दुर्गेश मिश्र
रायबरेली। हिंदी को संजीवनी प्रदान करने वाले लेखक और विलक्षण व्यक्तित्व के रूप में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की पहचान है। आज हिंदी का जो स्वरुप सबके सामने है उसमे आचार्य जी की महती भूमिका है।ऐतिहासिक पत्रिका ”सरस्वती के जरिए उन्होंने हिंदी साहित्य को नई दिशा दी। सन 1903 से 1920 तक सरस्वती का संपादन कर ”द्विवेदी-युग का प्रवर्तन सर्वमान्य आचार्य के रूप में समादृत हैं। कम लोग जानते हैं कि संपादन करने से पहले आचार्य महावीर अपने गांव के सरपंच थे। सरपंच करते हुए नारी शक्ति को प्रोत्साहित करने के लिए काफी काम किया था। यही नहीं, अपनी पत्नी की मूर्ति भी स्थापित करवाई थी। ऐसा उदाहरण बहुत कम देखने को मिलता है।
गांव के सरपंच के रुप में रखा सबका ध्यान
जिले के दौलतपुर गांव में 9 मई 1864 को महावीर प्रसाद द्विवेदी का जन्म हुआ था। उन्होंने हिंदी भाषा-साहित्य के क्षेत्र में अपनी कीर्ति-पताका फहरायी साथ ही सामाजिक सरोकारों की दृष्टि से भी उनका कोई जोड़ नहीं था। करीब 100 वर्ष पहले वह दौलतपुर के विलेज मुंसिफ और दौलतपुर ग्राम के पहले सरपंच के दायित्वों का बखूबी निर्वहन कर चुके थे। उस समय उन्होंने स्थानीय नागरिकों की सुविधा के लिए स्कूल, कांजी हाउस, चिकित्सा-सुविधा की व्यवस्था करायी थी। आचार्य द्विवेदी नारी को सम्मान देने के साथ आगे बढऩे को प्रोत्साहित करते थे।
जब जनेव उतार के दलित के पैर बांध दिया था
एक बार उनके यहां एक दलित को सर्प ने काट लिया आस पास कोई बचाव का साधन न देख उन्होंने उसके पैर में अपना जनेव उतार कर बांध दिया था। इससे उसकी जान बच गई। अपनी शैली से वो अक्सर लोगो को चौका दिया करते थे। समाज में ऐसे विरले ही लोग होते हैं जिन्हें लोग हमेशा हृदय में रखना चाहते हैं।
पत्रकारिता में कभी नही किया समझौता
उस समय की प्रतिष्ठित पत्रिका सरस्वती में संपादन के दौरान एक मित्र ने उन्हें एक बोरी चीनी भिजवाई थी। उसके कुछ दिन बाद एक लेख भेजा था जो उनके मानक के अनुरुप नही था उसे उन्होंने नही छापा एक बार उनके उस मित्र ने याद दिलाया कि उनका लेख नही छापा तो वो बोले वो छपना उचित नही उसमे केवल आपकी महिमा लिखी गई इससे पाठकों को कोई लाभ नही होगा। इस पर बात ही बात में एक बोरी चीनी की उन्हें याद दिलाई उन्होंने कहा बोरी वैसी ही रखी है और उसे तुरंत उस मित्र के यहां भिजवा दी।
पत्नी के आदर और प्रेम और सम्मान की पराकाष्ठा थी उनकी प्रतिमा की स्थापना
आचार्य ने दौलतपुर ग्राम में अपने निवास के समक्ष स्थापित मंदिर में अपनी दिवंगत पत्नी की संगमरमर की प्रतिमा को स्थापित करवाया था। पत्नी की प्रतिमा को मंदिर में प्रतिष्ठापित कराने पर उनका उस समय उपहास भी किया गया था। पर मजबूत हृदय के आचार्य पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वह अनवरत अपने कार्य में लगे रहे। आचार्य महावीर प्रसाद की तरह अपनी पत्नी की प्रतिमा स्थापना कराने वाला कोई बिरला ही मिलेगा। आचार्य सरस्वती पत्रिका का संपादन करने के पूर्व आचार्य महावीर रेल विभाग में कार्यरत थे। मुंबई, झांसी आदि नगरों में विभिन्न पदों पर कार्यरत रहे। झांसी में पदस्थ रहते हुए ही उन्होंने अपने स्वाभिमान के चलते अंग्रेज अधिकारी का विरोध करते हुए रेल विभाग की नौकरी से त्याग पत्र दे दिया। रायबरेली में 21 दिसंबर 1938 को उन्होंने अंतिम सांस ली थी।