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अपनी करनी की कीमत चुका रही है मानव जाति?

वह इंटरव्यू हर रोज मेरे मन मस्तिष्क पर दस्तक से जाता है। आज कितनी गाड़ियां हमारे काम आ रही हैं? हम किस ब्रांड के और कितने कपड़े पहन रहे हैं? हम कितनी सुख-सुविधाओं का भोग कर पा रहे हैं? सब जहां के तहां बंद है। घर का बना सादा भोजन, साधारण कपड़े और ईश्वर का भजन! जीवन इतने में ही समा कर रह गया है।

Jitendra Kumar by Jitendra Kumar
23/04/20
in मुख्य खबर, साहित्य
अपनी करनी की कीमत चुका रही है मानव जाति?

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मीना पाठक मीना पाठक 
कानपुर


कुछ महीनों पहले टीवी का चैनल बदलते हुए अचानक रुक गयी। पर्यावरण को लेकर एक वैज्ञानिक से चर्चा हो रही थी। मैंने रिमोड साइड में रख दिया और सुनने लगी। लगभग आधे घंटे की चर्चा का मूल यह था कि जिस गति से दुनिया भाग रही है, अगर यूँ ही भागती रही तो उसे इसकी बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है। आज थोड़ा ठहर कर आगे नहीं, अपनी जड़ों की ओर पीछे लैटने की आवश्यकता है। अगर आज हमसब (पूरी दुनिया) ना रुके तो शायद प्रकृति फिर कभी मौका ना दे। क्योंकि दुनियाभर के लोगों ने अपने स्वार्थ के लिए प्रकृति के साथ वह सब किया है जो उसे नहीं करना चाहिए। बहुत विस्तार से उन वैज्ञानिक ने दुनिया भर के लोगों को अपने खान-पान से लेकर रहन-सहन और हर एक क्रियाकलाप पर अंकुश लगाने को कहा था। उन्होंने कहा था कि आखिर हमें जीने के लिए कितनी चीजों की आवश्यकता है और हम कितनी गैरजरूरी चीजों का उपयोग करते रहते हैं जिसके बिना भी हम आसानी से अपना कार्य कर सकते हैं। अपना जीवन गुजार सकते हैं।

मैंने वह पूरा इंटरव्यू अपनी बहू को भी दिखाया क्योंकि मुझे लगा कि उसे भी सुनना चाहिए। नई पीढ़ी को भी पता होना चाहिए आने वाले भविष्य का कटु सत्य! अभी उस इंटरव्यू  को देखें छः सात महीने ही हुए होंगे और आज पिछले कुछ महीनों से प्रकृति ने स्वयं ही मनुष्यों की गति पर विराम लगा दिया है। पूरी पृथ्वी पर जो जहां है वहीं रुक गया है। दुपहिया से लेकर रेल, हवाई जहाज तक सब का चक्का जाम है। पृथ्वी पर जीवन जैसे ठहर गया है।

आज-कल वह इंटरव्यू हर रोज मेरे मन मस्तिष्क पर दस्तक से जाता है। आज कितनी गाड़ियां हमारे काम आ रही हैं? हम किस ब्रांड के और कितने कपड़े पहन रहे हैं? हम कितनी सुख-सुविधाओं का भोग कर पा रहे हैं? सब जहां के तहां बंद है। घर का बना सादा भोजन, साधारण कपड़े और ईश्वर का भजन! जीवन इतने में ही समा कर रह गया है। आज क्या अमीर क्या गरीब सभी की एक ही चिंता एक ही सरोकार!

कहते हैं ना कि हमें अपनी चिंता स्वयं करनी पड़ती है कोई दूसरा हमारी चिंता करने नहीं आता। हम दुनिया भर के मनुष्यों ने पूरी प्रकृति को बीमार कर दिया था। उसका दम घोंट रखा था। उसका सांस लेना दूभर कर दिया था। तभी तो यह प्रकृति का प्रकोप हुआ है। मनुष्य ने पूरी पृथ्वी का अतिक्रमण कर रखा था। स्वयं को शक्तिशाली साबित करने की होड़ में नित नए विस्फोट! परमाणु हथियारों का जखीरा! प्रक्षेपण! क्या-क्या नहीं कर रही थी दुनिया। पर एक ही झटके में सब चित्त ! आज इतने बड़े और विकसित देश जो खुद को ही ईश्वर माने बैठे थे, ईश्वर के आगे हाथ बाँधे खड़े हैं। उनकी शक्ति आज किसी काम नहीं आ रही। एक ऐसी महामारी जिसके बारे में किसी को भी कुछ नहीं पता। उसके आगे सारी महाशक्तियां हार गई हैं। किसी को भी नहीं पता कि यह महामारी कब और कैसे खत्म होगी।

आज देश दुनिया के सामने जो परिस्थितियाँ उत्पन्न हुई हैं, उसका जिम्मेदार कौन है? क्या स्वयं मनुष्य नहीं? हमने जंगल काट दिए। जल का जी भर दोहन किया। विस्फोटों से धरती को थर्रा दिया और आकाश का सीना चीर दिया। पृथ्वी, नदियाँ, समुद्र, जंगल, पहाड़, यहां तक कि अंतरिक्ष को भी कचरे का ढेर बना दिया। तो अब भुगतने की बारी भी हमारी है।

महाभारत में श्रीकृष्ण ने शिशुपाल के सौ अपराध क्षमा करने का वचन दिया था। उसी तरह पृथ्वी ने मनुष्य को जितनी छूट दी थी उसकी अवधि समाप्त हो गई है। अब प्रकृति के साथ अपने ही क्रूर व्यवहार के दण्ड का भागी मनुष्य अपने कृत्यों की सजा भोग रहा है और मनुष्यों को दण्ड दे प्रकृति अपने घाव भर रही है। जहां एक ओर मनुष्यता कराह रही है वहीं प्रकृति हर पल स्वस्थ और तंदुरुस्त हो रही है। उम्मीद है कि प्रकृति मनुष्य को उसकी ग़लतियों के लिए उसे क्षमा करेगी और मनुष्य स्वस्थ होकर वो गलतियाँ नहीं दोहराएगा। अपने कृत्यों पर पश्चाताप करेगा।


ये लेखक के अपने निजी विचार है l 

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