धीरेंद्र कुमार
नई दिल्ली। वित्त वर्ष 2023-24 के बजट में वित्त मंत्री ने पांच लाख रुपये तक की पारंपरिक बीमा पालिसियों की परिपक्वता पर मिलने वाली टैक्स छूट खत्म कर दी है। हममें से जो लोग, बीमा उद्योग के अपने कस्टमरों को चूना लगाने की गंभीरता समझते हैं, वो अर्से से इस उम्मीद में हैं कि इसे रोकने के लिए असरदार नियम बनाए जाएंगे। मगर इस बार का बदलाव ऐसा कुछ भी नहीं करता।
ये सिर्फ टैक्स का लूप-होल खत्म करने के लिए लाया गया है। यह बीमा कंपनियों और उनके एजेंटो की लूट को रोकने की कोशिश नहीं है।
नकेल की जरूरत
इस बदलाव से कुछ लोगों के लिए ये नुकसानदायक पालिसियां उतनी आकर्षक नहीं रह जाएंगी। पर इससे बड़ी बात है कि ये लोग बीमा उद्योग के अमीर शिकारों में से हैं। बीमा कंपनियां और उनके एजेंट ऐसे लोगों को निशाना बनाने के लिए आजाद हैं, जो 4,99,999 का सालाना प्रीमियम दे रहे हैं। बुनियादी तौर पर उद्योग पर नकेल कसने के लिए कोई कदम नहीं उठाया गया है।
ये बात साफ है कि एक दशक पहले यूलिप में सुधारों को लेकर उठाए कदम के बाद से न तो किसी तरह की जागरुकता दिखाई गई है और न ही इस वित्तीय समस्या को आधिकारिक तौर पर माना गया है कि देश के करोड़ों बचत करने वालों के लिए बीमा कारोबार किस तरह की मुश्किल खड़ी करते हैं। भारतीयों को जिस चीज की जरूरत है, वो है बीमा का पैसा।
बीमा को लेकर कितने जागरूक हैं हम
बीमा का असल मतलब यह है जिसमें बीमा करवाने वाले व्यक्ति की मृत्यु होने पर परिवार को पैसा मिलता है। जिस दूसरे असली उत्पाद की हमें जरूरत है, वो एन्युटी है। बुनियादी तौर पर, दो ही स्थितियों से सुरक्षा की हमें जरूरत होती है। पहली, बिना काफी पैसे जमा किए जल्दी मौत हो जाना। दूसरी, बिना काफी बचत किए लंबा जीवन होना। बीमा उद्योग को इन्हीं दो परिस्थितियों से निपटना है। इसके बजाए, हमारे पास असली बीमा के वेश में एक गैर-पारदर्शी, महंगी और खराब प्रदर्शन करने वाली एसेट मैनेजमेंट सर्विस है। इससे भी बड़ी बात है कि बीमा कांट्रेक्ट काफी जटिल है।
कैसे गायब होता है आपका पैसा
अगर किस्त नहीं दे सकते तो आप अपने पैसे का बड़ा हिस्सा गंवा बैठेंगे। इसमें आप लाइफ कवर तो गंवाते ही हैं, साथ ही प्रिंसिपल का सारा रिटर्न भी खो बैठते हैं। ऐसा म्यूचुअल फंड एसआइपी या रिकरिंग डिपाजिट जैसे निवेशों में नहीं होता। ये जब्ती जैसी सजा बीमा नियामक और सरकार दोनों को पूरी तरह से स्वीकार्य लगती है। हैरानी इस बात की है कि कई बचत करने वाले भी इस समस्या को नहीं देख रहे हैं।
मिसाल के तौर पर, पर्सनल फाइनेंस में समझने वाली सबसे आसान चीज है, टर्म इंश्योरेंस। जो कोई भी कमाता है उसके पास टर्म इंश्योरेंस होना ही चाहिए। यह बीमा आमदनी का करीब 10 गुना होना चाहिए। मगर जिस चीज में उन्हें कुछ वापस नहीं मिल रहा हो, उसे खरीदने को लेकर लोगों में बड़ा प्रतिरोध रहता है।
बीमा एजेंट दशकों से लोगों को टर्म के खिलाफ समझाते रहे हैं। बीमा में किसी भी अहम सुधार की कमी, भारत के वित्तीय नियामक का सबसे दुखद पहलू है। अब यही बचा है कि ज्यादा से ज्यादा लोग इस बात को समझें और बीमा उद्योग से खुद अपनी समझ बढ़ाकर अपने-आप को बचाएं।
(लेखक वैल्यू रिसर्च आनलाइन डाट काम के सीईओ हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)