गौरव अवस्थी
रायबरेली
बचपन में कुत्तों की भाषा बता कर अंग्रेजी पर प्रहार, किशोरवय में पिता की अंग्रेज परस्त बनाने की कोशिश को असफल, छात्र जीवन में आजादी के बीज का अंकुरण, युवावस्था में अंग्रेज अफसर कर्जन वायली का वध और हंसते-हंसते फांसी का फंदा चूम लेना किसी सामान्य व्यक्ति के लक्षण नहीं थे. ऐसे क्रांतिवीर का नाम था मदन लाल धींगरा. सिर्फ 25 साल की उम्र में धींगरा ने भारत को आजाद कराने के लिए मृत्यु का वरण किया था.
1 जुलाई 1909 की रात लंदन के इंडियन नेशनल एसोसिएशन के जलसे में कंपनी सरकार में भारतीयों पर तरह-तरह के जुल्म ढहाने वाले कर्जन वायली के सीने में अपनी पिस्टल से तड़ातड़ 2 गोलियां भरी सभा में उतार दी. धींगरा यह मौका किसी भी सूरत में हाथ से नहीं जाने देना चाहते थे. वही हुआ और कर्जन वायली मारा गया. उसे बचाने आया एक फ्रांसीसी नागरिक भी धींगरा की गोलियों का शिकार बना था. कुछ विद्वानों का मत है कि वायली के वध के बाद वीर धींगरा ने खुद को गोली मारने का जतन किया लेकिन पकड़े जाने पर वह इरादा पूरा नहीं हुआ. दूसरी ओर कुछ इतिहासकारों का मत है कि सभा से भागने के बजाय साहसी धींगरा वही खड़े रहे और उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. धींगरा के इस साहस भरे कारनामे की अखबारों में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा भी हुई. वायली के वध की खबर लंदन और पेरिस समेत कई देशों के समाचार पत्रों की सुर्खियां बना था. अंग्रेजों की मंशा ना होने के बावजूद भारत में भी यह समाचार तेज गति से फैल गया था.
वायली के वध को दुनिया के सामने गलत तरीके से पेश न किए जाने और अपनी अंतिम इच्छा एक पत्र के रूप में लिखकर उन्होंने जेब में रख लिया था लेकिन ब्रिटिश हुकूमत ने भारत में कंपनी राज कमजोर न पड़ने देने के लिए उस पत्र को गायब कर दिया. हालांकि ब्रिटिश सरकार को यह नहीं पता था कि धींगरा उस पत्र की एक प्रति पहले ही वीर सावरकर को सौंप चुके थे. वीर सावरकर ने धींगरा का वह पत्र चोरी-छिपे पेरिस पहुंचा कर फ्रांस के एक समाचार पत्र में छपवाने का प्रबंध कर दिया. उसके बाद ब्रिटिश सरकार वायली के वध के कारणों को लेकर को दुनिया को गुमराह नहीं कर सकने में कामयाब हुई. धींगरा से ब्रिटिश हुकूमत इतनी डरी हुई थी कि उसने भारत में राज करने वाली कंपनी सरकार को पत्र लिखकर कहा-” हम यह नहीं चाहते हैं कि इस शहीद के अवशेष पार्सल से भारत भेजे जाएं.
साहस की प्रतिमूर्ति मदन लाल धींगरा भारत के एक ऐसे क्रांतिकारी थे जिन्होंने अंग्रेजों की धरती पर भारत विरोधी और अपने पिता भाइयों के करीबी अंग्रेज अफसर का वध करके दुनिया को एक संदेश दिया था कि वह दिन दूर नहीं जब भारत आजाद होगा. भारतीयों को वायली के वध के जुर्म में ब्रिटिश अदालत में दिया गया धींगरा का वह बयान जरूर पढ़ना चाहिए जिसका एक-एक शब्द साहस को व्यक्त करने वाला है. वह मानते थे कि भारत पर राज करने वाले अंग्रेज अफसर 33 करोड़ भारतीयों के अपराधी हैं. अपने “चुनौती” नामक एक वक्तव्य में उन्होंने साफ-साफ कहा था- “मेरे को विश्वास है कि संगीनों के साए में पनप रहे भारत में एक युद्ध की तैयारी अवश्य चल रही होगी. क्योंकि यह लड़ाई असंभव मालूम पड़ती है और तमाम बंदूकों पर प्रतिबंध लगा दिया गया है. ऐसे स्थिति में मैं यही कर सकता था कि अपनी पिस्तौल से गोली मार दूं. मेरे जैसा गरीब और सामाजिक रुप से अप्रतिष्ठित व्यक्ति यही कर सकता था कि अपनी मातृभूमि के लिए अपना रक्त बहाऊं और मैंने यही किया. आज की स्थिति में हर भारतीय के लिए एक ही सबक है कि वह यह सीखे कि मृत्यु का वरण कैसे किया जाए? यह शिक्षा तभी फलीभूत होगी जब हम अपने प्राणों को मातृभूमि पर बलि चढ़ा दें. इसलिए मैं मर रहा हूं और मेरे शहीद होने से मातृभूमि का मस्तक ऊंचा ही होगा.
17 अगस्त 1909 को लंदन की पेंटोनविले जेल में उन्हें फांसी पर चढ़ा दिया गया. अपनी अंतिम इच्छा में मदनलाल धींगरा ने कहा था कि उनके शव को कोई भी गैर हिंदू हाथ न लगाए और शव वीर सावरकर को सौंप दिया जाए. हिंदू रीति रवाज से ही मेरा अंतिम संस्कार हो लेकिन अंग्रेज हुकूमत ने उनकी आखिरी इच्छा डर के मारे पूरी नहीं की. सनातन हिंदू धर्म की परंपरा के विरुद्ध एक कोड नंबर एलाट कर शव को दफना दिया गया. शहादत के 38 वर्ष बाद भारत के आजाद होने पर भी इस क्रांतिवीर को सरकार की उपेक्षा सहन करनी पड़ी. वर्ष 1976 में मदनलाल धींगरा के अवशेष भारत लाए जा पाए थे. वह भी तब जब शहीद उधम सिंह के अवशेष को खोजते हुए धींगरा के अवशेषों पर खोजकर्ताओ की नजर पड़ी. इसके बाद ब्रिटिश सरकार ने उनके अवशेष भारत को सौंपा. वीर धगरा के अवशेष पंजाब भेजे गए लेकिन आज तक पंजाब में उनका कोई स्मारक का पता नहीं चलता. राजस्थान के अजमेर में जरूर रेलवे स्टेशन के बाहर एक छोटा सा स्मारक बना हुआ है.
विदेश में भारत की आजादी के लिए बलिदान देने वाले वह पहले क्रांतिवीर माने जाते हैं. उनकी शहादत को दुनियाभर ने सलाम किया था. फांसी दिए जाने के बाद एक आयरिश समाचार पत्र ने धींगरा को बहादुर व्यक्ति की संज्ञा दी थी. काहिरा से प्रकाशित होने वाले मिश्र के समाचार पत्र “लल्ल पेटी इजिप्शियन” ने धीगरा को अमर शहीद की उपाधि देते हुए आगामी 40 वर्षों में ब्रिटिश साम्राज्य के पतन की भविष्यवाणी की थी. यह भविष्यवाणी सच भी साबित हुई. धींगरा की शहादत के 38 साल बाद ही भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का पतन हो गया. कांगेस की संस्थापक मानी जाने वाली श्रीमती एनी बेसेंट ने कहा था कि देश को इस समय बहुत से मदनलाल की जरूरत है. वीरेंद्र नाथ चट्टोपाध्याय ने धींगरा की स्मृति में एक मासिक पत्रिका प्रारंभ की थी, जिसका नाम था “मदन तलवार” यानी (मदनलाल की तलवार). कुछ समय बाद ही यह पत्रिका विदेश के भारतीय क्रांतिकारियों के लिए मुखपत्र बन गई थी. यह पत्रिका बर्लिन में मैडम कामा द्वारा प्रिंट कराई जाती थी. शहादत के 10 वर्ष बाद 1919 में डब्लू डब्लू ब्लंट की प्रकाशित पुस्तक में भी धींगरा की बहादुरी की प्रशंसा करते हुए लिखा गया- “धींगरा ने जिस बहादुरी के साथ एक न्यायाधीश के सामने अपना ओजस्वी बयान दिया वैसा किसी भी ईसाई शहीद ने नहीं दिया होगा”.
1857 में प्रथम स्वाधीनता संग्राम के असफल होने और भारत पर ब्रिटिश हुकूमत के एकाधिकार के बीच 18 सितंबर 1886 ( अनुमान के आधार पर क्योंकि लंदन में अंग्रेज अफसर कर्जन वायली के वध के बाद संभवत अंग्रेजों के पिट्ठू पिता और भाई में सबूत मिटा दिए) को वीरों की धरती पंजाब के अमृतसर में जन्मे क्रांतिकारी मदन लाल धींगरा भारतीय स्वाधीनता संग्राम के चमकते सितारे थे. हालांकि अंग्रेज परस उनके पिता और भाइयों ने वायली के वध के बाद उनसे अपने सारे संबंध समाप्त कर लिए थे लेकिन देश के लोगों ने उन्हें शहीद का दर्जा दिया.
देश की आजादी और मातृभूमि के लिए प्राणों का उत्सर्ग करने वाले मदनलाल धींगरा को शहादत दिवस पर हर भारतीय की तरफ से शत-शत नमन…