गौरव अवस्थी
1-स्वामी श्री मणिराम दास जी महाराज
स्वामी मणिरामदास जी महाराज से आप भक्त परिचित ही है। अयोध्या में मणिरामदास छावनी संत सेवा के लिए दो शताब्दी से जानी जाती है। कौन हैं स्वामी मणिराम दास जी महाराज? और मणिरामदास छावनी में स्थापित हनुमान जी की मूर्ति का क्या महत्व है? आईए, जानते हैं उनके अनन्य शिष्य महंत श्री नृत्यगोपाल दास जी महाराज के मार्फत। वह लिखते हैं-
लगभग 200 वर्ष पूर्व स्वामी श्री मणिराम दास जी महाराज श्री हनुमान जी के कृपा पात्र एक विशिष्ट संत हुए हैं। उन्हीं के नाम पर श्री अयोध्या जी में मणिरामदास जी की छावनी नामक एक प्रसिद्ध अतिथि-अभ्यागत-संतसेवी स्थान है। स्वामी श्री मणिराम दास जी चित्रकूट में दास हनुमान नामक स्थान पर तपस्या करते थे। उनका साधना का विशेष विषय था- श्रीमद्वाल्मीकि रामायण के पाठ द्वारा श्री हनुमान जी की कृपा प्राप्ति। सतत श्री रामनाम स्मरण, श्री कामतानाथ जी की परिक्रमा एवं पाठ का अनुष्ठान क्रम चलता रहता था। श्री महाराज जी कंदमूल फल का ही आहार करते और सदा श्री हनुमान जी के प्रेम में पगे रहते थे।
यह कम कई वर्षों तक चला। अंत में श्री हनुमान जी महाराज ने उन्हें दर्शन देकर मणि प्रदान करते हुए आदेश दिया कि श्री अयोध्या जी में श्री सरयू तट पर रहकर संत सेवा करो। श्री महाराज जी ने कहा कि मुझे तो मणि स्वरूप आपकी कृपा दृष्टि चाहिए। मैं मणि लेकर क्या करूंगा? कहते हैं, इसीलिए उनका श्री मणि रामदास नाम पड़ा। आगे स्वामी मणिराम दास जी ने कहा मैं अकिंचन हूं संत सेवा कैसे करूंगा? इस पर श्री हनुमान जी ने कहा तुम चलो हम आते हैं। साथ ही यह भी कहा कि जब तक तुम्हारे द्वारा संत सेवा होती रहेगी, तब तक कोई कमी न पड़ेगी। श्री हनुमान जी की आज्ञा मानकर श्री महाराज जी अयोध्या में आकर श्री सरयूतट के श्री वासुदेव घाट पर झोपड़ी बनाकर भजन करने लगे एवं समागत सामग्री द्वारा संत सेवा भी होने लगी।
कुछ समय बीतने पर कोई सज्जन श्री हनुमान जी की प्रतिमा प्रतिष्ठा हेतु नौका द्वारा ले जा रहे थे। श्री महाराज जी की झोपड़ी के पास नाव रुक गई। अधिक चेष्टा करने पर भी वह आगे बढ़ ना सकी। तब श्री महाराजजी ने कहा श्री हनुमान जी यही रहना चाहते हैं। वह सज्जन भी मान गए और उस प्रतिमा को वहीं छोड़कर अपने गंतव्य स्थान को चले गए। उसके बाद श्री हनुमान जी महाराज छावनी में विराजमान रहकर भक्तों के मनोरथों को पूर्ण करते रहते हैं एवं छावनी की सर्वतो भाव से उन्नति में निरत हैं। श्री हनुमान जी की प्रसन्नता के लिए यहां नित्य श्रीमद्वाल्मीकि रामायण का पाठ आज भी होता है।
2- श्री राम अवध दास जी
स्वामी रामअवधदास जी एक विरक्त साधु थे। वे वर्षों से मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री रामचंद्र जी की राजधानी अयोध्यापुरी में रहते थे। सरयूजी के तट पर एक वृक्ष के नीचे उनके निवास था। अहर्निश श्री सीताराम नाम का कीर्तन करना ही उनका सहज स्वभाव हो गया था। वे रात को कठिनता से 2 घंटे सोते थे। उनकी धूनी रात दिन जलती रहती। बरसात के मौसम में भी वह कोई छाया नहीं करते थे। आश्चर्य तो यह कि मूसलाधार वर्षा में भी उनकी धूनी ठंडी नहीं होती थी। स्वामी रामअवधदास जी जौनपुर के समीप के रहने वाले ब्राह्मण थे। इनका नाम था रामलगन।
यह अपने पिता के इकलौते पुत्र थे। उनकी माता बड़ी साध्वी और भक्तिमति थी। माता ने बचपन से ही इन्हें सीताराम का कीर्तन करना सिखाया था और प्रतिदिन वह इन्हें भगवान के चरित्रों की मधुर कथा भी सुनाया करती थी। एक बार की बात है, तब स्वामी जी 8 वर्ष के ही थे। एक दिन रात को 10-15 डाकू घर में आ पहुंचे। उनके पिता पंडित सत्यनारायण जी पुरोहित का काम करते थे। संपन्न घर था और उस दिन वह घर पर नहीं थे। माता और पुत्र घर के आंगन में लेटे थे।
माँ उन्हें हनुमान जी के द्वारा लंका दहन की कथा सुना रही थी। इस समय डाकू आ गए उन्हें देखकर माँ डर गई लेकिन स्वामी जी ने कहा- मां तू डर क्यों गई देख? अभी हनुमान जी लंका जला रहे हैं। उनको पुकारती क्यों नहीं? तुम्हारे पुकारते ही वह सहायता के लिए अवश्य आ जाएंगे। स्वामी जी ने बिल्कुल निडर होकर यह बात कही परंतु माँ तो कांप रही थी। उन्हें इसका विश्वास नहीं था कि सचमुच श्री हनुमान जी हमारी पुकार से आ जाएंगे। जब माँ कुछ नहीं बोली। तब उन्होंने स्वयं पुकार कर कहा- हनुमान जी! ओ हनुमान जी! हमारे घर में यह कौन लोग लाठी लेकर आ गए हैं। मेरी मॉ रो रही है। आओ! जल्दी आओ, लंका पीछे जलाना। इतने में ही उन्होंने देखा, सचमुच एक बहुत बड़ा बंदर कूदता-फादता चला आ रहा है।
डाकू उसकी और लाठी तान ही रहे थे कि उसने दो-तीन डाकुओं पर हमला बोल दिया। डाकू सरदार आगे बढ़ा तो उसकी दाढ़ी पकड़ कर इतनी जोर से खींची कि वह चीख मारकर गिर पड़ा और बेहोश हो गया। डाकुओं की आवाज सुनकर मोहल्ले से आसपास के लोग दौड़ कर आ गए। सरदार अभी बेहोश था। उसे तीन-चार डाकुओं ने कंधे पर उठाया और भाग निकले। बालक रामलगन और उनकी मां बड़े आश्चर्य से इस दृश्य को देख रहे थे। पड़ोसियों के आते ही बंदर जिधर से आया था, उधर ही से कूदकर लापता हो गया। रामलगन हंस रहे थे। उन्होंने कहा-देखा न मां तूने! हनुमान जी मेरी आवाज सुनते ही आ गए और उन डाकुओं को मार भगाया।
मां के भी आश्चर्य और हर्ष का पार न था। गांव वालों ने यह घटना सुनी तो सब के सब आश्चर्य में डूब गए। कहते हैं कि उन्हें जीवन में बहुत बार श्रीहनुमानजी के प्रत्यक्ष दर्शन हुए थे। भगवान श्री रामचंद्र जी की भी इन पर अपार कृपा थी। अंत काल में भगवान श्री राघवेंद्र की गोद में सिर रखकर इन्होंने शरीर छोड़ा। लोगों को विश्वास है कि यह बहुत उच्च श्रेणी के भक्त थे और बहुत ही गुप्त रूप से रहा करते थे। उन्होंने अवध के एक भजनानंदी संत से दीक्षा ली थी, तब से इनका नाम स्वामी रामअवधदास जी हो गया। उन्होंने न कोई कुटिया बनवाई न चेला बनाया और न किसी अन्य आडंबर में रहे।
3- श्री रामगुलाम जी द्विवेदी
श्री रामगुलाम जी द्विवेदी मिर्जापुर के गणेशगंज मोहल्ले में रहते थे। वह पंडित शिवलाल जी पाठक तथा श्री पंजाबीजी आदि रामायणीयो के समकालीन ही प्रसिद्ध रामायणी थे। उन्हें श्री हनुमान जी का इष्ट था। उन पर हनुमान जी की बड़ी कृपा थी। कहा जाता है कि मिर्ज़ापुर नगर से बाहर नदी के उस पार हनुमान जी का एक मंदिर था। वहां नित्य जाने का द्विवेदी जी का नियम था। एक बार देवयोग से वह दिन में जाना भूल गए। रात में याद आते ही वह तुरंत उठकर मंदिर के लिए चल दिए। घोरवर्षा हो रही थी। गंगा जी खूब बढ़ी हुई थी। कोई केवट भी नहीं था।
वह तैर कर पार जाने के विचार से नदी में कूद पड़े और पानी में बहने लगे। कहते हैं कि तब श्रीहनुमानजी ने उनका हाथ पकड़ कर डूबने से बचाया और दर्शन देकर उनको किनारे किया तथा यह आशीर्वाद भी दिया कि रामायण की कथा में तुम्हारे नवीन-नवीन भाव निकलते रहेंगे। वह जिस चबूतरे पर कथा कहते थे, वह अभी भी विद्यमान है। सुना गया है कि उनके कोई शिष्य कैथी लिपि में गुप्त रूप से स्वामी जी के द्वारा कही जा रही कथा को चुपचाप रोज लिखा करते थे। बाद में मालूम हो जाने पर उन्होंने शाप दे दिया कि जो इसे पढ़ेगा, वह अंधा हो जाएगा। वह शापित ग्रंथ पूर्व चौकाघाट पर था।
अब वह कहीं काशी में होना बताया जाता है। श्री द्विवेदी जी ने रसिकाचार्य परमहंस श्री रामशरण दास जी से दीक्षा ग्रहण की थी। उन्होंने द्विवेदी जी को वाल्मीकि रामायण का गंभीर अध्ययन कराया था। जनश्रुति है कि श्री हनुमान जी के परमप्रेमी भक्त श्री रामगुलाम जी द्विवेदी ने उसी दिन अपने शरीर का त्याग किया, जिस दिन रसिकाचार्य श्री रामशरण दास जी ने साकेत धाम की यात्रा की। वह संवत 1888 माघ शुक्ल की नवमी तिथि थी।
कल्याण के हनुमान अंक से साभार