कुमार मंगलम की प्रारंभिक शिक्षा बिहार में गाँव से हुई l फिर उन्होंने स्नातक और परास्नातक की पढ़ाई काशी हिंदू विश्वविद्यालय से की l कुँवर नारायण के काव्य में दार्शनिक प्रभाव विषय पर गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय, गाँधीनगर से एम.फिल, फिलहाल समकालीन हिंदी कविता में शहर और गाँव की विविध छवियों का अध्ययन, विषय पर इग्नू नई दिल्ली से शोधरत हैं l
कहते हैं कि
राजा हरिश्चंद्र के पूर्वज त्रिशंकु ने
सशरीर स्वर्ग जाने की जिद की थी
और राजर्षि विश्वामित्र ने
चुनौती दे दी थी इन्द्रादि देवताओं को
और इस तरह से त्रिशंकु बढ़ने लगे थे स्वर्ग की ओर
देव सभा स्तब्ध थी
कि यह कैसी चुनौती है
और फिर रचा जाने लगा षड़यंत्र
मानवों के विरुद्ध
एक भीषण षड़यंत्र
और त्रिशंकु लटक गए अधर में
त्रिशंकु के लार से बनी एक नदी
जिसे कर्मनाशा कहते हैं
और यूँ नदी लांक्षित हुई
और शापित भी
उसे स्पर्श करने मात्र से
सभी पुण्यों का नाश हो जाता है
क्या कभी कोई नदी शापित हो सकती है
अथवा
क्या कभी कोई स्त्री लांक्षित
यह देवताओं का षड़यंत्र था मनुष्यों के विरुद्ध
मैं इसी कर्मनाशा नदी के किनारे रहने वाला
एक अदना कवि हूँ
तुलसी बहुत दूर थे तुमसे हे कर्मनाशा
तुम्हें जान नहीं पाए
नहीं तो क्योंकर लिखते
‘काशी मग सुरसरि क्रमनाशा’
उनके आराध्य की आराध्या तो गंगा ही थीं
लेकिन मैं जानता हूँ
इसी नदी का पानी पीकर
मेरे पूर्वजों ने अपनी प्यास बुझाई है।
और इसी नदी के पानी से
हमारी फसलें लहलहाई हैं।
जिन्हें खाकर मेरी ही नहीं
कई शहरों की भूख मिटी है।
तो अब बताएं हे देव?
कर्मनाशा कैसे शापित हुई
क्योंकि उसके पानी से उपजे अन्न का
प्रसाद तो आपने भी खाया है।
आज मैं नदी को शाप-मुक्त करता हूँ
और देवताओं के षड़यंत्र को धत्ता बताते हुए
कर्मनाशा के पानी से उपजे अन्न को खाने के जुर्म में
आपको अपराधी पाता हूँ
यह एक नदी से ही सम्भव है
कि
वह आपसे आपका देवत्व छीन ले।
“कर्मनाशा 2”
कर्मनाशा जो एक नदी है
नदियों में श्राप
दुःख की नदी
मेरे पूर्वज!
कभी समझ नहीं पाए
क्यों यह नदी है दुःख की
अपने बच्चों को बताना चाहता हूँ
कि सुरसरि से अधिक पवित्र
है यह नदी
इस नदी का पानी पीकर
मेरे बच्चे, तुम बलिष्ठ हुए हो।
यह
एक स्त्री नदी है
जो तुम्हारी माँ हो सकती है
बहन हो सकती है
प्रेमिका भी हो सकती है
तमसा, कर्मनाशा, असी,
आमी, दुर्गावती
और भी अन्य
और भी कई
नदियाँ
ये दुःख की नदियाँ है
क्योंकि यह किसानों की नदी है।
बारिश के वैभव की ये नदियाँ
पंडितों के व्यापार की नदी नहीं
कर्मशीलों के पसीनों की सहचरी है।
उम्मीद में चलना कि सुबह होगी
हम चले जा रहे थे
सड़क पर
लहू बोते
गलत पते पर पहुँचने वाले चिट्ठियों की तरह
हमें अपने गाँव से जीने की उम्मीद नहीं
अपने माटी में मरने का सुख
लिए जा रही थी
हमें बैरंग वापस नहीं लौटना था।