शरद कोकास
वे चट्टानें नहीं थी जो मुझ पर गिरी थीं
न कोई पहाड़ न आसमान
गिरने के अर्थ में गाज भी नहीं
कुछ दिल थे खुशी से धड़कते हुए
जिनकी धड़कनों में जिजीविषा का गान था
मेरी पीठ से टकराते हुए माथों से आती चंदन की गंध
जिसमें पूजाघर की असीम शांति थी
उनकी गर्म सांसों से प्रिया के चुम्बन की महक आ रही थी
उनकी ज़ुल्फ़ों में उंगलियों की गुदगुदी अभी शेष थी
एक वक्ष जिसकी संवेदना में दुधमुंहे शिशु के होठों का स्पर्श उपस्थित था
सर से टकराती उन युवाओं की ठोढ़ियों में उनकी माँ की उंगलियों की छाप थी
स्पर्श संवेदना छाप गंध उष्णता स्नेह प्रेम सब कुछ तिरोहित हो गया
धूल गंदगी रक्त और मलबे के ढेर में
मैं भगदड़ में कुचलकर नहीं मरा था,
वस्तुतः
इन अनुभूतियों का भार मै सह नहीं पाया था