“लोकतन्त्र के हत्यारे मुझे ठीक नहीं जान पड़ते!
“क्यों?
“वे बेचारे बार-बार हत्या करते हैं, और लोकतन्त्र हर बार जिन्दा हो जाता है! अब बताइए भला, ये भी कोई हत्या हुई!
“तुम नहीं समझोगे!
“क्या?
“यही कि वे हत्या नहीं करते, हत्या की प्रैक्टिस करते हैं कि कितने ठोकर पर लोकतन्त्र मर सकता है! इसीलिए वे हत्या करते समय इस बात का विशेष ध्यान रखते हैं कि मौत तो हो, पर एकबारगी ही नहीं! वे धीरे-धीरे हत्या करते हैं और लोकतन्त्र धीरे-धीरे मौत का आदी होता चला जाता है!
“ऐसा क्यों?
“ऐसा इसलिए ताकि जब वे पूर्ण रूप से हत्या कर दें, तो तुम्हें ये न लग सके कि हत्या सचमुच ही हो गयी! तुम्हें हत्या के बाद भी ये लगना चाहिए कि अभी कहीं कोई आखिरी सांस जरूर चल रही होगी, जी उठने की कोई न कोई क़ुव्वत अभी बची ही होगी!
“इससे क्या हासिल होगा?
“यही कि लोकतंत्र जब मरेगा तो उसका लोक भी मर चुका होगा! और इस तरह, फिर न कोई लोक बचेगा और न कोई तंत्र!
“ओह्ह!
“हाँ, यही तो है लोकतंत्र की असली हत्या, जिसकी तुम बात कर रहे थे! अब बताइये कि ये हत्यारे उन हत्यारों से ज्यादा प्रोफेशनल हुए कि नहीं? इनकी हत्या ज्यादा कारगर हुई कि नहीं?
“अब जान तो यही पड़ता है!
“तो अब क्या कहोगे–यही न कि लोकतंत्र खतरे में है!
“भक्क!
लेखक राजनीति के विद्यार्थी हैं और साहित्य विशेषकर कविताएँ पढ़ने-लिखने में विशेष रुचि रखते हैं। इनसे devmisra.au@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है।