फुटपाथो का जीवन जैसे
करूणा – कलित कहानी है
हाथ पसारे दौड रहा पर
आँखे रहती अन्जानी हैं।
रसराज के रसमय आवर्तन को
जब अपनी कलम उठाती हूँ
उन्मीलित अरविंद कली मे
मत्त भ्रमर- सी खो जाती हूँ
नस्तर- सी चुभ जातीहै तब
यौवन की दीन दलित आँखे
नन्हीं कलियों की निश्छल पीडा
निज अन्तर्मन मे पाती हूँ
अभिशापित- सी है ये कलियाँ,
खिले बिना बिकजानी है।
जिस भूख से ये पैदा होती
उस भूख मे ही मिट जानी है।
इन्शा का है रूप मिला
पर कूकर जैसा जीवन है
घर की छत है ना आँगन
भीख मांगता बचपन है
धर्म- कर्म से दूर पड़े है
हित- अनहित को न जाने
जोड़- तोड़ से तन ढकता
अनाचार को आतुर मन है
झिड़की से खिड़की न छोड़े
ये मूरत ज्यों पाषाणी है
इन भूखे पेटों मे पलती
चोरी और बेईमानी है।
दया धर्म के झोकेआकर
इन पर रहम दिखाते हैं
बाँट के कपडा खाना इनको
पुन्य कमाके ले जाते हैं
परिवेश बदलता न इनका
चाहे कुछ भी दे डालो।
औंधे लेटे काकरोच से
जहाँ- तहाँ मिल जाते हैं
लाचारी मे जीना जैसे
आदत हुई पुरानी है।
एक बोतल मे बिक जाता
कंबल हो या पानी है।
आये चुनावों का मौसम तो
ये झन्डे बैनर चुन लाते हैं
कमल हो या पन्जा ,झाडू
इनके नीचे बिछ जाते हैं
रैन बसेरे इनकी खातिर
जगह -जगह पर बने हुए
पर सत्ता और कानून की बातें
ये कभी समझ न पाते हैं
सुबह- शाम का मतलब तो
रोटी कपड़ा और पानी है।
बचपन हो या याचक योवन
सडकों पर उम्र बितानी है।
चाँद पर पाँव रखा हमने
अब मंगल पर जाना होगा
अन्तरिक्ष मे आंख लगी है
सूरज को पढ़ आना होगा
ज्ञान की दीपशिखा मचली
ज्योतिर्मय जग- जीवन को
इस धूल- धूसरित जीवन का
कैसे कब अरुणोदय होगा
दारुण दैन्य दशा बदलेगी
कवि की सक्षम वाणी है।
गीत लिखो इनके भी ऊपर
आँखों में यदि पानी है।
डाॅ पुष्पा रानी वर्मा
हरिद्वार