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पितृ दिवस विशेष : कारी तु कब्बि ना हारी- “कर्मयोगी तू कभी ना हारना” 

पिता पर लिखना दरअसल अपने पर लिखना होता है - लीलाधर जगूड़ी

Manoj Rautela by Manoj Rautela
20/06/21
in उत्तराखंड, राष्ट्रीय, साहित्य
पितृ दिवस विशेष : कारी तु कब्बि ना हारी- “कर्मयोगी तू कभी ना हारना” 
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वसुन्धरा पाण्डेय


यह पुस्तक एक सच्चे, सुलझे व आज्ञाकारी पुत्र द्वारा हीरो, पक्के दोस्त… प्रेरणास्रोत पिता के लिए लिखा गया एक दस्तावेज़ है, रयाल जी ने इसे रचकर यह साबित किया है कि पिता ने जीवन में समय का मूल्य ही नहीं सिखाया वरन कदम-कदम पर एक-एक दिन, घड़ी-घड़ी पर इन्हें अदम्य साहस, धैर्य व सहनशीलता का पाठ भी सिखाया। यह पुस्तक पिता के साथ-साथ ललित मोहन रयाल जी को भी एक आदर्श पुत्र कहने का अधिकारी बनाता है। पिता ने जो ज्ञान का भंडार औरों को सौंपा उसे उनके बच्चों ने भी कितना ग्राह्य किया वह आप इस पुस्तक में पढ़ सकेंगे।आज पिता नहीं रहे तो यह दस्तावेज़ पुश्त-दर-पुश्त पिता-पुत्र की याद दिलाती रहेगी और भविष्य के पौधे इस पुस्तक से सीख लेते रहेंगे।

‘काऽरी तु कब्बि ना हाऽरि’ (कारी तु कब्बि ना हारी) पुस्तक के लेखक आदरणीय ललित मोहन रयाल ने अपने पिता पेशे से अध्यापक स्वर्गीय मुकुंद राम रयाल जी के संघर्षगत जीवन की कहानी को रचा है जिसमें आप हिंदी व कहीं- कहीं गढ़वाली भाषा का आस्वादन कर सकेंगे। बीच- बीच में गढ़वाली भाषा का प्रयोग पाठकों को पढ़ने में रुचि जगा रहा है। भले ही पढ़कर समझने में समय लगे परन्तु यह रुका हुआ समय थकावट पैदा नहीं करता बल्कि आगे और आगे पढ़ते जाने को विवश कर रहा है…क्यूंकि ‘भाषा बरतने का माध्यम है, जानने भर का नहीं। व्याकरण को जानने भर से किसी समाज में बोली जा रही भाषा के बीच हुआ नहीं जा सकता, उसके लिए समाज मे रच-बस जाना जरूरी होता है।

जीवनी अक्सर लोग चर्चित व्यक्ति पर ही लिखते हैं, पर जरूरी नहीं कि जीवनी किसी चर्चित व्यक्ति पर ही लिखी जाय–यह कहानी किसी चर्चित व्यक्ति से ऊपर की कहानी है जिसे हम, आप देखते… सुनते… समझते हुए भी नहीं लिख पाते हैं। कहते हैं कि सच्चे इंसान का संघर्ष बहुत घुमावदार होता है। जो अपने भीतर के सूरज को नहीं भूलता उसे मंजिल अवश्य मिलती है। स्वर्गीय मुकुंद राम रयाल जी को अध्ययन की ललक ने घर से भागने को मजबूर किया, उन्होंने तमाम तरह की मुसीबतों से टकराते, मात देते अपनी शिक्षा पूरी की और अध्ययन-अध्यापन करते हुये ताउम्र उनमें सीखने-सिखाने की  ललक बनी रही, आप निश्चय ही बहुगामी चेतना के चट्टान थे, उन्हें पता था कि वे कर सकते थे अपने वजूद का सर्वव्यापीकरण। काऽरी तु कब्बि ना हाऽरि’ में  अपने पिता के जीवन के हर लम्हे को , कभी दुख तो कभी सुख को, तर्जुबों की रंगाई से परत दर परत अपनी पुस्तक की कैनवास में दर्ज करते हुये ललित मोहन जी ने पहाड़, नदी, जंगल, पशु-पक्षी, झरने, चीड़-पेड़ और धरती के सारे सौंदर्य को ऐसी जीवन्तता से उकेरते हैं कि पाठकों की आंखों के सामने चल-चित्र सा चलता हुआ लगे। कहना न होगा कि आपकी पुस्तक इस सर्वग्रासी समय का मुकम्मल बयान है। यह पुस्तक पाठकों को उनके बहुस्तरीय आंतरिक यथार्थ से रू-ब-रू कराती है और उनके अंतर्मन को आलोड़ती भी है। आपने उस परिवेश के जिस तनाव को महसूस किया है वह कमोबेश दृश्य में अब भी उसी तीव्रता से मौजूद है।

पुस्तक में दर्ज है-वहीं से ये पंक्तियां- कर्मयोगी का गुणनफ़ल जिम्मेदारियों का भागफलपिता के साहस का विस्तार है जिम्मेदारियों का निर्वाह करते l

…उतर गए पिता पार,
उस पिता को शत-शत नमन। –


इलाहाबाद पुस्तक-‘काऽरी तु कब्बि ना हाऽरि’
लेखक- ललित मोहन रयाल
प्रकाशक- काव्यांश प्रकाशन
ऋषिकेश-249201
मोबाइल- 9412054115 एवं 7017902656
मूल्य- 195 रुपये
प्रकाशन वर्ष- 2021

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