चन्द्रशेखर कुशवाहा
हिन्दी विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय
प्रयागराज
हमारी दोस्ती ऊफान पर थी। हममें न जाति पाति का कोई भेद था। न साम्प्रदायिकता की कोई रेखा थी। बेतकल्लुफ इतने कि सभ्यता का चोला उतारकर एक दूसरे के सामने प्राकृतिक अवस्था में आ जाते। शुक्ल जी भले ही कह गए हों कि कविता हृदय पर पड़े सभ्यता के आवरण को हटाती है पर हमें कविता पर बहस करने की कोई जरूरत ही नहीं पड़ी। हमारी तो बेतकल्लुफी ही यह काम कर जाती। इस तरह की चीजों पर बहस करने से दोस्ती दरकने लगती थी। इसलिए हम इससे बचते थे। हम जितने ही लिजलिजे और बेहया होते जाते हमारी दोस्ती एक नई ऊंचाई को प्राप्त हो जाती। लिजलिलेपन के इस क्रम में हम किसी लड़की को बीच में लाते और पुरुषोचित बताकर आंखों ही आंखों में उसके स्तनो की गोलाइयां नाप जाते। इस तर्क के साथ ठहाके लगाते कि इस विद्या से अनभिज्ञ लड़कों को लड़कियां पसंद नहीं करती। जब हम ये पूछते कि किसके जेब में किस फ्लेवर का कंडोम है तो लगता जैसे ब्रह्म रंध्र से अमृत टपक रहा हो। बीच-बीच में गालियों की फुहारें पड़ती और मन प्रसन्न हो जाता। अब तक कितनी बार किए हो जैसे सवालों से ब्रह्मानंद की अनुभूति होने लगती। यही वो दौर था जब हमारी दोस्ती अपनी अंतिम पराकाष्ठा पर जा पहुंची थी। समय कब निकल जाता कुछ पता ही नहीं चलता था।
पतन आखिर किसका नहीं हुआ। हम भी एक दिन दोस्ती के उच्च आदर्शों से गिर गए। हम उन सारे सवालों को पीछे छोड़ आए जिनकी वजह से हमारी दोस्ती थी। अब हम आगे निकल चुके थे। हमें राजनीति का रोग लग चुका था। हम देशहित के बारे में सोचने लगे थे। ऐसा न सोचें तो बेचैनी होने लगती थी। देशहित के बारे में सोचना और दोस्त बने रहना हमारे लिए एक साथ सम्भव नहीं था। अब हम विचारधारा पर बहस करने लगे थे। लडकी हमारे बीच से जा चुकी थी। नैतिकता बोध आता जा रहा था। भारतीय संस्कृति की रक्षा का दायित्व सिर पर मडराने लगा था। हम अलग अलग पार्टियों को सपोर्ट करने लगे थे। अब हम दूसरी बिरादरी अथवा दूसरे धर्म की लड़की पर कोई टिप्पणी नहीं कर सकते थे। किसी को हिंदू खतरे में लगता तो किसी को मुसलमान। किसी को मंदिर की फिक्र हुई तो किसी को मस्जिद की।
अब हम आरक्षण पर भी चर्चा करते तो कटुता आ जाती। कोई रिजल्ट आता तो हम उसमे यादवों, मौर्यों और ब्राह्मणों की संख्या गिनने लगते थे। सत्ताधारी पार्टी की आलोचना करना दोस्ती को दांव पर लगाने जैसा था। पर जैसे जुए के नशे में चूर धर्मराज द्रौपदी को ही दांव पर लगा बैठे थे हम भी अपनी दोस्ती लगाते गए। पेट्रोल की चर्चा करते ही आग लग जाती थी। कोई कहता कि हम झेलेंगे मगर शेर जरूर पालेंगे। जिसमे झेलने की सामर्थ्य नहीं थी वह देशद्रोही था। अब हम या तो देशप्रेमी थे या तो देशद्रोही। इसका एक निश्चित कानून था। जिसकी पार्टी सत्ता में होती थी वह देशप्रेमी होता था। हम पत्रकारिता पर सरकार की बंदिशों पर बात नहीं कर सकते थे। पत्रकारों पर देशद्रोह के मुकदमों पर बात करते तो हममें कटुता आ जाती थी। दूसरे धर्म के पाखंडो पर टिप्पणी करने से साम्प्रदायिकता बढने लगती थी। बढती बेरोजगारी, जीडीपी की स्थिति, कोरोना से मौत के आकड़ों, कालाधन, नेताओं के झूठ आदि पर चर्चाएं करना दोस्ती को तिलान्जलि दे देना था।
दोस्ती के उच्च आदर्शों से गिर जाने में हमारा कोई दोष नहीं था। यह हमारी नियति थी। हमने उसे स्वीकार कर लिया था।