गौरव अवस्थी
रायबरेली
सरस्वती के साधक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के समकालीन पंडित माधवराव सप्रे जी का जन्म 19 जून 1871 को मध्य प्रदेश के दमोह जिले के पथरिया गांव में हुआ था. पंडित माधव राव सप्रेजी की आज 150 वी जयंती है. पिता कोंडेश्वर राव और माता लक्ष्मीबाई की सबसे छोटी संतान माधवराव सप्रे जन्म ग्राम पथरिया के नाम के अनुरूप कठोर तप-संकल्पों के धनी, जल की तरह निर्मल और मिट्टी की तरह पवित्र और प्रतिष्ठात्यागी महापुरुष थे. सप्रेजी केवल लेखक और साहित्यकार ही नहीं समाज सुधारक और हिंदी भाषा के प्रबल समर्थक थे.
पारिवारिक मजबूरियों के चलते अपने जीवन का अधिकांश समय रायपुर में रहने वाले सप्रे जी ओजस्वी वक्ता के साथ क्रांतिकारी विचारक और स्वतंत्रता प्रिय व्यक्तित्व के स्वामी थे. इसीलिए उन्होंने सरकारी नौकरी का प्रस्ताव भी ठुकरा कर कृती-व्रती जीवन को ही अपना धेय-पाथेय बनाया. छत्तीसगढ़ (तब मध्य प्रदेश का पिछड़ा भूभाग) में शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए अपने सीमित साधनों से अपने घनिष्ठ मित्रों-रामराव चिंचोलकर और पंडित वामन राव लाखे के साथ मिलकर “छत्तीसगढ़ मित्र” नाम से मासिक पत्र निकालना शुरू किया. इसका पहला अंक जनवरी 1900 में पेंड्रा से प्रकाशित हुआ.
यही वह समय है जब काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने इंडियन प्रेस इलाहाबाद के “सरस्वती” मासिक पत्रिका के संपादन का प्रस्ताव स्वीकार किया और जनवरी 1900 में सरस्वती का प्रकाशन इलाहाबाद (अब प्रयागराज) से प्रारंभ हुआ. बहुत कम लोगों को याद रह गया होगा कि हिंदी को समर्पित काशी नागरी प्रचारिणी सभा के भवन के लिए वर्ष 1902 में उत्तर प्रदेश के अवध और पश्चिम प्रांत के प्रवास पर निकले प्रतिनिधिमंडल में सप्रे जी भी अपने मित्र चिंचोलकर के साथ शामिल हुए थे. इस प्रतिनिधिमंडल ने डेढ़-दो माह तक भ्रमण कर सभाभवन के लिए ₹14000 एकत्र किए थे. सरस्वती के तत्कालीन संपादक बाबू श्यामसुंदर दास ने मई- जून के अंक में एक टिप्पणी लिख कर सप्रे जी एवं रामरावजी चिंचोलकर के प्रति इस तरह कृतज्ञता ज्ञापित की थी-” हमारे एतत्देशीय लोगों को लज्जित होना चाहिए कि उनकी मातृभाषा हिंदी के लिए बिलासपुर ऐसे दूर स्थान से दो महाराष्ट्रीय विद्वान ब्राह्मणों ने कष्ट उठाकर इस प्रकार निस्वार्थ भाव से डेढ़ से 2 माह तक काशी नागरी प्रचारिणी सभा काशी के स्थाई कोष के लिए यात्रा की ऐसी शोचनीय अवस्था में यदि हमें ने स्वार्थी लोग ऐसे दत्तचित्त होकर देश की सेवा करते देख पडते हैं तो हमारे आनंद की सीमा नहीं रहती”
आचार्य द्विवेदी और सप्रे जी दोनों ही समान गुणधर्म वाले महापुरुष थे. दोनों ही कई भाषाओं के ज्ञाता और ज्ञान राशि के भंडार. मराठी भाषी सप्रेजी हिंदी के प्रबल पैरोकार हैं और हिंदी के अनन्य सेवक महावीर प्रसाद द्विवेदी जी मराठी भाषा के अधिकार प्राप्त जानकार. अंग्रेजी भाषा पर भी दोनों का समान अधिकार था. दोनों के ही व्यक्तित्व में अपने संकल्प अपने कार्यों के प्रति जुनून भी एक सा ही नजर आता है. दोनों ही एक दूसरे के प्रति आदर का भाव रखते थे और इसको प्रकट करने का कोई अवसर चूकते नहीं थे. दोनों ही एक नामराशि ‘म’ अक्षर के है और दोनों के ही जन्म में ‘9’ अंक शामिल है. दोनों की ही जन्म तिथि और माह आगे-पीछे ( 9 मई 1864 और 19 जून 1871) हैं.
जन्म में आचार्य द्विवेदी और सप्रेजी 7 वर्ष बड़े छोटे थे लेकिन दोनों की साहित्य साधना और हिंदी को राष्ट्र-संपर्क भाषा का दर्जा दिलाने की भावना एक सी ही थी. दोनों ही मानते थे कि देश के नव जागरण और स्वाधीनता आंदोलन में हिंदी ही समूचे राष्ट्र की सहायक भाषा बन सकती है. दोनों के जीवन में समानता का यह एक पक्ष है. सरस्वती का लगातार 18 वर्षों तक संपादन कर आचार्य द्विवेदी बोलियों में बटी हिंदी को एक सूत्र में पिरो कर नया व्याकरण तैयार कर रहे थे और मराठी भाषी सप्रे जी “छत्तीसगढ़ मित्र” “हिंदी ग्रंथ माला” “हिंदी केसरी” और “कर्मवीर” का प्रकाशन कर हिंदी भाषी समाज को शिक्षित-दीक्षित करने के साथ एक सूत्र में पिरोने की कोशिश कर रहे थे. आचार्य द्विवेदी और सप्रे जी में एक दूसरे के प्रति परस्पर आदर भाव था. सप्रे जी के तमाम लेख- निबंध सरस्वती में निरंतर प्रकाशित होते रहते थे और सप्रे जी ने अपने संपादन में वर्ष 1906 से नागपुर के देशसेवक प्रेस से प्रकाशित होने वाली मासिक पुस्तक “हिंदी ग्रंथ माला” में सबसे पहले आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा विदेशी दार्शनिक एवं तत्वबेत्ता जॉन स्टूअर्ट मिल के ग्रंथ “ऑन लिबर्टी” के हिंदी में किए गए अनुवाद “स्वाधीनता” को सर्वप्रथम प्रकाशित कर अपना सम्मान भाव प्रकट किया था. बाद में इस अनुवादित पुस्तक स्वाधीनता को हिंदी ग्रंथ रत्नाकर कार्यालय बंबई (अब मुंबई) ने अपनी हिंदी ग्रंथ रत्नाकर सीरीज में सबसे पहले जनवरी 1921 में प्रकाशित किया.
सरस्वती में नवंबर 1905 के अंक में “भाषा और व्याकरण” शीर्षक से लिखे गए निबंध पर “स्थिरता” और “अनस्थिरता” शब्द को लेकर आचार्य द्विवेदी एवं “भारत मित्र” के संपादक बालमुकुंद गुप्त के बीच काफी लंबा शास्त्रार्थ चला था. श्री गुप्त ने वर्ष 1906 में भारत मित्र में 10 कड़ी प्रतिक्रियाएं प्रकाशित की. आचार्य द्विवेदी अनस्थिरता को सही ठहरा रहे थे और बालमुकुंद गुप्त स्थिरता को. स्थिरता बनाम अनस्थिरता के इस शास्त्रार्थ में उस समय के साहित्यकारों के भी दो खेमे बन गए थे. सप्रे जी इस शास्त्रार्थ में आचार्य जी के समर्थन में आगे आए थे. “सरस्वती” के फरवरी 1906 के अंक में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने बालमुकुंद गुप्त के तमाम आक्षेपो के प्रत्युत्तर में एक लंबा लेख लिखा. लेख में वह लिखते हैं-“अभी दिसंबर के आखिर में जब हम बनारस में थे. एक दिन नागपुर के पंडित माधव राव सप्रे बीए और संस्कृत चंद्रिका के संपादक अप्पा शास्त्री विद्यावागीश हमारे स्थान पर आए. विद्यावागीश जी संस्कृत के अद्वितीय पंडित है. उन्होंने अपनी संस्कृत-वक्तता से काशी के प्रसिद्ध पंडितों को भी प्रसन्न किया है. उनसे इस शब्द के विषय में बातचीत हुई. सप्रे महाशय भी उस समय थे. हमने उसे एक तरह से इच्छित अर्थ में संस्कृत का शुद्ध शब्द साबित किया. उसे तो उन्होंने मान ही लिया पर उन्होंने एक और तरह से भी उसे शुद्ध ठहराया. कहा- संस्कृत के जिस व्याकरण में “मालिक” “मौलाना” और “पॉकेट” “ब्लाकेट” आदि शब्दों को शुद्ध साबित करने की शक्ति है, उसके लिए अनस्थिरता को शुद्ध साबित करना कौन बड़ी बात है..?”
आचार्य जी की कर्मठता-विद्वता से प्रभावित होकर ही सप्रे जी ने अर्थशास्त्र विषय पर लिखी गई अपनी अप्रकाशित पुस्तक की पांडुलिपि आचार्य द्विवेदी को सौप दी थी. आचार्य द्विवेदी ने “संपत्ति शास्त्र” पुस्तक लिखने में सप्रे जी की मेहनत का पूरा सहारा लिया और भूमिका में इसे स्वीकार करते हुए सप्रे जी के योगदान को इस तरह रेखाकित किया- ” संपत्ति शास्त्र विषय पुस्तक की जरूरत को पूरा करने-इस अभाव को दूर करने की, जहां तक हम जानते हैं सबसे पहले पंडित माधव राव सप्रे बीए ने चेष्टा की. हिंदी में अर्थशास्त्र संबंधी एक पुस्तक लिखे आपको बहुत दिन हुए परंतु पुस्तक आपके मन की न होने के कारण उसे प्रकाशित करना आपने उचित नहीं समझा. आपको जब हमने लिखा कि संपत्ति शास्त्र पर हम एक पुस्तक लिखने का इरादा रखते हैं, तब आपने प्रसन्नता प्रकट की और अपनी हस्तलिखित पुस्तक हमें भेज दी. उससे हमने बहुत लाभ उठाया है. एतदर्थ हम आपके बहुत से कृतज्ञ हैं”
यह दोनों ही महापुरुष स्त्री शिक्षा के प्रबल पक्षधर थे. आचार्य द्विवेदी भी स्त्री शिक्षा के हिमायती थे और सरस्वती में उन्होंने अमेरिका, जापान, जर्मनी, ब्रिटेन और गुजरात समेत कई राज्यों की स्त्रियों के तरक्की संबंधी लेख और निबंध प्रकाशित करके समाज को जागृत करने का प्रयास किया और पंडित माधव राव सप्रे ने रायपुर में 8 जनवरी 1911 को हिंदी और मराठी जानने वाली लड़कियों के लिए “श्री जानकी देवी महिला पाठशाला” स्थापित की. स्त्री सम्मान की भावना भी दोनों में समान थी. कम उम्र में पत्नी के निधन के बाद आचार्य द्विवेदी ने निसंतान होने के बावजूद दूसरा विवाह नहीं किया. उन्होंने विरोध की चिंता किए बिना अपने दिवंगत धर्मपत्नी की मूर्ति देवी सरस्वती और लक्ष्मी की मूर्तियों के बीच में स्थापित कर घर के सामने “स्मृति मंदिर” बनाया. इधर सप्रे जी ने पिता तुल्य बड़े भाई बाबूराव के दबाव में दूसरा विवाह तो किया लेकिन अपनी पहली पत्नी पार्वती बाई की स्मृति को बनाए रखने के लिए दूसरी पत्नी को “पार्वती बाई” का ही नाम दिया. यह दोनों ही उदाहरण अपने समय में “स्त्री सम्मान” के लिए अनोखे थे, है और रहेंगे.
आचार्य द्विवेदी सरस्वती में लेख और निबंध प्रकाशित कर हिंदी भाषी समाज को तकनीकी विज्ञान अध्यात्मिक धर्म के प्रति जागरूक कर रहे थे और माधव राव सप्रे जी बाल गंगाधर तिलक के क्रांतिकारी विचारों से हिंदी भाषी समाज को परिचित कराने और जागरूक करने के लिए “हिंदी केसरी” पत्र निकालने लगे. तिलक के पत्र “केसरी” के अग्रलेख “हिंदी केसरी” में प्रकाशित करने पर उन्हें 3 महीने जेल की सजा भी काटनी पड़ी. अपने बड़े भाई बाबूराव के आत्महत्या करने की बात बता कर उनके तीन घनिष्ठ मित्रों ने सप्रे जी को 3 महीने बाद माफी मांग कर छुटने को राजी तो कर लिया लेकिन वहीं से उनकी जिंदगी के मकसद और तरीके बदल गए. दोनों महापुरुषों की ज़िद भी समान थी जेल से छूटने के बाद सप्रे जी समाजकाज और दिलाई गई शपथ पर आजीवन अडिग रहे और आचार्य द्विवेदी तमाम विरोध के बावजूद हिंदी के हित की लड़ाई लड़ते रहे. दोनों ही न थके-न रुके- न झुके और अपने निर्धारित लक्ष्य प्राप्त कर ही माने.
मात्र 55 वर्ष की अवस्था में 23 अप्रैल 1926 को रायपुर में ऐसे महान लेखक चिंतक विचारक और समाज सुधारक पंडित माधव राव सप्रे ने अंतिम सांस ली.
150 वी जयंती पर सप जी को शत-शत नमन!