प्रज्ञा शालिनी
भोपाल
मध्यप्रदेश
बहुत खुरदुरा हूँ,
औऱ
रूखा भी
कहा था उसने,
कुछ उदासी भरे
लहज़े से…
तुम बहुत कोमल हो
औऱ
मुलायम भी…
मुस्कराई थी वो
शायद
असहजता,
सम्हालते हए उसकी …
तुम्हारा रूखा होना
औऱ खुरदुरा होना
सबूत है
जुड़ाव का
तुम ही हो जो रोकते हो
मिट्टी अपनी जड़ों में
मेरी मुलायमियत में
धस जाता है l
तुम्हारा खुरदुरा पन
औऱ बचा ले जाते हो
उसके क्षरण को
उपजाऊ बने रहने के लिए
एक सदी से दूसरी सदी तक
कितनी ही मरती हुई
नन्हीं पौध बन उगती
प्राचीन
संस्कृतियों को
औऱ…
दुर्लभ वृक्ष छायादार,
क़ीमती फलों के,
अनगिनत बीज
उपजने के लिए
आने वाली पीढ़ी के लिए…
मुलायम माटी औऱ,
खुरदुरी जड़े…
वो मुस्करा दिया था
धीरे से…
धसते हुए मुझमें,
मैने भी समेट लिया था
हौले से,
ख़ुरदुरापन उसका …
बचाने के लिए
बहुत कुछ…
मिटने के ऐन पहले…