अशोक भाटिया
जैसिंडा के इस्तीफे की दुनिया में चर्चा हो रही है. ”अब मेरे पास जज्बा नहीं है”…यह कहते हुए नम आंखों से न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जैसिंडा अर्डर्न ने इस्तीफे की घोषणा कर दी है. आज के समय में असमर्थता जताते हुए किसी भी देश के प्रधानमंत्री का इस्तीफा देना आम बात नहीं है. 42 साल की उम्र में पीएम की कुर्सी छोड़ने की खबर वायरल हो चुकी है. सत्ता के लालच भरे माहौल में इस तरह का फैसला असाधारण है, इसलिए पीएम जैसिंडा की पूरी दुनिया में तारीफ हो रही है. हर देश के लोग जैसिंडा से अपने नेताओं की तुलना कर रहे हैं. कुछ घंटे पहले उन्होंने ऐलान किया कि वह अपना पद छोड़ने जा रही हैं. प्रधानमंत्री के तौर पर 7 फरवरी उनका आखिरी दिन होगा. सियासतदानों के लिए जैसिंडा मिसाल हैं.
मौजूदा दौर की राजनीति में जब दुनियाभर में सत्ता के लिए तमाम तरह के समझौते जोड़तोड़, दलबदल और कई तरह के षड्यंत्र रचे जाते हों उस दौर में न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जैसिंडा अर्डर्न द्वारा अपने इस्तीफे की घोषणा न केवल स्तब्ध कर देने वाली है, बल्कि सियासतदानों को एक सीख भी देने वाली है. लोकतांत्रिक सरकारों में अक्सर देखा जाता है कि राजनीतिज्ञ ज्यादा से ज्यादा समय तक अपने पदों से चिपके रहते हैं. गम्भीर आरोप लगने के बावजूद वे इस्तीफा देने को तैयार नहीं होते. एक बार मशहूर क्रिकेट विजय मर्चेंट ने अपने सर्वोच्च सफलता के मौके पर रिटायरमैंट के संबंध में कहा था कि तब जाओ जब लोग पूछें कि क्यों जा रहे हो.
यह नहीं कि क्यों नहीं जा रहे. भारतीय राजनीति में भी पदों पर चिपके रहने का रुझान देखने को मिलता है. लेकिन न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जैसिंडा ने भरा हुआ मेला छोड़कर एक मिसाल साबित कर दी. करुणामय होने के साथ-साथ निर्णायक और आशावादी होने के साथ ही जैसिंडा में सबसे अहम बात यह है कि आप अपने नेता स्वयं हैं जिसको यह पता है कि उसके जाने का वक्त क्या होगा. उन्होंने पद त्याग की घोषणा कर नए प्रधानमंत्री को अवसर देने का मार्ग प्रशस्त कर दिया. जैसिंडा ने जिस तरह से लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति आस्था और विश्वास का प्रदर्शन किया है वह अनुकरणीय है. आज के सियासतदाताओं को सबक लेने की जरूरत है.
जैसिंडा ने कोविड की आपदा के दौरान अपने परिश्रम से काफी चर्चा हासिल की थी. वे उस पद पर थीं जो किसी राजनेता का सपना होता है और अगले चुनाव तक वे सुरक्षित स्थिति में थीं. फिर भी उन्होंने इस्तीफे का फैसला लिया. वहीं तक वे नहीं रुकीं बल्कि अगले चुनाव में पीएम की कुर्सी की रेस से भी उन्होंने खुद को अलग कर लिया. किन्हीं कारणों से शिखर पदों पर आसीन लोगों के इस्तीफे पहले भी होते रहे हैं लेकिन जैसिंडा ने इसका जो कारण बताया है , उसने पद पर न रहने पर भी उनके लिए एक ऊंचा मुकाम सुरक्षित कर दिया है.
जैसिंडा के अनुसार उनके पास वह ऊर्जा नहीं बची है, जो इस प्रकार के विशेषाधिकार के पद से जुड़ी जिम्मेदारियों के लिए जरूरी होती है. उन्होंने अनुभव किया कि उनके पास अब देश को कुछ विशेष देने के लिए शेष नहीं है. जैसिंडा चाहती तो इसका फैसला अगले चुनाव के लिए मतदाताओं पर छोड़तीं लेकिन अपनी वर्तमान क्षमताओं के आकलन के लिए उन्होंने खुद को बेहतर पाया और कुर्सी छोड़ने का निर्णय ले लिया.
2017 में 37 साल की उम्र में पीएम चुनी जाने वाली जैसिंडा अर्डर्न उस समय दुनिया में सबसे कम उम्र की महिला राष्ट्र प्रमुख बनी थीं. अक्तूबर 2020 में हुए चुनावों में उनकी पार्टी ने बहुमत हासिल किया, जिसके बाद उनकी पार्टी ने 2020 में सरकार बनाई और अर्डर्न एक बार फिर प्रधानमंत्री बनीं. युवावस्था में अर्डर्न देश की लेफ्ट पार्टियों से जुड़ी थीं. वे देश की अंतिम वामपंथी प्रधानमंत्री हेलेन क्लार्क के कार्यालय में काम करती थीं. वो अपने चुनाव अभियानों में अक्सर समाज में फैली असमानताओं को मुख्य चुनावी मुद्दे बनाती रही थीं.
आखिर वे राजनीति में क्यों आईं, इस पर अर्डर्न ने कहा था, ”भूख से संघर्ष करते बच्चे और बिना जूते के उनके पांव ने उन्हें राजनीति में आने के लिए प्रेरित किया.” 42 साल की जैसिंडा ने कहा कि गर्मी की छुट्टियों के दौरान उन्होंने अपने भविष्य की योजनाओं के बारे में सोच-विचार किया और ये फैसला किया. अब वे अपना वक्त अपनी बच्ची के लालन-पालन और पति के साथ बिताएंगी. जून 2018 में वे दुनिया की दूसरी ऐसी राष्ट्राध्यक्ष बनीं जिन्होंने पद पर रहते हुए बच्चे को जन्म दिया. संयुक्त राष्ट्र की एक बैठक में अपनी बच्ची को गोद में लिए सम्मेलन की हिस्सेदारी करती हुईं जैसिंडा आज की कामकाजी महिला की पहचान थीं.
उनसे पहले 1990 में पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो ने पद पर रहते बेटी को जन्म दिया. वह पद पर रहकर बच्चे को जन्म देने वाली दुनिया की पहली महिला बनी थीं. जैसिंडा ने दुनियाभर की कामकाजी महिलाओं को यह संदेश दिया था कि महत्वपूर्ण पद पर रहते हुए भी एक महिला एक मां होने की जिम्मेवारी भी सम्भाल सकती है. अपने कार्यकाल में जैसिंडा ने कोरोना महामारी और इसके कारण आने वाली मंदी, बढ़ती महंगाई और अन्य कई चुनौतियों का डटकर सामना किया. न्यूजीलैंड के क्राइस्ट चर्च की दो मस्जिदों में हुए धमाकों के बाद जैसिंडा ने जिस तरह से हालात को सम्भाला, उसकी दुनियाभर में तारीफ हुई. वो खुद पीड़ित परिवारों से जाकर मिलीं और उन्हें भरोसा दिलाया कि न्यूजीलैंड उनका घर है. जैसिंडा ने कोरोना महामारी के चलते दो बार अपनी शादी कैंसिल कर मिसाल साबित की थी.
उन्होंने महामारी के शांत होने के बाद ही शादी की. अपनी दरियादिली से जैसिंडा दुनियाभर में चर्चित रहीं. जैसिंडा सरकार ने कई सख्त फैसले भी लिए. यद्यपि उनकी लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई. हालांकि अगले चुनावों में हार का डर भी उन्हें सता रहा था. लेकिन उन्होंने इस्तीफे की घोषणा कर यह कहा कि देश को नए नेतृत्व की जरूरत है जो हर चुनौती स्वीकार कर सके. शांति के दौर में देश का नेतृत्व करना आसान बात है, लेकिन जैसिंडा ने संकट के दौर में देश का नेतृत्व कर अपनी योग्यता प्रमाणित कर दी. जैसिंडा की कार्यप्रणाली को देखते हुए उनके इस्तीफे की घोषणा को देखते हुए चुनावी राजनीति से जोड़ना तर्कसंगत नहीं लगता.
मानवीयता के साथ कुशल प्रशासक की छवि वाली जैसिंडा 7 फरवरी को प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे देंगी, जिसके बाद लेबर पार्टी उनके उत्तराधिकारी को चुनने के लिए वोटिग करेगी. न्यूजीलैंड में इस वर्ष 14 अक्तूबर को आम चुनाव होने हैं. सवाल यह नहीं है कि आम चुनावों में सत्ता किसके पास रहेगी. जैसिंडा ने अगला चुनाव न लड़ने की घोषणा भी कर दी है. उनका यह कहना है कि वह भी एक इंसान हैं और राजनीतिज्ञ भी एक इंसान होते हैं. न्यूजीलैंड का विपक्ष भी जैसिंडा के कार्यकाल की सराहना कर रहा है. दुनिया के अनेक देशों के प्रधानमंत्रियों ने उनके इस्तीफे की घोषणा के बाद उनके कार्यकाल की जमकर तारीफ की है. एक राजनेता होने के नाते यह जिम्मेदारी भी उनको निभानी होगी कि वह स्वयं तय करें कि वह नेतृत्व करने के लिए कब तक सही व्यक्ति चुनती हैं और यह फैसला भी उन्हें करना चाहिए कि उन्हें कब रिटायरमैंट लेनी है.
क्या अपने देश में भी ऐसी कोई मिसाल है, जब किसी उच्च पदस्थ राजनेता ने यह कहते हुए अपनी पारी को विराम को दिया हो कि वह अपना सर्वश्रेष्ठ देश-समाज को दे चुके हैं और कुछ नया जोड़ने को नहीं है?नौकरियों में रिटायरमेंट की उम्र तय है. देश की राजनीति में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है. भाजपा पहला राजनीतिक दल है जिसमें नरेंद्र मोदी के उभार के बाद अपने मंत्रियों, सांसदों और विधायकों के लिए 75 वर्ष की उम्र सीमा तय की.हालांकि पार्टी का यह फैसला 75 पार करने वालों ने मजबूरी में ही स्वीकार किया. ये फैसला किनको किनारे करने के लिए लिया गया, इसकी भी खूब चर्चा हुई .लेकिन भाजपा ने भी 75 वर्ष की उम्र सीमा पार करने वालों के लिए संभावनाओं के द्वार पूरी तौर बंद नहीं किए. ऐसे राजनेता जिनकी राजनीतिक पारी पर इस बंदिश ने रोक लगाई उनमें अनेक राज्यपाल या अन्य सुविधासंपन्न पदों पर समायोजित किए गए और आगे किए जाएंगे.
फिर यह सवाल किसी एक दल से जुड़ा नहीं है. देश का पूरा राजनीतिक तंत्र इस सवाल पर एकजुट है. किसी भी उम्र , किसी भी स्थिति और कितनी भी बिगड़ी सेहत के बीच वे सरकार में मिली जिम्मेदारियों को उठाए रहने के लिए तैयार हैं, यहां तक कि जेल में रहने पर भी! दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन अरसे से जेल में रहते हुए भी मंत्री बने हुए हैं. ऐसे प्रसंग पश्चिम बंगाल और अन्य राज्यों में भी देखे गए हैं. जेल जाते मुख्यमंत्रियों द्वारा गद्दी अपनी पत्नी या फिर वफादारों की भी कई नजीरें हैं. वर्तमान लोकसभा के कार्यकाल का एक साल शेष है. बसपा के एक प्रत्याशी जेल में रहते हुए चुनाव जीते. अभी भी जेल में हैं. राज्यों में अनेक ऐसे विधायक हुए अथवा हैं, जिनका पूरा कार्यकाल जेल में ही बीत गया. उनके क्षेत्रों की किसने सुध ली होगी, इसे समझा जा सकता है.
यहां कब्र में पैर लटकने तक कुर्सी पर जमे रहने की फिक्र नहीं है. यहां तो अपनी अगली पीढ़ी का भविष्य सुरक्षित रखने का घोषित एजेंडा है. हर दल और अपवाद छोड़ बहुसंख्य नेताओं की कोशिश रही है कि उनकी अगली पीढ़ी उनके सामने सांसद-विधायक या मंत्री बन जाए. जिनके अपने पारिवारिक दल हैं, वे अपने प्रस्थान के पूर्व बागडोर अपने बच्चो को सुपुर्द करते हैं. मजबूरी में सक्रिय राजनीति से विदाई के पूर्व अपने मौजूदा दलों या फिर नए दलों में प्रवेश की शर्तों में अगली पीढ़ी का टिकट या पद ओहदा पक्का करना शामिल रहता है. यह देश आजादी के संघर्ष में अपने नेताओं के किए त्याग-समर्पण के किस्से खूब पढ़ता-सुनता रहा है. बेशक इन नेताओं ने देश को शासन की सर्वश्रेष्ठ लोकतांत्रिक और संसदीय प्रणाली सौंपी. लेकिन इस प्रणाली में राजनीतिक पदों के लिए किसी किस्म की योग्यता के बंधन की उन्होंने जरूरत नहीं समझी. उम्र की भी कोई पाबंदी नहीं लगाई.
आजादी के संघर्ष में उनकी जितनी भी गौरवशाली भूमिका रही हो. लेकिन बाद की विफलताओं के बीच भी उन्होंने खुद को न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री अजैडा जैसा चुका नहीं माना. उन्हें आखिरी सांस तक लगा कि उनका सर्वश्रेष्ठ शेष है. और वे जो नहीं दे पा रहे हैं, वह आगे उनके वंशज ही दे पाएंगे. लोकतंत्र का एक नूर चेहरा न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जैसिंडा दिखा रही है. एक धुंधला चेहरा अपने आईने में दिख रहा है. आईने को दोष मत दीजिएगा.