दिनेश पाठक : नगर निकाय की व्यवस्था आपसी सामंजस्य से चलती है. मेयर, चेयरमैन भी पूरा प्रयास करते हैं कि नगर आयुक्त या अधिशाषी अधिकारी से उनके रिश्ते मधुर रहें, जिससे कोई जरूरी काम रुकने न पाए. उनके दिमाग में कहीं न कहीं यह बात रहती है कि जनता ने उन्हें चुनकर भेजा है तो जवाबदेही भी बनती है. अगर झूठे अहम के चक्कर में काम रुकेगा तो शहर के लोग अफसर को नहीं, बल्कि अपने चुने हुए प्रतिनिधि को ही कोसेंगे, चाहे उसके पास कितने ही सीमित अधिकार हों.
अभी तक की जो व्यवस्था चली आ रही है, उसके मुताबिक नगर पंचायत, नगर पालिका या नगर निगम सभी संस्थाओं में बोर्ड निश्चित तौर पर सबसे ऊपर है. वहां से मंजूर हुई चीजों को आमतौर पर कोई नहीं रोकता. उस पर काम होता है. बोर्ड के बाहर किसी भी चेयरमैन या मेयर के पास मामूली अधिकार ही हैं. बोर्ड के बाहर नगर पंचायत का चेयरमैन 15 हजार रुपए तक का काम स्वीकृत कर सकते हैं. नगर पालिका चेयरमैन 50 हजार रुपए तक के काम स्वीकृत कर सकते हैं.
दोनों ही संगठनों में चेयरमैन और अधिशाषी अधिकारी के संयुक्त दस्तखत से ही धन खर्च किया जा सकता है, इसलिए सामंजस्य अक्सर बेहतर होता है. इसी सामंजस्य की वजह से बोर्ड बैठक में बहुत सारी पावर चेयरमैन को डेलीगेट करवा लेने की परंपरा देखी जाती है. तीनों ही संगठनों में पार्षदों, चेयरमैन, मेयर को बोर्ड बैठक के दौरान प्रतिदिन के हिसाब से भत्ता दिया जाता है.
नगर निगमों में मेयर के पास अधिकार चेयरमैन की अपेक्षा सीमित हैं. मेयर जो भी करना चाहें बोर्ड में ही कर सकते हैं, हालांकि यह काम तभी आसान होता है, जब मेयर के साथ पार्षद की संख्या बहुमत में हो. अगर कहीं ऐसा हुआ कि सदन में दूसरे विचारधारा के पार्षदों की संख्या ज्यादा हुई तो फिर मेयर के लिए काम करना मुश्किल होता है. यह बात नगर पालिकाओं, नगर पंचायतों में भी लागू होती है, लेकिन यहां पार्षदों की संख्या कम होने की वजह से कई बार मामला मैनेज हो जाता है.
मेयर के पास किसी चेक पर साइन करने का नहीं अधिकार!
निगमों में पार्षदों की संख्या ज्यादा होती है, ऐसे में बोर्ड की बैठक में पहुंचते ही हर पार्षद शेर हो जाता है. मेयर के पास किसी भी चेक पर दस्तखत करने का अधिकार नहीं है. किसी भी निकाय में चुने हुए प्रतिनिधि के पास कोई भी एग्जीक्यूटिव पावर नहीं है. इसके लिए उन्हें नगर आयुक्त या अधिशाषी अधिकारी से ही मदद लेनी होगी. जो पावर दिखती है, उसमें कई बार मेयर या चेयरमैन का व्यक्तिगत प्रभाव ज्यादा मैटर करता है. अगर वे प्रभावशाली हैं तो उनकी अफसर ज्यादा सुनते हैं. कुल मिलाकर नियम-कानून से काम करने की जिम्मेदारी निकायों में कार्यपालिका की ही होती है, इसलिए सामंजस्य बैठाकर दोनों ही पक्ष काम करने के आदती हो जाते हैं.
निकायों में केंद्र से लेकर राज्य शासन से अलग-अलग मद में पैसे आते हैं. उदाहरण के लिए इस समय 15वें वित्त आयोग के मद में पैसा आ रहा है. इन सभी पैसों पर जिलाधिकारी की नजर होती है. एक तरह से डीएम अपरोक्ष रूप से इस तरह की रकम के खर्चों पर नजर रखने के लिए जिम्मेदार होते हैं. 15वें वित्त आयोग के लिए तो डीएम के दफ्तर में एक कमेटी बनी है. बिना इस कमेटी के मंजूरी के 15वें वित्त आयोग की कोई भी रकम कोई भी निकाय खर्च नहीं कर सकता. पहले वह प्रस्ताव बनाकर कमेटी की मंजूरी लेगा फिर काम शुरू हो पाएगा. इस तरह हर निकाय में डीएम का प्रभाव बना रहता है.
कई बार एमपी-एमएलए भी अफसरों के आगे फेल होते हुए देखे जाते हैं. क्योंकि नियम-कानून के दायरे में रहकर काम करना उनकी पहली जिम्मेदारी है. चाहे कोई कहे, सुनना सबकी है लेकिन करना नियम-कानून के दायरे में रहकर ही है. हालांकि, एमपी-एमएलए, अनेक कमेटियों में सदस्य होते हैं. एमपी जिला योजना वाली समितियों में ज्यादा ताकतवर होते हैं, लेकिन कोई भी कार्यकारी पावर इनके पास नहीं है. यहां तक कि एमपी-एमएलए निधि के लिए भी एक गाइड बुक है.
निर्देश हैं कि उसी गाइड बुक के अनुसार अफसर निधियों का पैसा रीलिज कर सकते हैं. अगर नियम-कनून का पालन नहीं होगा तो सीधे अफसर जिम्मेदार होंगे. इसलिए व्यवहारकुशल एमपी-एमएलए निधि का पत्र सीडीओ को भेजने से पहले कई बार नीचे के अफसरों को बुलाकर नियम-कानून के दायरे में रहने वाली बात समझ लेते हैं. जहां बातचीत नहीं होती है, वहां अनेक बार एमपी-एमएलए के पत्र के बावजूद काम नहीं हो पाता.