-आठ महीने में मूत्ति तैयार हुई। लगभग एक सहस्त्र रूपया व्यय हुआ । स्मृति-मन्दिर में तीनों मूर्तियाँ स्थपित की गई – मध्य में उनकी धर्म-पत्नी की, दाहिनी ओर लक्ष्‌मी और बाई ओर सरस्वती की। हिंदी साहित्य के शाला का पुरुष द्वारा पत्नी की स्मृति में स्थापित कराया गया यह मंदिर ताजमहल से कम महत्व का नहीं माना जाता।

मातृभाषा प्रेमी भी थे आचार्य, महत्ता पर कराई निबंध प्रतियोगिता
अपने मातृभाषा प्रेम को प्रमाणित करने के लिए ही आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने प्रयाग में 1933 में आयोजित द्विवेदी-मेले के अवसर पर पचास रुपए का पुरस्कार देकर ‘मातृभाषा की महत्ता’ विषय पर निबन्ध-प्रतियोगिता कराई । वह मानते थे कि समर्थ होकर भी जो मनुष्य इतने महत्वपूर्ण साहित्य की सेवा और अभिवृद्धि नहीं करता या उससे अनुराग नहीं रखता, वह समाजद्रोही है। देशद्रोही है। जाति-द्रोही है। आत्मद्रोही और आत्महन्ता भी है।

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