काई लगे हरे आँगन में
चुपके से उतरती वैशाख की गर्म सी धूप
ओसार की उंगलियाँ थाम….,
छिड़क चुकी है शरारतों की बूँदें
नींद की गर्म तासीर पर
अल सुबह ही…
गीले बालों वाली नम सी प्रेयसी,
यह बैशाख इतनी शीतल क्यों है।
कहकहे लगाते दीवारों के सीलन भरे धब्बे
तुलसी का हुमकता हुआ पौधा,
उखड़ चुका आँगन के बीच माड़ो का बांस
पक्के फर्श पर कच्चे नेह का निशान बाकी है।
रंग दिया है मेरा कमरा और मेरा मन,
एक चुटकी सिंदूर ने …
कंधे पर छूटा एक टूटा बाल
शर्ट में मुँह छिपाता कुमकुम का आधा टीका,
मेरे विवाहित होने का सार्थक प्रमाण है।
प्रेयसी!
मत समेटो अपनी साड़ी की सफेदी में मुझे
तुम्हारी बगल में पड़ा सूना तकिया…
मैं नहीं हूँ,
खाली कलाइयों में एक बार और
भर लो तुम ,
मेरा मृत घोषित प्रेम…..
कि धूप बदल जाए पूस में
ओढ़ लूँ हवा सा मैं तुम्हारा कमज़ोर शरीर
सेंक दूँ आँचल के भीतर तुम्हारी ठंडी सी सिसकती आत्मा…..
मैं मर के भी अभी जीवित हूँ तुममे ।
मुझे सुनना है तुम्हारी कलाइयों की खनक
गूँथना है बावरा सा प्रेम…
तुम्हारी चोटी,तुम्हारे जुड़े में,
चूमना है गर्दन की मांसल खरोंचें….
तुम्हारा ताखे पर पडा मंगलसूत्र,
देखना है माथे पर बहता सिंदूरी पसीना
प्रेयसी !!
मृत्यु की अनंत सीमा से आगे
मेरा प्रेम…
ले रहा है श्वांस तुम्हारे आंसुओं और तुम्हारे सीने मे
चाहता है अपना प्रतिफल,
तुम्हे ढूँढना है एक जीवित प्रेयस…..
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ताकि मुर्दा मैं…
जी सकूँ तुम्हें…..
अपना ज़िंदा प्रेम।
– मलंग-
अश्वनी तिवारी