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क्या वाकई हलकी है उपेंद्र की राजनैतिक हैसियत?

Jitendra Kumar by Jitendra Kumar
20/02/23
in राज्य, समाचार
क्या वाकई हलकी है उपेंद्र की राजनैतिक हैसियत?
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आखिरकार बिहार की सियासत में पिछले कुछ दिनों से चल रहे बड़े सियासी ड्रामा का पटाक्षेप हो गया. जेडीयू में रहकर नीतीश कुमार के खिलाफ मोर्चा खोलने वाले उपेंद्र कुशवाहा ने एकबार फिर जेडीयू छोड़ने का ऐलान कर दिया है. इससे पहले उपेंद्र कुशवाहा कई बार नीतीश कुमार को अलविदा कह चुके हैं. सियासत को जानने वाले कह रहे हैं कि उपेंद्र कुशवाहा के जाने से तब भी नीतीश कुमार को ज्यादा फर्क नहीं पड़ा था और अब भी जेडीयू में कोई भूचाल नहीं आने वाला है.

नीतीश कुमार भी पहले कह चुके हैं कि जिन्हें जहां जाना है वह जाएं. किसी के जाने से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है. सीएम नीतीश कुमार ने तो यह बयान देने के दौरान उपेंद्र कुशवाहा का नाम भी लेना उचित नहीं समझा. इससे समझा जा सकता है कि कुशवाहा की राजनीतिक हैसियत उनकी नजर में कितनी हल्की है.

मीडिया की सुर्खियों में नाम
दरअसल उपेंद्र कुशवाहा पिछले कुछ सालों में बिहार की राजनीति में नाम तो जरूर बड़ा बन गए हैं लेकिन उनकी राजनीतिक धाक, सीधे और सरल शब्दों में कहें तो राजनीतिक हैसियत बड़ी नहीं बन सकी है. उपेद्र कुशवाहा ने बिहार की राजनीति में जो कुछ पाया वह किसी ना किसी के सहारे पाया. पहले वह विधायक और राज्यसभा सांसद नीतीश कुमार के नाम के सहारे बने बाद में लोकसभा सांसद और केंद्रीय मंत्री मोदी लहर में.

एक नजर राजनीतिक सफर पर
उपेंद्र कुशवाहा के बारे में ये बातें हम नहीं बिहार की राजनीति में उनके साथ जुड़े आंकड़े चीख-चीख कर कह रहे हैं. नीतीश और बीजेपी के बिना वह एक अदद विधानसभा चुनाव नहीं जीत सके हैं. इस दावे को परखने से पहले एक नजर उपेद्र कुशवाहा के राजनीतिक सफर पर डालते हैं. कुशवाहा की राजनीतिक करियर की शुरुआत 1985 में हुई. वह 1985 से 88 तक युवा लोकदल के राज्य महासचिव रहे. 1988 से 1993 तक वह राष्ट्रीय महासचिव थे. इसके बाद 1994 में उनका राजनीतिक कद तब बड़ा हुआ जब वह समता पार्टी के महासचिव बने. 2000 में वह नीतीश कुमार के समर्थन से पहली बार विधायक बने थे. 2005 में वह चुनाव हार गए.

एक अदद जीत नहीं हुई नसीब
चुनाव हारने के बाद कुशवाहा ने अपनी पार्टी बना ली. लेकिन इसके बाद वह कोई चुनाव नहीं जीत सके, जबतक वह दोबारा जेडीयू में नहीं आए. 2010 में नीतीश कुमार ने उन्हें राज्यसभा भेजा. लेकिन वह ज्यादा दिनों तक फिर नीतीश के साथ नहीं रह सके. 2014 में मोदी लहर में वह काराकाट से सांसद और केंद में मंत्री बने, 2019 और 2020 में महागठबंधन और अपनी पार्टी से चुनाव लड़ने के बाद जब उन्हें एक अदद जीत नसीब नहीं हुई तो वह फिर नीतीश की शरण में आ गए. इसके बाद जेडीयू ने उन्हें MLC बनाया.

राजनीति में कभी विश्वसनीय चेहरा नहीं रहे
दरअसल उपेंद्र कुशवाहा बिहार की राजनीति में कभी विश्वसनीय चेहरा नहीं बन सके. मीडिया की सुर्खियों में उनका नाम तो जरूर रहा लेकिन जमीन पर मतदाता उनके साथ कभी नहीं जुड़े. यही वजह है कि जब वह नीतीश या बीजेपी के साथ नहीं रहे तो जनता ने उन्हें बहुत हल्के में लिया. इसे ऐसे समझा सकता है कि एनडीए के साथ गठबंधन कर तीन की तीन सीटों पर जीत दर्ज करने वाली कुशवाहा की पार्टी RLSP 2019 लोकसभा चुनाव में RJD के साथ महागठबंधन में पांच की पांच सीटों पर हार गई. खुद कुशवाहा दो सीटों से चुनाव लड़े, लेकिन एक पर भी नहीं जीत सके. उन्हें काराकाट और उजियारपुर दोनों जगहों से हार का सामना करना पड़ा.

नीतीश-बीजेपी के बिना नहीं जीत सके चुनाव
इसके बाद कुशवाहा ने 2020 विधानसभा चुनाव में एसपी, समाजवादी जनता दल डेमोक्रेटिक पार्टी और AIMIM के साथ मिलकर ग्रैंड डेमोक्रिटिक सेक्युलर फ्रंट के नाम से तीसरा मोर्चा बनाया तब उनकी पार्टी ने 99 सीटों पर चुनाव लड़ा और जीरो पर आउट हो गई. जबकि उनके गठबंधन में शामिल ओवैसी की पार्टी AIMIM 20 सीटों पर लड़कर पांच सीटें जीत गई. कुशवाहा की राजनीतिक क्रेडिबिलिटी उनके अपने राज्य बिहार में असुद्दीन औवैसी से भी कम साबित हुई.

पलटी मारने में माहिर हैं कुशवाहा
बिहार की राजनीति को नजदीक से देखने वाले वरिष्ठ पत्रकार शिवेंद्र नारायण सिंह कहते हैं- कुशवाहा की राजनीति में स्थिरता कभी नहीं रही. बिहार की राजनीति में वह विश्ननीय चेहरा नहीं बन सके तो इसकी वजह राजनीतिक फैसलों में स्थिरता की कमी रही. यही वजह है कि जनता ने उन्हें कभी पूरी तरह से स्वीकार नहीं किया. वह पलटी मारने में बिहार के किसी भी नेता से कहीं आगे हैं.

 

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