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हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के पैरोकार एकमात्र अहिंदी भाषी लक्ष्मी नारायण साहू

Jitendra Kumar by Jitendra Kumar
13/09/22
in मुख्य खबर, राष्ट्रीय, साहित्य
हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के पैरोकार एकमात्र अहिंदी भाषी लक्ष्मी नारायण साहू
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गौरव अवस्थी


हिंदी को राजभाषा या राष्ट्रभाषा बनाए जाने के प्रश्न पर संविधान सभा की तीन दिन तक चली गर्मागर्म बहस में 13 सितंबर की तारीख भी अहम थी। इस प्रश्न पर बहस दो धुरियों पर ही टिकी रही। हिंदी या रोमन अंकों के उपयोग पर पक्ष-विपक्ष में लंबी बहसें हुईं। अलग-अलग प्रांतों के प्रतिनिधियों ने उम्मीद के मुताबिक ही अपने-अपने तर्क और विचार प्रस्तुत किए। पंडित जवाहरलाल नेहरू, सभापति डॉ. राजेंद्र प्रसाद, पंडित रविशंकर शुक्ल सरीखे सदस्यों ने जरूर बीच का रास्ता अपनाया। अधिकतर अहिंदी भाषी प्रतिनिधियों ने भारी मन से हिंदी को राजभाषा स्वीकार करते हुए सभा में आए संशोधन प्रस्तावों पर अन्य भारतीय भाषाओं को लेकर संदेह प्रकट किए लेकिन संविधान परिषद में उड़ीसा प्रांत के प्रतिनिधि लक्ष्मी नारायण साहू एकमात्र अहिंदी भाषी थे जिन्होंने बहुत किंतु-परंतु लगाए बिना हिंदी को राजभाषा के बजाय राष्ट्रभाषा माने जाने की वकालत की। संविधान सभा के वाद-विवाद की सरकारी रिपोर्ट के पृष्ठ संख्या 2144-46 में बहस में भाग लेते हुए लक्ष्मी नारायण साहू के संशोधन और वक्तव्य दर्ज हैं।

उड़ीसा प्रांत के बालासोर में 3 अक्टूबर 1890 को जन्मे लक्ष्मी नारायण साहू ने पांच-पांच विषयों में परास्नातक की परीक्षा पास की। उन्होंने उड़ीसा राज्य के गठन के पहले 1936 में ‘उत्कल यूनियन कॉन्फ्रेंस’ की स्थापना के साथ सहकार, वैतरणी और स्टार आफ उत्कल पत्रों का संपादन भी किया। 1947 में उड़ीसा विधानसभा और संविधान परिषद के सदस्य चुने गए। छुआछूत और महिलाओं की स्थिति में सुधार आंदोलन में भी अपनी अहम भूमिका निभाई। आजादी के बाद उन्हें भारत सरकार ने पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया। 18 जनवरी 1963 को उन्होंने अंतिम सांस ली।

संशोधन प्रस्तावों पर चर्चा के दौरान लक्ष्मी नारायण साहू ने कहा- ‘ कोई सज्जन संशोधन लाए हैं कि बांग्ला भाषा राष्ट्रीय भाषा हो सकती है। तब मैं कहता हूं कि मेरी उड़िया भाषा बंगाली के मुकाबले प्राचीन है। जब उड़िया भाषा भाषा के रूप में दिखाई दे चुकी थी तब बांग्ला भाषा का जन्म भी नहीं हुआ था। इस तरह दक्षिण के भाई कहेंगे कि उनकी भाषा बहुत प्राचीन है। यह सब ठीक नहीं है। जब भारत को एक राष्ट्र समझते हैं या बनाने की कोशिश करते हैं तो ऑफिशियल लैंग्वेज क्यों? इस (हिंदी) को नेशनल लैंग्वेज भी बना लेना चाहिए। हिंदी भाषा-भाषी देश में ज्यादा तादाद में हैं। इसलिए हिंदी को राष्ट्रभाषा होना ही चाहिए। कुछ लोग कहते हैं कि हिंदी में शब्द भंडार पूर्ण नहीं है तो दूसरी भाषाओं के शब्दों को लेकर हिंदी भाषा की समृद्धि की जानी चाहिए। हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने पर दूसरी प्रांतीय भाषाओं के रास्ते में रुकावट पैदा न हो। सब प्रांतीय भाषाएं अपनी-अपनी जगह उन्नति कर सकें, उनकी प्रगति रुके नहीं इसका भी ख्याल करना चाहिए। जब एक प्रांत और प्रांतीय भाषा दृढ़ हो जाएगी तो राष्ट्रभाषा भी दृढ़ होगी ही।’

राजभाषा के प्रश्न पर संविधान सभा में हुई बहस में कुछ प्रतिनिधियों ने अपना अंग्रेजी का मोह भी प्रकट किया था। ऐसे लोगों को भी आईना दिखाते हुए हिंदी भाषी लक्ष्मी नारायण साहू ने कहा था कि कुछ लोग समझते हैं कि अंग्रेजी नहीं होगी तो हम मर जाएंगे। यह तो ऐसा ही हुआ कि शराब पीना बंद हो जाए तो कुछ लोग मर जाएंगे अगर अंग्रेजी जाने से कुछ थोड़े आदमी मर जाते हैं तो क्या हुआ? हमें तो सारे राष्ट्र और देश हित को ध्यान में रखकर कदम उठाना चाहिए। रोमन में हिंदी लिखे जाने की वकालत करने वाले लोगों को जवाब देते हुए लक्ष्मी नारायण साहू ने कहा था कि ऐसे लोग यह नहीं समझते हैं कि स्क्रिप्ट कैसे बनती है। स्क्रिप्ट तो बनती है भाषा के स्वर से। रोमन कैरेक्टर में हिंदी भाषा को लिखने से वह समझ में नहीं आती और उसमें ठीक-ठीक उच्चारण नहीं कर पाते। इसलिए रोमान स्क्रिप्ट एकदम अग्रहणीय है। वह बहुत भद्दी और उसका साइंटिफिक बेसिस भी नहीं है। देवनागरी से लिखी जाने वाली हिंदी साइंटिफिक है और उसे ग्रहण कर लेना चाहिए।अहिंदी भाषी लक्ष्मी नारायण साहू की इन बातों पर संविधान परिषद के सदस्यों ने अगर गौर किया होता तो आज देश में ‘अंग्रेजी राज’ के बजाय हिंदी और भारतीय भाषाओं का बोलबाला ही होता।

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