अबरार मट्टो
हिमालय के पहाड़ तुलना में नए हैं, जिनका निर्माण इंडियन टेक्टोनिक प्लेट को यूरेशियन प्लेट के नीचे ढकलने के कारण हुआ है। ये प्लेट्स जब एक-दूसरे से टकराती हैं तो प्रेशर बनता है। और उस प्रेशर के रिलीज़ होने के कारण, भूकंप आते हैं। चूंकि ये मूवमेंट चलता रहता है इसलिए हिमालयी क्षेत्र, भूकंप के लिहाज़ से बेहद नाज़ुक है।
जलवायु परिवर्तन के कारण, मौसम पर असर पड़ रहा है। ग्लेशियर पिघल रहे हैं। पर्वतीय ढलान अस्थिर हो रहे हैं। ऐसे में, पहले से ही भूकंप के लिहाज़ से नाज़ुक हिमालय में इस तरह के हालात, खतरों को और ज़्यादा बढ़ा रहे हैं। इस बीच, एक नए शोध से पता चलता है कि जलवायु परिवर्तन का, इस क्षेत्र में, भूकंप की फ्रीक्वेंसी पर भी प्रभाव पड़ सकता है। यानी जलवायु परिवर्तन से इस बात पर भी असर पड़ेगा कि भूकंप कितनी बार आ सकता है।
क्या हिमालय में बार-बार भूकंप आ रहे हैं?
हिमालय में 1900 से 2010 तक की, भूकंप संबंधी गतिविधियों के विश्लेषण से पता चलता है कि निश्चित रूप से इनकी संख्या में बढ़ोतरी हुई है। विशेष रूप से 2000 के बाद रिकॉर्ड किए गए भूकंपों की संख्या में तेज़ वृद्धि देखी गई है।
विश्लेषण के अनुसार, हिमालय में 1960 से 1970 तक के दशक में, हर साल 100 से कम भूकंप महसूस किए गए। वहीं, 2000 से 2010 तक के बीच यह संख्या बढ़कर 500-600 हो गई।
इन भूकंपों में से अधिकांश, रिक्टर स्केल पर 2.0 और 6.0 के बीच थे। इनमें अच्छे उपकरणों से पता किए जा सकने वाले भूकंपों से लेकर, ऐसे भूकंप भी थे जिन्हें कोई भी महसूस कर सकता था। ये निर्मित संरचनाओं को बुरी तरह से नुकसान पहुंचाने वाली क्षमता के थे। हालांकि अच्छी तरह से बनी संरचनाओं को इनसे या तो किसी तरह का नुकसान नहीं होना था या या फिर बहुत मामूली नुकसान होना था।
क्या जलवायु परिवर्तन, हिमालय में भूकंप का कारण बन सकता है?
हिमालय लगभग 100,000 वर्ग किमी ग्लेशियरों का भंडार है। इस तरह, यह क्षेत्र दो ध्रुवों के बाहर, पृथ्वी पर सबसे बड़ा आइस रिजर्व बन जाता है। हिमालय, वैश्विक औसत से भी तेजी से गर्म हो रहा है। 2022 में जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल यानी आईपीसीसी ने अनुमान लगाया कि अगर कार्बन उत्सर्जन के मॉडरेट परिदृश्य की बात करें तो 2030 तक हिमालयी ग्लेशियर के द्रव्यमान में 10 से 30 फीसदी तक की कमी आ सकती है।
कश्मीर विश्वविद्यालय के एक भूवैज्ञानिक मुदस्सिर भट के अनुसार, हिमालय में ग्लेशियरों के द्रव्यमान में, इस परिवर्तन के कारण, अधिक भूकंप के खतरे बढ़ सकते हैं। ग्लेशियरों के द्रव्यमान में परिवर्तन की इस प्रक्रिया को आइसोस्टेसी कहा जाता है।
आइसोस्टेसी से यह पता चलता है कि पृथ्वी की क्रस्ट यानी भूपर्पटी, भार को वहन करने पाने की अपनी क्षमता के आधार पर किस तरह से ऊपर की तरफ उठती है और सेटल यानी स्थापित होती है।
इस प्रक्रिया के चलते ग्लेशियरों पर पड़ने वाले प्रभाव को ग्लेशियल आइसोस्टेटिक एडजस्टमेंट (जीआईए) कहा जाता है।
चूंकि हिमालयी क्षेत्र में कई प्रमुख फॉल्ट्स यानी भ्रंश हैं, ऐसे में भट का कहना है कि जीआईए के माध्यम से ग्लेशियरों के द्रव्यमान में नुकसान के कारण पृथ्वी की क्रस्ट में हलचल, अधिक भूकंपों को बढ़ा सकती है। ऐसा अन्य क्षेत्रों में हो भी चुका है।
लेकिन ग्लेशियर्स ही एकमात्र वजह नहीं हैं, जो हिमालय में पृथ्वी की क्रस्ट पर दबाव डालते हैं। मानसून की भी अपनी भूमिका है। दक्षिण एशिया, मानसून के दौरान यानी केवल चार महीनों (जून से सितंबर तक) में अपनी वार्षिक वर्षा का लगभग 80 फीसदी हिस्सा प्राप्त करता है।
नेपाल के हिमालयी क्षेत्रों में 10,000 भूकंपों में, मौसमी पैटर्न को लेकर एक शोध किया गया है। इस शोध को फ्रांस और नेपाल के वैज्ञानिकों ने किया है। शोध से पता चलता है कि “गर्मियों की तुलना में सर्दियों के दौरान, साइज्मिसिटी रेट यानी भूकंपनीयता दर [भूकंपों की संख्या] दो गुनी तक उच्च है। यह बात उन भूकंपों के ऊपर लागू होती है जिनके मैग्नीट्यूड पता लगाया जा सकता है।”
उन्होंने इसके लिए गंगा के बेसिन पर पड़ने वाले दबाव को जिम्मेदार ठहराया। दरअसल, मानसून के दौरान पानी का भारी भार रहता है। इससे भूकंपनीयता दबती है।
इस्लामाबाद में पाकिस्तान के नेशनल साइज्मिक मॉनिटरिंग सेंटर के प्रमुख भूकंप विज्ञानी और निदेशक जाहिद रफी के अनुसार, “सर्दियों में अधिक भूकंप आते हैं लेकिन ये कम तीव्रता वाले होते हैं और ये अक्सर आते रहते हैं। बहरहाल, उनका कहना है कि ये छोटे भूकंप “संभावित रूप से भारी नुकसान पहुंचाने वाले भूकंप को बढ़ावा दे सकते हैं।”
दरअसल, जलवायु परिवर्तन के कारण सूखे वाले मौसम लंबे हो गए हैं और मानसून अस्थिर हो गया है। ऐसे में, भारतीय उपमहाद्वीप में भारी मात्रा में पानी कब और कहां मौजूद होता है, उसका प्रभाव, छोटी तीव्रता वाले भूकंपों के आने पर पड़ सकता है।
हालांकि इस तरह के छोटे भूकंप अक्सर अधिकांश लोग महसूस नहीं कर पाते। इनसे नुकसान भी नाममात्र का ही होता है। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या छोटे-छोटे भूकंपों से प्रेशर रिलीज हो जाएगा और रिक्टर स्केल पर 6 से ऊपर वाले विनाशकारी भूंकपों की संभावना कम हो जाएगी? या कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि इन छोटे-छोटे भूकंपों के बनने से किसी बड़े भूकंप को बढ़ावा मिलेगा?
कैलिफोर्निया के पासाडेना में नासा की जेट प्रोपल्शन लेबोरेटरी के पॉल लुंडग्रेन ने 2019 के अपने एक साक्षात्कार में इस सवाल का जवाब दिया है। वह कहते हैं, “हम नहीं जानते कि कब कोई फॉल्ट, किसी ऐसे क्रिटिकल प्वाइंट पर आ जाए, जहां किसी जलवायु परिवर्तन से संबंधित नॉन-टेक्टोनिक फोर्स, ‘ऊंट की कमर तोड़ने वाला तिनका’ (नियमित रूप से होने वाली छोटी-छोटी घटनाएं, जब बड़ी घटना का कारण बन जाती हैं) साबित हो जाए, जिसकी वजह से एक बड़ा भूकंप आ जाए। इस समय हम बहुत आसानी से यह कह पाने की स्थिति में नहीं हैं कि जलवायु की प्रक्रियाओं की वजह से किसी बड़े भूकंप का खतरा पैदा हो सकता है।
क्या बड़े बुनियादी ढांचे के निर्माण से भूकंप आ सकते हैं?
मनुष्य की गतिविधियां, भूकंप के खतरे का कारण बन सकती हैं। हाइड्रो पावर डैम्स के मामले में 1960 के दशक से यह डाक्युमेंटेड है। यह बड़े जलाशयों के प्रभाव के कारण है। इसको जलाशय-प्रेरित भूकंपनीयता (आरआईएस) कहा जाता है।
यह एक बड़े जलाशय पर या एक फॉल्ट लाइन के पास, पानी द्वारा बनाए गए दबाव को संदर्भित करता है। इससे पृथ्वी की भूपर्पटी यानी क्रस्ट के नीचे फिसलन होती है, जिससे भूकंप आता है।
वर्तमान में, हिमालय क्षेत्र में लगभग 100 जलविद्युत बांध काम कर रहे हैं। इसके अलावा, 650 बांध या तो योजनाबद्ध हैं या निर्माणाधीन हैं। इनमें चीन, भारत, पाकिस्तान, नेपाल और भूटान के बांध शामिल हैं। यदि ये सभी परियोजनाएं पूरी हो जाती हैं, तो हिमालय, दुनिया में सबसे अधिक बांध-सघन क्षेत्र बन जाएगा। यह स्थिति विशेष रूप से जम्मू में चिनाब क्षेत्र और अरुणाचल प्रदेश में ब्रह्मपुत्र जैसे क्षेत्रों में होगी।
जम्मू और कश्मीर के श्रीनगर में स्थित तहकीक इंटरनेशनल के डायरेक्टर और अर्थ साइंसेज के एक इंटीग्रेटेड रिसर्चर, अयाज महमूद डार, के अनुसार, “चिनाब घाटी [जम्मू में] जलाशय-प्रेरित भूकंपनीयता की एक केस स्टडी है।” चिनाब घाटी में चल रहीं चार मौजूदा मेगा पनबिजली परियोजनाओं के अलावा, कम से कम छह अन्य मेगा परियोजनाएं, वर्तमान में, विकास के विभिन्न चरणों में हैं।
अगस्त 2022 में, पांच दिनों से भी कम समय के भीतर घाटी में 13 भूकंप आए। डार कहते हैं, “घाटी, किश्तवाड़ फॉल्ट पर टिकी हुई है। और यह स्पष्ट है कि मेगा बांधों का निर्माण, इस क्षेत्र में बढ़ती भूकंपनीयता के पीछे मुख्य कारण है। हालांकि, इसकी पूरी तस्वीर हासिल करने के लिए और अधिक शोध करने की आवश्यकता है।”
भूकंप को और खतरनाक कैसे बनाता है जलवायु परिवर्तन?
बड़े भूकंपों के विनाशकारी प्रभाव को एक ‘जटिल आपदा’ कहा जाता है। इनमें एक आपदा की वजह से दूसरी आपदा आ जाती है। जैसे भूकंप की वजह से भूस्खलन या ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (जीएलओएफ)। जीएलओएफ का मतलब ग्लेशियरों से भरी झील के फटने से आने वाली बाढ़।
इस तरह की बाढ़ तब आती है जब एक ग्लेशियर से पिघले पानी से बनी झील उसके किनारों को तोड़ देती है। ग्लेशियर वाली झीलें शायद ही कभी स्थिर होती हैं, और जब भी ऐसी बाढ़ आती है तो पानी के साथ भारी मलबा भी लाती है जिसकी वजह से काफी नुकसान होने का खतरा रहता है।
माना जा रहा है कि दुनिया भर में 1.5 करोड़ से अधिक लोगों को इस तरह की बाढ़ से खतरा है। इनमें एक तिहाई लोग भारत (30 लाख) और पाकिस्तान (20 लाख) में रहते हैं।
नेपाल के काठमांडू विश्वविद्यालय में हिमालयन क्रायोस्फीयर, क्लाइमेट एंड डिजास्टर रिसर्च सेंटर में काम करने वाले भूकंप विज्ञानी राकेश कायस्थ, द् थर्ड पोल को बताते हैं कि हिमालय में रिक्टर पैमाने पर 5 से अधिक का भूकंप, किसी अन्य जगह पर समान तीव्रता वाले भूकंप की तुलना में अधिक खतरनाक होता है। इसकी वजह यह है कि इससे ग्लेशियरों से भरी झील के फटने से आने वाली बाढ़ यानी जीएलओएफ का खतरा बढ़ सकता है।
जलवायु परिवर्तन से प्रेरित बढ़ते तापमान के कारण हिमालय के ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। इस प्रक्रिया में अधिक से अधिक ग्लेशियल लेक्स यानी हिमनदी झीलें बन रही हैं। शोधकर्ताओं ने हिमालय में 8,000 से अधिक हिमनदी झीलों की पहचान की है। इनमें से 200 तक संभावित रूप से खतरनाक हो सकती हैं। 2003 और 2010 के बीच, अकेले भारतीय हिमालयी राज्य सिक्किम में 85 नई हिमनदी झीलें बन गईं। ओपन बर्निंग और तराई क्षेत्रों में कोयला संयंत्रों, जैसे स्रोतों की वजह से, डार्क पोलूटेंट्स भी हिमालय के ग्लेशियरों पर जमा हो जाते हैं। इससे वे अधिक ऊर्जा को अवशोषित करते हैं और इस तरह ग्लेशियरों के पिघलने में तेजी आती है। यही वजह है कि तापमान वृद्धि के प्रभावों में इजाफा होता है।
एक और वजह, जिसमें जलवायु परिवर्तन से प्रेरित वार्मिंग, हिमालय में भूकंप को गति प्रदान कर सकती है, वह यह है कि जब पिघलने वाले ग्लेशियर का एक बड़ा हिस्सा टूट जाता है और गिर जाता है, तो यह क्रायो-सिज्मिसिटी का कारण बन सकता है। यह एक भूकंपीय घटना है जो आइस या आइस-सेचुरेटेड ग्रांउड के टूटने की वजह से होती है, जैसा कि ध्रुवीय क्षेत्रों में देखा जाता है।
अयाज महमूद डार कहते हैं, “ग्लेशियरों के टूटने से रिक्टर पैमाने पर क्रायो-सिज्मिसिटी [माप] 7 तक हो सकती है।”
उनका यह भी कहना है, “हिमालय में यह वास्तविक खतरा है क्योंकि ग्लेशियर अधिक गर्मी को अवशोषित करते हैं। इससे उनमें दरारों की संभावना बढ़ती है और इसीलिए, हिमपात, पहले से कहीं अधिक है।”
हिमालय में बढ़ती जटिल आपदाएं
अब तक, ग्लेशियरों के टूटने से हिमालय में क्रायो-सिज्मिसिटी से जुड़ी बड़ी घटनाएं नहीं हुई हैं। जो देखा गया है वह जटिल आपदाएं हैं, जिनमें ग्लेशियरों के टूटने से बाढ़ और भूस्खलन होता है। फरवरी 2021 में ठीक ऐसा ही हुआ, जब भारतीय राज्य उत्तराखंड में एक ग्लेशियर का एक बड़ा हिस्सा टूट गया। यह हादसा भूकंप के बजाय हिमस्खलन से शुरू हुआ, जिससे अचानक बाढ़ आ गई और एक निर्माणाधीन बांध क्षतिग्रस्त हो गया।
जलवायु परिवर्तन, हिमालय में जटिल आपदाओं की संभावना को बढ़ा रहा है।
उदाहरण के लिए, मानसून को लेकर अनुमान लगाने वाली स्थिति में कमी और अधिक केंद्रित वर्षा के साथ, हिमालयी क्षेत्र में भूस्खलन बढ़ रहे हैं। नासा की एक रिसर्च टीम ने 2020 में अनुमान लगाया कि नेपाल-चीन सीमावर्ती इलाकों में 2061 से 2100 तक 30 से 70 फीसदी अधिक भूस्खलन होंगे। इस क्षेत्र में कई ग्लेशियर और ग्लेशियर से भरी झीलें हैं। इसका मतलब है कि भूस्खलन से जीएलओएफ और जीएलओएफ से भूस्खलन के खतरे काफी ज्यादा हैं।
इसके अलावा, अब इस बात के स्पष्ट प्रमाण हैं कि जलवायु परिवर्तन की वजह से उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में ढलान की अस्थिरता बढ़ रही है, जिसका अर्थ है कि चट्टानों के खिसकने व गिरने और भूस्खलन के लिहाज से, ये क्षेत्र दिनों-दिन बेहद संवेदनशील होता जा रहा है।
किसी बेहद खराब परिस्थिति में, किसी बड़े विनाशकारी भूकंप के मामले में ये सभी तत्व एक साथ इकट्ठा हो सकते हैं। अगर ऐसा होता है तो इस तरह की जटिल आपदाएं, राहत व बचाव से जुड़े प्रयासों को जटिल बनाने और सीमित करने के साथ-साथ बड़े पैमाने पर नुकसान भी पहुंचाएंगी।
पाकिस्तान के नेशनल साइज्मिक मॉनिटरिंग सेंटर के जाहिद रफी कहते हैं कि हिमालय में भूस्खलन के मुद्दे बेहद गंभीर प्रकृति के हैं। 2005 में कश्मीर में ऐसा देखा जा चुका है कि भूकंप आया और उससे लैंडस्लाइड यानी भूस्खलन के हादसे हुए और 86,000 से अधिक लोगों को जान गंवानी पड़ी। उन्होंने यह भी कहा कि भूस्खलन, चट्टानों के गिरने और अन्य हादसों की वजह से आपदा के दौरान, राहत और बचाव कार्य के प्रयास प्रभावित हुए थे। विभिन्न राजमार्ग और पहाड़ी सड़कें क्षतिग्रस्त हो गईं थी जिसकी वजह से प्रभावित इलाके कई हफ्तों तक दुर्गम बने रहे।
साभार – thethirdpole.net