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समृतिशेष : बात कुमाऊँनी रसोई व सोशल डिस्टेन्सिंग की

Manoj Rautela by Manoj Rautela
04/05/21
in उत्तराखंड, कला संस्कृति, कुमायूं, गढ़वाल, घर संसार, देहरादून, मुख्य खबर, साहित्य
समृतिशेष : बात कुमाऊँनी रसोई व सोशल डिस्टेन्सिंग की

लेखक-डॉ गणेश उपाध्याय

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-समृतिशेष : बात कुमाऊँनी रसोई

व सोशल डिस्टेन्सिंग की –

उधम सिंह नगर: कोरोना काल ने 40 -50 वर्ष पूर्व के सामाजिक परिवेश की याद ताजा करा दी है। सोशल डिस्टेन्सिंग की थ्योरी ने पुरानी छुआछूत की मान्यताओं के वैज्ञानिक पक्ष की अवधारणाओं को प्रबल किया है, जिसका एक पक्ष जातिगत छुआछूत की गलत अवधारणाओं से ग्रसित रहा है। इन सब से परे मैं कुमाऊँनी रसोई में घर के ही सदस्यों के बीच की जाने वाली सोशल डिस्टेन्सिंग की अपनी यादों को वर्तमान पीढ़ी के समक्ष लाना चाहता हूँ।

कुमाउँनी रसोई

बाल्यकाल से ही रसोई से हम सब का गहरा नाता रहा है। पहाड़ी में रसोई को चुल कहते हैं। जो कोई भी रसोई में घुसा रहता था उसे “चुल पन खोसी” कहकर मजाक में चिढ़ाया करते थे। हमारी आमा (दादी) व बूबू (दादाजी) का रसोई पर पूर्ण अधिकार रहता था और वो ही उसका नियमानुसार संचालन किया करते थे। रसियार (खाना पकाने वाला) व भोजन ग्रहण करने वालों के नियम अलग होते थे। जिनको मैं अलग से नीचे प्रस्तुत करूंगा।

कुमाउँनी रसोई

हांलाकि उससे पहले मैं चूले के विनियास के बारे में कुछ रोचक जानकारी देना चाहूँगा। पहाड़ में चूला पत्थर-मिट्टी से बनाया जाता था और जिसको चिकनी लाल-मिट्टी व गाय के गोबर के मिश्रण से (भोजन पका लेने के उपरान्त) लेपा जाता था। इस प्रकार हर भोजन के बाद चूला साफ सुथारा मटमैले रंग (कैंमल कलर) में दमकता दिखाई देता था। चीड़ के छिलुके, पिरूल या ठीठे या बाजँ के केड़े व मिट्टीतेल का इस्तेमाल इसको प्रारम्भ में जलाने में किया जाता था। जलने के बाद तीन चार बड़ी लकड़ियो को लम्बे समय तक उर्जा प्राप्त करने के लिये लगाया जाता था। जरूरत पड़ने पर बगल वाले चूले को भी जली हुई लकड़ियों को सार कर (खिसका कर) जला लिया जाता था। कन्ट्रोल (सरकारी राशन की दुकान) से हर महिने राशन कार्ड पर मिट्टीतेल व साबुत-नमक आदि लाना हर परिवार का मासिक कार्य हुआ करता था। आमा और इजा (मम्मी) सुबह प्रात तड़के उठकर गाय का दूध निकालती थी और आमा चुले पर दूध को उबालने के बाद हमको धार लगाती (पुकारती) थी … “रजुआ, कनुआ, पपुआ दूध पिहुँ ऐ जाओ !” हम लोग दौड. कर चूले में जाते और पीतल के ब़ड़े ब़डे गिलासों में सुबह व शाम दूध पिया करते थे। जाड़ों में गुड़ व गर्मियों में चीनी या मिश्री की डई के साथ और कभी कभी तो एक बड़ी चम्मच घी को भी दूध में घोल दिया जाता था। चूल्हे के बाहर गौत (गोमूत्र) का एक गिलास और उसमें एक पत्ते की टहनी (फांग) डूबी रहती थी जिसको हाथ धोने के बाद अपने ऊपर छिड़कते हुए चूले में नंगे पाँव (या खड़ाऊँ पहन कर )प्रवेश करना होता था। चूल्हे में जो भी खाना पका रहा हो (रसियार) या जो भी खा रहा हो उनको छूना वर्जित होता था। चूले के अंदर शोशल डिस्टेन्सिंग को आटई (मिट्टी व गोबर से बनी सीमा रेखा) द्वारा नियंत्रित किया जाता था ।

अब जरा चूले में होने वाले यंत्रों व सुविधाओं का जिक्र करूंगा। चूल्हें मे कार्य आने वाले मुख्य यन्त्रों में फूकनी (पाईप का टुकड़ा), सणैंसी, दाड़ू, पण्या, थाकुलि (थाली), कसिनि (लोटी), गिलास, कितली, परात, कढाई, तौली, भड्डू, डेग, ठेकी, मट्यण (छाँछ रखने का मट्टी या लकड़ी का बरतन), रौढ़ि (छाछ फानने के लिये बाँस का बना यंत्र), चाटी (घी रखने का एल्युमिनम का ढक्कन व कुण्डि वाला बरतन), सिल ल्वड़ (सिलबट्टा) व ताम्बे का गागर या मिट्टी का घड़ा होता था। घर की महिलाये या बच्चे सुबह सुबह नौले या धारे में जाकर नहाधोकर पानी लाकर गागर या घड़े को भर देते थे। उजाला करने के लिये लालटेन या मट्टीतेल का दिया (लैम्फू) या पैट्रोमैक्स गैस होते थे। बैठने के लिये आटई के ऊपर लकड़ी की चौकी रखी जाती थी।

खाना पकाने वाले को केवल एक धोती में खाना बनाना होता था और दूसरे प्रकार के अन्तर व वाह्य वस्त्र वर्जित थें। थाली में दूर से दाडू या पण्या द्वारा (बिना छुए) भोजन डाला जाता था। सबसे पहले सयाने आदमियों को भोजन दिया जाता था और साथ में बच्चों को भी। धोती पहन कर, जनेऊ हाथ में लपेट कर, आचमन करने, तीन ग्रासों को भूमि में रखनें व उनमें जल छिड़कने के बाद ही बड़े लोग पहला निवाला लेते थे। बच्चों के लिये ऐसा कोई प्रतिबंध नहीँ था। भाई बहिनों को एक ही थाली में भी खिला दिया जाता था। आदमियों के खाने के बाद ही महिलायें खाती थी। महिलायें अपने पतियों की थाली में ही खाना खा लेती थी लेकिन खाना खाते समय एक दूसरे को नही छूना होता था। खाना हाथ से ही खाया जाता था और चम्मच का उस समय चलन आम रूप में नहीं था। खाना खाने के बाद चूले मे बनी राख से बर्तनों को धो लिया जाता था। नारियल की झाड़ या धान की पराल से बने ऊने का प्रयोग बर्तन साफ करने में किया जाता था। बर्तन धोने के कार्य के लिये चूले में एक मुडेरों से घिरा निर्धारित स्थान होता था जिसे बौनई कहते थे। बौनई बर्तन धोते समय बहने वाले पानी को निकास देने हेतु बाहर की नाली से जुड़ी होती थी। जिसके चूले में बौनई नही होती थी वो बर्तनों को बाहर ले जाकर धोते थे। खाने के समय पहनी जाने वाली धोतियों को खाने के उपरान्त धोकर सुखा लिया जाता था।

सुबह चूला जला तो कलयो (नाश्ता) खाने तक जलता रहता था। कलयों में सब्जी व मडुवे या गेहूँ की रोटी और प्याज का थेचुवा अधिकतर खाया जाता था। दोपहर के खाने में भात, दाल, खटाई, टपकिया (हरा साग), कापा, झोली, बड़ी-मुंगौडी, जौला, सनी हुई मूली या ककड़ी, गुनके (पतौड़े), आदि होते थे। दोपहर के खाने के बाद चूले को गोबर मिट्टी से लेप कर साफ कर दिया जाता था। शाम की चाय के समय को ब्याखुलि कहते थे जिसमें तीन चार बजे चाय पी जाती थी और बच्चों को रोटी, और कभी कभी आलू के गुटके, हलवा आदि दिया जाता था। चूला जूठा ना हो तो सगड़ (बरौस) जला कर उस पर ही ब्याखुली के कार्य को किया जाता था। व्याव के खाने (रात्रि भोज) को शांम के 7 बजे के आसपास संधिपूजा करने बाद चूला फिर से जलाकर बनाया जाता था। शाम के खाने में एक रसेदार सब्जी, एक सूखी सब्जी, घी चपोड़ी रोटी और दही, मसूर की शाई, आदि..

लेखक,

डॉ गणेश उपाध्याय,

शांतिपुरी,  किच्छा,

जिला उधम सिंह नगर,

उत्तराखण्ड !

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