हिंदु कुश हिमालयन (एचकेएच) रीजन एशिया के ज्यादातर हिस्सों के लिए वाटर टावर है लेकिन इसके खुद के निवासियों को बढ़ती जल असुरक्षा का सामना करना पड़ रहा है। इस क्षेत्र में करीब 21 करोड़ लोग रहते हैं। ये यहां के आठ देशों – अफगानिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, चीन, भारत, नेपाल, म्यांमार और पाकिस्तान- में निवास करते हैं। यहां के पहाड़ों से निकलने वाली नदियां मैदानों में रहने वाले 1.3 बिलियन अन्य लोगों को जल प्रदान करती हैं लेकिन पहाड़ी क्षेत्रों में निवास करने वाले समुदायों को अकसर इसका फायदा नहीं मिल पाता है।
ये संकट अब और भीषण होता जा रहा है। इस क्षेत्र के आधे झरने – जो कि जल आपूर्ति के मुख्य साधन हैं- या तो बारहमासी की जगह मौसमी हो चुके हैं या पूरी तरह से सूख चुके हैं। काठमांडू, नेपाल के इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट (आईसीआईएमओडी) हिंदु कुश हिमालयन रीजन में पानी की कमी के कारकों पर बहुत जरूरी रोशनी डालता है। वाटर पॉलिसी में प्रकाशित आलेख चार देशों- बांग्लादेश, भारत, नेपाल और पाकिस्तान- के 13 कस्बों के देखे गये हालात पर आधारित हैं। आलेख में बताया गया है कि किस तरह कई जटिल कारकों की वजह से ये समस्या बढ़ती जा रही है। आलेख के अनुसार, संकट का कारण बनने वाले पांच प्रमुख क्षेत्र हैं :
• पानी की स्थायी सोर्सिंग की कमी
• वाटर गवर्नेंस के असफल मॉडल
• पानी का असमान वितरण
• वाटर गवर्नेंस में महिलाओं की भूमिका को नजरंदाज करना
• क्लाइमेट चेंज का बढ़ता प्रभाव
इस अध्ययन में शामिल कस्बे पाकिस्तान के मूरी और हावेलियन। नेपाल के काठमांडू, भरतपुर, तानसेन और दमौली। भारत के मसूरी, देवप्रयाग, सिंगताम, कालिमपॉन्ग और दार्जलिंग। बांग्लादेश का सिल्हट। ये भौगोलिक मानचित्र है और ये किसी तरह के राजनीतिक सीमा को प्रदर्शित नहीं करता है।
यह बेहद रुचिकर विकल्प है कि क्लाइमेट चेंज के प्रभावों का सबसे आखिर में रखा जाए। विश्व के अन्य स्थानों की तुलना में एचकेएच रीजन ज्यादा तेजी से गर्म हो रहा है। तिब्बत के पठारों में ऊंचाई वाले स्थानों में तापमान में बहुत तेजी से इजाफा दर्ज किया जा रहा है। निचले इलाकों में क्लाइमेट चेंज के प्रभावों का कम अध्ययन किया गया है। इनमें से एक प्रभाव ये भी है कि इसका सीधा असर लोगों की जीविका पर पड़ रहा है। पूरे क्षेत्र में, भारत में किन्नौर से लेकर स्पीति वैली और नेपाल में मस्तांग तक लोगों के फसल उगाने की पद्धति बदल गई है।
किन्नौर और मस्तांग में अब तक बहुत अच्छे से फलता-फूलता सेब उद्योग लोगों को कम दाम दे रहा है। वहीं इसके विपरीत स्फीति वैली में लोग सेब के बागों की ओर रुख करने लगे हैं क्योंकि उनकी फसलें अब मुनाफा नहीं दे पा रही हैं। स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं पर आजीविका के पारंपरिक रूपों के विनाशकारी प्रभाव को कम करके नहीं आंका जा सकता है। आईसीआईएमओडी की तरफ से हाल ही में प्रस्तुत पेपर में इस विषय पर जोर दिया गया था। पेपर में पानी के सतत स्रोत की कमी के बारे में लिखा गया।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था में जीविका के साधनों में कमी होने के कारण रोजगार की नई संभावनाएं तलाश करने के लिए लोग अपने इलाकों से कस्बों और शहरों की तरफ पलायन करते हैं। इस अध्ययन में बताया गया कि 2001 में हिंदु कुश हिमालयन रीजन की कुल आबादी में से केवल 3 फीसदी बड़े शहरों में थी। वहीं इसकी 8 फीसदी आबादी छोटे कस्बों (बस्याल और खानाल, 2001) में थी। लेकिन अनुमान है कि 2050 तक एचकेएच देशों की 50 फीसदी से ज्यादा आबादी शहरों में रहने लगेगी। (यूएनडीईएसए, 2014) रोजगार और अन्य साधनों की उपलब्धता के कारण लोग शहरों की तरफ खिंचे चले आ रहे हैं। इसके विपरीत ग्रामीण इलाकों में उत्पादकता और संभावनाएं दोनों में गिरावट आई है, इसलिए गांवों से पलायन हो रहा है। एचकेएच रीजन के शहर और गांव शुरुआत में कम आबादी के निवास के हिसाब से स्थापित हुए थे लेकिन अब उन्हें ग्रामीण इलाकों से पलायन करके आने वाली बड़ी आबादी को संभालना होगा। ये भी अपने आप में एक कठिन चुनौती होगी। ऐसी परिस्थिति में पानी के स्रोतों का प्रबंधन बहुत कठिन हो जाएगा।
वैसे तो गवर्नेंस मॉडल्स में सुधार किया जा सकता है या बदलती परिस्थितियों के हिसाब से नये तौर-तरीके अपनाये जा सकते हैं लेकिन अब वे एक विपदाग्रस्त, अस्थिर, जनसंख्या का अतिरिक्त बोझ से जूझ रहे हैं। जाहिर सी बात है कि इसका सबसे बड़ा प्रभाव शहरी विकास पर है। बड़ी संख्या में गांवों से आने वाली आबादी के बीच शहरों और कस्बों में वेटलैंड्स, रिचार्ज होने वाले अन्य जल स्रोत और शहरी इलाकों में सतत जल प्रबंधन के लिहाज से महत्वपूर्ण स्थान, अकसर बेतरतीब ढंग से विकसित हुए हैं।
शहरी इलाकों में जल प्रबंधन को लेकर ये समस्याएं आने वाले वक्त में और ज्यादा बढ़ेंगी। वहां रहने वाले लोग भूजल संसाधनों का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करेंगे, इससे भूजल स्रोत और नीचे जाएगा। इनमें से कुछ शहर पर्यटक स्थल हैं और अकसर अपनी क्षमता से ज्यादा आबादी को प्रश्रय देंगे जिससे जल संबंधी संकट और बढ़ेगा। ऐसी स्थितियां पैदा होने पर दो समूहों को सबसे ज्यादा कीमत चुकता करनी पड़ती है। सबसे पहले उन समूहों को परेशानी का सामना करना पड़ता है जो पहले से ही हाशिये पर हैं। इनमें वे उत्पीड़ित जातियां और समुदाय शामिल हैं जिनको अन्य लोगों की तुलना में ऐतिहासिक तौर पर पानी की उपलब्धता के मौके नहीं दिये गये। ऐसी जातियों और समुदायों के घर आमतौर पर पानी की आपूर्ति वाली मुख्य स्थानों से दूरी पर होते हैं।
कस्बों में नये प्रवासियों के आने की स्थिति में गरीब लोगों को पानी के लिए ज्यादा कीमत चुकता करनी होती है जो कि पहले अकसर उनको अनौपचारिक तौर पर उपलब्ध हो जाया करता था। लेखकों का कहना है कि काठमांडू के 20 फीसदी गरीब परिवारों को औपचारिक जल आपूर्ति प्रणाली के जरिये पानी नहीं मिल पाता है और वे सम्पन्न परिवारों को प्राप्त होने वाली जल आपूर्ति की तुलना में ज्यादा पैसे चुकता करते हैं। अध्ययन में ये भी पाया गया कि गरीबों को अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा पानी पर चुकता करना पड़ता है जिससे उनको ज्यादा वित्तीय बोझ उठाना होता है। सम्पन्न परिवारों को गरीब परिवारों की तुलना में पानी पर 38.2 फीसदी कम चुकता करना पड़ता है।
इसके अलावा दूसरा समूह महिलाओं का है जिनको इन स्थितियों का खामियाजा उठाना पड़ता है। दरअसल, महिलाओं के ऊपर हमेशा घरों के लिए पानी लाने का जिम्मा होता है। महिलाओं पर घरों के लिए पानी लाने का जिम्मेदारी लाने वाली बात शहरी और ग्रामीण दोनों इलाकों में तकरीबन एक जैसी है। बस, ग्रामीण इलाकों के बारे में अंतर इतना है कि वहां के पुरुष शहरों में रोजी-रोटी की तलाश में पलायन कर जाते हैं, कुछ पैसे अपने परिवारों को गांव में भेजते हैं और महिलाओं की जिम्मेदारी अलग तरह की होती है। इन इलाकों में महिलाओं के ऊपर पानी लाने का परंपरागत बोझ तो बना ही रहता है बल्कि पुरुषों के पलायन की वजह से किसान के काम और जीवन चलाने की भूमिका भी आ गई है। कुछ मामलों में इससे महिलाओं में ज्यादा विश्वास पैदा हुआ है। बेहतर स्थानीय प्रबंधन के लिए महिलाओं ने समूह बनाये हैं। लेखकों का इस बात पर जोर है कि उनके अध्ययन में ये बात निकलकर सामने आई है कि इस क्षेत्र में समुदायों के लिए बेहतर समन्वय, योजना और प्रबंधन की जरूरत है। इसको समझने के लिए जरूरी है कि एचकेएच रीजन के कस्बों की पारिस्थितिकी को समझा जाए।
विभिन्न देशों के बीच स्थानीय सरकारों को एक साथ लाने के लिए एक स्थानीय हिमालयन काउंसिल की बात काफी दिन से चल रही है लेकिन इस दिशा में ज्यादा प्रगति नहीं हो पा रही है। हालांकि भारत में इस दिशा में आगे बढ़ने के कुछ संकेत मिले हैं। ऐसे फ्रेमवर्क तब तक सफल नहीं हो सकते जब तक निर्णय लेने की प्रक्रिया में वंचित समुदायों और समूहों को शामिल नहीं किया जाता। इस क्षेत्र में ऐसा अकसर किया गया है। खासकर जब जल विद्युत परियोजनाओं के मामले में निर्णय लेने की बात आई है तो ऐसे समूहों को नजरंदाज किया गया है।
एक आखिरी बात, अगर हम शहरी इलाकों का बहुत अच्छे से प्रबंधन कर लेते हैं, तब भी ग्रामीण इलाकों पर जरूरी ध्यान देने की बहुत आवश्यकता होगी। ये बात मायने नहीं रखती कि एक शहर का आप कितना बेहतर प्रबंधन कर लेते हैं, अगर परेशानी की वजह से ग्रामीण इलाकों से पलायन होता रहता है, तो शहर भी दुख और तकलीफों की प्रजनन भूमि बन जाएंगे
साभार : www.thethirdpole.net