नई दिल्ली: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा के दौरान जब वह राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से मिले, तो चीन की नजरें इस मुलाकात पर टिकी रहीं. कई चीनी विशेषज्ञों का मानना है कि इस भारत-अमेरिका बैठक में चीन एक ‘अदृश्य तीसरा पक्ष’ था.
फुदान यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर अमेरिकन स्टडीज और सेंटर फॉर साउथ एशियन स्टडीज के निदेशक प्रोफेसर झांग जियाडोंग का कहना है कि भारत और अमेरिका के बीच व्यापार शुल्क, इमिग्रेशन वीजा जैसे कुछ मुद्दों पर मतभेद हैं, लेकिन भारत ट्रंप की ‘ट्रेड वॉर’ का मुख्य निशाना नहीं है. अमेरिका के बड़े व्यापारिक साझेदारों में भारत शामिल नहीं है, न ही यह अमेरिका के व्यापार घाटे का बड़ा कारण है और न ही यहां से अमेरिका में अवैध प्रवासियों की बड़ी संख्या है.
संकेत मात्र या रणनीतिक बदलाव?
चीनी विशेषज्ञ याद दिलाते हैं कि ट्रंप के पहले कार्यकाल में भारत-अमेरिका संबंधों में जबरदस्त उछाल आया था. मोदी दो बार अमेरिका गए, ट्रंप ने भी भारत का दौरा किया, और दोनों ने ‘भाईचारे’ का खुलकर प्रदर्शन किया.
चीन का मानना है कि बाइडेन सरकार के आने के बाद इन रिश्तों में हल्की दरार आ गई थी. मानवाधिकार, बांग्लादेश और खालिस्तान जैसे मुद्दों पर मतभेद उभर आए थे, जिससे दोनों देशों के बीच कूटनीतिक रिश्तों में तनाव बढ़ गया था.
लेकिन नवंबर में ट्रंप की दोबारा जीत के बाद दोनों देश अपने रिश्ते फिर से मजबूत करने में जुटे हैं. मोदी ने तुरंत ट्रंप को बधाई दी, भारत के विदेश मंत्री अमेरिका गए, और ट्रंप के शपथ ग्रहण समारोह में शामिल हुए. अब मोदी के अमेरिका दौरे से यह साफ हो गया कि दोनों नेता फिर से करीब आ रहे हैं.
चीनी विश्लेषकों के मुताबिक ट्रंप के व्हाइट हाउस लौटने के तुरंत बाद मोदी का अमेरिका दौरा दिखाता है कि भारत-अमेरिका साझेदारी दोनों के लिए कितनी अहम है.
मोदी उन चुनिंदा विदेशी नेताओं में शामिल हैं जिन्हें ट्रंप ने सबसे पहले बुलाया. यह संकेत देता है कि अमेरिका भारत को अपने सबसे करीबी सहयोगियों – जापान और इजरायल – के बराबर अहमियत दे रहा है.
चीन की चिंताएं
चीनी विशेषज्ञों को डर है कि अमेरिका से करीबी बढ़ाने के चलते भारत चीन के साथ किए गए अपने वादों को पूरा करने में देरी कर सकता है. जनवरी के आखिर में भारत के विदेश सचिव विक्रम मिस्री चीन गए थे, जहां उन्होंने चीनी विदेश मंत्री वांग यी और उप-विदेश मंत्री सुन वेइडॉन्ग से मुलाकात की.
इस बैठक में कई बड़े ऐलान हुए, जैसे भारत-चीन के बीच डायरेक्ट फ्लाइट्स फिर से शुरू करना और वीजा जारी करना. लेकिन चीनी विशेषज्ञों का कहना है कि अभी तक इन वादों पर कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई है.
चीन की सबसे बड़ी चिंता है इस साल होने वाला शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गनाइजेशन (SCO) शिखर सम्मेलन, जिसकी अध्यक्षता इस बार चीन कर रहा है. भारत ने इस मंच पर अपनी सक्रिय भागीदारी की बात कही है, लेकिन भारत की आधिकारिक घोषणाओं में इस मुद्दे का खास जिक्र नहीं है.
चीन चाहता है कि इस बार प्रधानमंत्री मोदी खुद इस सम्मेलन में शिरकत करें. लेकिन पिछले कुछ सालों में भारत की SCO में भागीदारी बहुत उत्साहजनक नहीं रही है, इसलिए चीन इस बार भारत को इस आयोजन में सक्रिय भूमिका निभाने के लिए राजी करने की कोशिश कर रहा है.
मोदी-ट्रंप की दोस्ती से चीन परेशान
चीनी विशेषज्ञों का कहना है कि भारत, चीन और अमेरिका के साथ अलग-अलग तरीके से व्यवहार कर रहा है. चीनी अकादमी ऑफ सोशल साइंसेज की प्रोफेसर हे वेनपिंग का कहना है कि भारत और चीन के बीच बातचीत आमतौर पर छोटे स्तर की बैठकों से शुरू होती है और फिर उच्च अधिकारियों या नेताओं तक पहुंचती है. लेकिन अमेरिका के मामले में मोदी सीधे ट्रंप से मुलाकात कर रहे हैं और बड़े फैसले ले रहे हैं.
चीन मानता है कि ट्रंप की वापसी से भारत को अपने रणनीतिक हित साधने का मौका मिला है, लेकिन इससे भारत-चीन संबंधों पर असर पड़ेगा. हालांकि, चीन को लगता है कि भारत को भी ट्रंप की ‘अलग-थलग रहने’ और ‘संरक्षणवादी’ नीतियों से जुड़े जोखिमों का अंदाजा है. चीन का कहना है कि अभी यह भी साफ नहीं है कि ट्रंप भारत की ‘मेक इन इंडिया’ पहल का कितना समर्थन करेंगे.
इसलिए चीन चेतावनी देता है कि अगर भारत अमेरिका के पक्ष में झुकता है और चीन के साथ अपने रिश्तों को ठंडे बस्ते में डालता है, तो इसके नतीजे अच्छे नहीं होंगे. इससे भारत को फायदे से ज्यादा नुकसान उठाना पड़ सकता है.