प्रकाश मेहरा
देहरादून। उत्तराखंड के वन अपनी वनस्पतियों और जैव-विविधता के कारण विश्व धरोहर की हैसियत रखते हैं। इस कारण, इसके संरक्षण के लिए विश्व के तमाम हिस्सों से आर्थिक सहायता भी मिलती रहती है। ऐसे में, यह कहना कि सरकारी नीतियों के कारण वनाग्नि की घटनाएं थम नहीं रही हैं, गलत होगा। आखिर क्यों कोई अपनी उस संपदा को खुद ही नष्ट करेगा, जो उसके लिए कई संभावनाओं के द्वार खोलती हो ?
सरकार की आय का एक बड़ा स्त्रोत!
अलबत्ता, सरकार ने तो वनों के लिए अलग से मंत्रालय और विभाग बनाए हैं, ताकि इनका उचित संरक्षण हो सके। इन विभागों में अरबों- खरबों रुपये आते हैं, जिनका इस्तेमाल वनों के संरक्षण में किया जाता है। कुछ लोग यह भी आरोप लगाते हैं कि वन विभाग भले कभी सरकार की आय का एक बड़ा स्त्रोत था, लेकिन आज ये सब बर्बादी के कगार पर पहुंच गए हैं, मगर यदि ऐसे आरोपों में दम होता, तो भारत में वन क्षेत्रों के विस्तार या हरियाली बढ़ाने पर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता।
मौज-मस्ती के लिए जंगलों में आग!
असल में, दिक्कत चंद स्वार्थी लोगों से है। वे सरकारी विभागों में भी पदासीन हैं और समाज की स्थानीय संस्थाओं में भी। वे हमारे संसाधनों को लूट रहे हैं। जब-तब इन पर नकेल जरूर कसी जाती है,लेकिन कानूनी-छिद्रों का फायदा उठाकर ये बच निकलते हैं और फिर से अपनी नापाक मंशा को पूरा करने में जुट जाते हैं। अभी ही दावाग्नि की एक वजह कुछ लोगों द्वारा मौज-मस्ती के लिए जंगलों में आग लगाया जाना है ! मजाक-मजाक में किया गया कोई काम कितना भारी पड़ सकता है, यह हम देख ही रहे हैं। अच्छी बात है कि सरकारी तंत्र ऐसे लोगों पर कानूनी दबिश बढ़ा रहा है, जिसका अच्छा नतीजा ही निकलेगा।