गौरव अवस्थी
कानपुर: कानपुर से महज 20 किलोमीटर दूर स्थित बिठूर (पुराना नाम ब्रह्मावर्त) एक पौराणिक-धार्मिक स्थान के रूप में तो प्रसिद्ध है ही लेकिन इसकी ऐतिहासिकता भी कम चर्चित नहीं है। इतिहास में बिठूर को स्वाधीनता संग्राम का ‘तीर्थ क्षेत्र’ कहा जाता है। सब जानते हैं कि 1857 में स्वाधीनता की प्रथम क्रांति का केंद्र नाना राव पेशवा का बिठूर में बना किला ही था। वैसे तो विद्रोह की सजा के स्वरूप ब्रिटिश हुकूमत ने नाना राव के इस किले को तोपों से ध्वस्त कर जुतवा तक दिया था।
कुछ अंदरूनी कमियों और गलतियों से भले ही 1857 का प्रथम स्वाधीनता संग्राम विफल हो गया हो लेकिन जान की बाजी लगाकर बिठूर के राजा नाना राव पेशवा, उनके प्रमुख सेनापति तात्या टोपे,झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, बाजीराव पेशवा, बेगम हजरत महल, अज़ीमुल्ला खां, राव राम बख्श सिंह, राना बेनी माधव सिंह, बहादुर शाह जफर जैसे ना जाने किसने स्वातंत्र्य वीरों ने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए थे। क्रांतिवीरों की वीरता से प्रभावित होकर कानपुर की तवायफ अज़ीज़न भी अपनी नकद राशि और सोने चांदी के जेवर नाना राव पेशवा को देकर जंग में कूद पड़ी थी।
1947 में आजादी के बाद सरकारों ने बचे-खुचे किले को सहेज कर क्रांतिवीरों की यादों को करीने से सहेजा है। घूमने फिरने, मन बहलाने और पुरानी यादों से जोड़ने के लिए किले वाली भूमि पर बनाए गए पार्क में नाना राव की आदमकद और उनके प्रमुख सेनापति तात्या टोपे की आवक्ष प्रतिमा प्रेरणादाई है। एक हिस्से में स्वाधीनता संग्राम की याद दिलाने वाले संग्रहालय की स्थापना बिलाशक बेहतरीन। संग्रह भी अच्छा। प्रथम स्वाधीनता संग्राम से लेकर झंडा गीत के रचयिता श्याम लाल पार्षद तक की यादें। ‘प्रताप’ से लेकर ‘मतवाला’ मासिक पत्रिका के पृष्ठों का पृष्ठपेषण। ‘इंकलाब जिंदाबाद’ का नारा देने वाले मौलाना हसरत मोहानी से जुड़ी वीथिका। सब कुछ अच्छा। प्रेरक।
खटकने वाली बात कोई है तो बस यही कि संग्रहालय में तो जूते-चप्पल उतार कर जाने का नियम और स्वाधीनता की अलख जगाने वाले नाना राव पेशवा के प्रतिमा स्थल पर जूते-चप्पल पहनकर जाने में कोई रोक-टोक नहीं। वाह री! व्यवस्था। वाह रे! नियम। अरे, स्वाधीनता संग्राम से जुड़ा हर ‘वीर’ भगवान से कम नहीं। फिर नाना राव पेशवा की गिनती तो प्रथम स्वाधीनता संग्राम के उन गिने-चुने नायकों में है जिन्होंने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ क्रांति का झंडा पहले-पहल उठाया। प्रयागराज के आजाद पार्क में प्रतिमा स्थल पर सब जूते-चप्पल उतार कर ही जाते हैं। वह नियम यहां क्यों नहीं हो सकता? नाना राव पेशवा और झांसी की रानी लक्ष्मीबाई तो चंद्रशेखर आजाद के भी प्रेरक पूर्वज हैं।
एक और बात ने दिल कुछ ज्यादा ही दुखाया। ऐतिहासिक किले की प्राचीर में प्रवेश करते ही बाएं हाथ दीवार पर टंगे एक बोर्ड पर निगाह हर एक की टिकती है। हमारी भी टिकी। बोर्ड का मजमून है -‘ शुभ विवाह, मांगलिक कार्यक्रमों, किटी पार्टी, सेमिनार इत्यादि सभी आयोजनों हेतु मुक्ताकाशी मंच, लाॅन और वातानुकूलित कक्ष उपलब्ध है। (चित्र संलग्न) मुक्ताकाशी मंच के ठीक बगल में वह ऐतिहासिक कुआं स्थित है, जिसमें कूदकर नाना राव पेशवा के घर की महिलाओं और बच्चों ने ब्रिटिश फौजों की गिरफ्त में आने के बजाय मौत को गले लगाने को तरजीह दी थी। ‘रियल’ लड़ाई से जुड़े ऐसे ऐतिहासिक स्थान पर बॉलीवुड के भद्दे हेयर स्टाइल वाले लड़कों की ‘रील’ के लिए इधर-उधर की उछलकूद देखकर दिल और बैठ गया। बलिदान स्थल पर ऐसी फूहड़ता पर तो तत्काल रोक लगा ही देनी चाहिए। जिस स्वाधीनता के लिए नाना राव पेशवा, उनका परिवार मर मिटा, क्या उस स्थान को किटी पार्टी के लिए देना उचित है? बलिदान स्थल पर मंगल गीत का क्या मतलब?
इस किले की देखरेख का जिम्मा संभालने वाले उत्तर प्रदेश पर्यटन विकास निगम के अफसरों को इस मसले पर सोचना जरूर चाहिए। पैसा या सरकारी भाषा में कहें ‘राजस्व’ कमाने के लिए ऐसे ऐतिहासिक स्थल ही बचे हैं क्या? अच्छा तो यह होता कि पर्यटन विकास निगम यहां नाना राव पेशवा, बाजीराव पेशवा, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई और तात्या टोपे से जुड़े प्रसंगों पर मुक्ताकाशी मंच और परिसर में लाइट एंड साउंड शो शुरू करके कमाई कर ले। सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। आने वाले को पैसे के बदले कुछ तो सार्थक ज्ञान मिले।
कुरुक्षेत्र में गीता ज्ञानस्थल पर गजब का लाइट और साउंड शो देखिए जाकर। क्या स्क्रिप्ट, क्या तकनीक और क्या प्रदर्शन। एक कुरुक्षेत्र नहीं, देश भर के तमाम ऐतिहासिक और पौराणिक स्थानों पर लाइट और साउंड शो का प्रचलन अब आम है। गदर की गद्दारी से जुड़े ग्वालियर के किले में साउंड शो हो सकता है तो बिठूर में क्यों नहीं? वफादारी और देशभक्ति का यह सिला! अफसरों को सोचना चाहिए कि किटी पार्टियों से बलिदान देने वाली ‘पुण्यात्माओं’ कितना कष्ट हो रहा होगा। नया वर्ष तभी सार्थक होगा जब बिठूर के इस ऐतिहासिक किले में बलिदान देने वालों की कद्र बढ़े।
झांसी की रानी ने यहीं सीखी थी घुड़सवारी
1857 के प्रथम शादी का संग्राम में अंग्रेजों के दांत खट्टे करने वाली झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का बचपन बिठूर के किले में ही बीता था। चंचल स्वभाव की लक्ष्मी बाई बचपन से ही तेजतर्रार थीं। उन्होंने इसी के लिए में रहते हुए तीर तलवार चलकर युद्ध कला और घुड़सवारी सीखी थी। यहां के संग्रहालय में लक्ष्मी बाई की वास्तविक फोटो के दर्शन भी नसीब होते हैं। संग्रहालय में एक हिस्सा लक्ष्मीबाई की वीरता का बखान करने वाला भी है।
कौन थे नाना राव पेशवा
क्रांतिवीर नाना राव पेशवा का जन्म महाराष्ट्र प्रांत के पूरे जनपद के पास वेणु गांव में हुआ था। पिता माधव नारायण राव और मां गंगाबाई थीं। 7 जून 1827 को बाजीराव पेशवा ज्योति ने उन्हें गोद लिया। 1851 में बाजीराव की मृत्यु के बाद नाना साहब ने गद्दी संभाली पर अंग्रेजों ने राजा करने से इनकार कर दिया। 1854 में उन्होंने अपने वकील मित्र अजीमुल्ला खान को लंदन भेजा पर बात नहीं बनी तो उन्होंने अप्रैल 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल फूंक दिया। ब्रिटिश फौज उन्हें अंत तक जीवित नहीं पकड़ पाई थी।
गुरिल्ला युद्ध के जनक शूरवीर तात्या टोपे
तात्या टोपे नाना साहब पेशवा की सेना के जनरल थे। उनका जन्म 1814 में महाराष्ट्र के येवला गांव में हुआ था। बाजीराव पेशवा और पिता पांडुरंग राव के साथ वह 1818 में बिठूर आए। युद्ध कला में निपुण नाना साहब ने उन्हें अपनी सेवा की पुरुष कमान का प्रमुख नियुक्त किया। 1854 में भारत के प्रमुख राज्यों से मिलकर स्वाधीनता संग्राम की पृष्ठभूमि तैयार की। उनकी शूरवीरता से ब्रिटिश अफसर भी हैरान रहते थे। अंग्रेज अफसर मीड़ ने कहा भी था कि अगर संपूर्ण भारत में पांच तात्या टोपे होते तो अंग्रेजों को भारत से भागना पड़ता। बिठूर का किला ध्वस्त होने के बाद तात्या टोपे 1860 में मध्य प्रदेश के शिवपुरी के जंगलों में विश्राम करते समय गद्दार की सूचना पर पकड़े गए। ब्रिटिश सेना ने उन्हें वही फांसी पर लटका कर मौत के घाट उतार दिया था।