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ताबूत में कैद जिन्दगी सांस ले रही है…

Jitendra Kumar by Jitendra Kumar
20/04/21
in साहित्य
ताबूत में कैद जिन्दगी सांस ले रही है…

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डाॅ. सुनीता
नई दिल्ली


हिंदी, ऊर्दू अदब के शीर्ष अफ़सानानिगार मुशर्रफ आलम जौकी का निधन। उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि !

सूचना मिलते ही मुझे पाखी के दिसम्बर अंक में पानी की सतह’ की याद आ गयी। यह शायद आख़िरी कहानी है जिसे मैंने पढ़ा है। ‘And the spirit of God moved upon the face of the waters’ (और ख़ुदा की रूह पानी की सतह पर तैरती थी) बाइबल। कहानी की शुरुआत उपरोक्त संदर्भ से होती है। धीरे-धीरे प्रजापति शुक्ला और तारा शुक्ला के साथ आगे बढ़ती है। हसन और पेंटिंग से बाहर आने के साथ नये आयाम देती है। कहानी के नैरेटर नये अंदाज में सामने आते हैं। वैसे तो कहानी चुपके से ख़त्म हो जाती है, सिर्फ़ बरक में ख़त्म होती है जबकि पेंटिंग और हसन के साथ दिल-दिमाग में पुनः द्वंद्व के साथ शुरू होती है।

‘धूप का मुसाफ़िर’ एक छोटी सी कहानी है मगर मानस को झकझोरने में सक्षम है। दरअसल भावुक जज़्बाती रूह को कंपा देने वाले चेहरों की झुर्रियों को पढ़ने की कला सभी के पास नहीं होती है। लेकिन यह कला जौकी साहब में मौजूद है। अपने कथानक में संक्षिप्तता की अनिवार्यता का बख़ूबी ख़्याल रखते हुये जौकी साहब ने भाषायी संतुलन से हमेशा चमत्कृत किया है।

जब उन्होंने ‘फ़िज़िक्स, केमिस्ट्री अलजेब्रा’ रचा तब साहित्य के लिये नयी परिभाषा भी इजात की है।यह बात और है कि अभी तक डीकोड नहीं किया गया है। जब भविष्य में इतिहास रचा जाये तब शायद डिकोडिंग का बीजलेख मिले। बहरहाल रचना के बरक्स ‘लैंडस्केप के घोड़े, ले साँस भी आहिस्ता, बाज़ार की एक रात, मत रो शालिग्राम, लेबोरट्री, फ़रिश्ते भी मरते हैं, सदी को अलविदा कहते हुये, बुख़ा इथोपिया जैसी तमाम रचनाओं से हमें लबालब भर दिया है। उलीचने का शऊर हमें स्वयं तय करना होगा।

‘प्रेम संबंधों की कहानी’ में इतनी विविधता है कि प्रेम की भी स्थायी परिधि और परिभाषा हो सकती है यह यक़ीन करने को जी चाहता है लेकिन फिर दिल व दिमाग़ जंग करते हैं और कहते हैं कि नहीं अभी तक प्रेम पर बहुत कुछ अलिखित है जिसका लिखा जाना शेष है।

‘फ़्रिज में औरत’ यह एक फंतासी तत्व से भरपूर रचना है। औरत फ़्रिज से प्रकट होती है जबकि शहर प्रतीक बनकर उभरता है। ग़ौरतलब है कि कहानी सिम्बोलिज्म की यथार्थ की भूमि को खुरचकर पढ़ने की कला की ओर उन्मुख करती है। उपरोक्त को पढ़ते वक्त रजनी गुप्त की पुस्तक ‘एक न एक दिन’, डॉ. अनुसूया त्यागी की ‘मैं भी औरत’, नूर ज़हीर की ‘अपना ख़ुदा एक औरत और वंदना गुप्ता की ‘मैं बुरी औरत हूँ’ के साथ-साथ सुधा अरोड़ा की पुस्तक ‘एक औरत ज़िंदा सवाल’ के समानांतर में उड़िया की रचनाकार प्रतिभा केड़िया को भी समकक्ष रख सकते हैं। इससे रचना की परतें तो अधिक खुलेंगी ही और दो हज़ार साल पहले और मौजूदा वक्त की औरत की भी गिरहें खुलेंगी। तकनीकी स्टोरेज में क़ैद मुसाफ़िर भी बोलेंगे। रचनाओं के आलोक में स्त्रियाँ झांकती हैं और प्रवृत्तियों की प्रक्रिया को बदल देती हैं। जौकी साहब की स्त्रियाँ मल्टीप्लेक्स, मल्टीलेयर्ड और यूनाइटेड फ़ैमिली का सेनेरियो भी बदलती चलती हैं।

सूक्ष्मता से समाकलित विश्लेषण के परिप्रेक्ष्य में जौकी साहब की अधिकांश रचना बेशक हिंदी में ही लिखी गयी हैं बावजूद सभी रचनाओं का परिवेश भारतीय नहीं है। आप चाहें तो भाषायी खिलंदड़पन और कथ्यात्मकता में चुटीलेपन के बीच ऊर्दू की तमीज़ के नेपथ्य से भेदक, तीक्ष्ण दर्द पर नज़र व नज़रिया के लिये याद रखते हुये कुफ़्र की रात में चाँद वाली चौपर बिछाकर चौसर खेल भी सकते हैं।

सरल क़बीलाई जीवन में कुलाँचे भरते मुस्लिम समाज के जीवन-स्थितियों का यथार्थपरक चित्रण किया है। अपने प्रौढ़, गहन-गंभीर व सशक्त शैली के कारण ख्यातिलब्ध शख़्सियत में शुमार रहे हैं। द्वंद्वात्मक मानसिकता का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण तो किया ही है, जीवन-मूल्यों के चटखने की प्रतिध्वनियों की सघनता को भी पकड़ा है। आख़िर में यह कह सकती हूँ कि ‘प्रिमिटिव पैसिव सिंपैथी’ में बंधे होकर भी मुक्तिवादी भावाभिव्यक्ति करते रहे। ताबूत में कैद जिन्दगी सांस ले रही है। आगे भी लेती रहेगी।

 

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