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साध्वी उमा भारती की सक्रियता के मायने, राजधर्म का निर्वहन या राजयोग की तलाश

Jitendra Kumar by Jitendra Kumar
18/01/23
in मुख्य खबर, राज्य, राष्ट्रीय
साध्वी उमा भारती की सक्रियता के मायने, राजधर्म का निर्वहन या राजयोग की तलाश
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प्रवीण शुक्ला


पिछले चार सालों से म.प्र. भाजपा की राजनीति में साध्वी उमा भारती को वह सम्मान नहीं मिला है जिसकी वे स्वयं को हकदार मानती रहीं है। जाहिर है वे उपेक्षित रहीं हैं। लेकिन शिव के सत्ता-त्याग के बिना उमा का राजयोग साकार भी नहीं हो सकता। बयानों के तीर फौरी तौर पर हवा में हलचल मचाने के मंसूबे तो पूरे कर सकते हैं लेकिन इनसे सत्ता के सिंहासन जैसे महत्वपूर्ण लक्ष्य भी साधे जा सकते हैं, ऐसा मान लेना समझदारी नहीं हो सकती?’

साध्वी उमा भारती की शनै: शनै: बढ़ रही राजनीतिक सक्रियता भाजपा में नारी शक्ति के उदय का प्रतीक माना जाये, या जीवन के उत्तराद्र्ध में अधूरी सियासी महत्वकांक्षाओं की अंगड़ाई अथवा राष्ट्र, समाज और स्वयं के कल्याण के सापेक्ष कर्तव्य निर्वहन में शिथिलता को परास्त करने वाली उनकी प्रकृति और प्रवृत्ति के प्रदर्शन का साहसिक इजहार इन सारे संदर्भ में विश्लेषण की व्यापक संभावनाऐं निहित हैं। और शायद इसीलिये उनके हाल के बयानों, अचानक बढ़ी सक्रियता तथा बयानों और संवादों में प्रयुक्त शब्दावली के तेवरों के भिन्न-भिन्न मायने तलाशे जा रहे हैं। यह बात अलग है कि उनकी सारी सक्रियता का सार सन्यास-भाव से इतर महज सियासी प्रयोजनों पर केन्द्रित महसूस किया जा रहा है। अधूरे सन्यास और अधूरे राजयोग की परिस्थितियों में अक्सर ऐसा होना स्वाभाविक भी है।

उमा जी के जीवन का पूर्वार्ध उनकी आध्यात्मिक चिंतन चेतना के प्रादुर्भाव, संस्कृति और संस्कारों को अपनी जीवन शैली में आत्मसात करने वाली उनकी छवि तथा बेबाक संवाद-शैली के प्रस्तुतीकरण का अध्याय रहा है। राजनीति में प्रवेश के साथ ही उन्हें तेज-तर्रार नेत्री होने का गौरव भी मिला और वे भाजपा के शीर्ष-क्रम के नेताओं की पंक्ति का हिस्सा भी बनीं। मध्यप्रदेश में भाजपा आज अपने लगातार दो दशक के जिस सत्ता- सफर (कमलनाथ सरकार के 15 महीने के समय को छोडक़र) की निर्बाधता पर इतरा रही है, कौन नहीं जानता कि उस रास्ते की 2003 में बनी बुनियाद पर सत्ता की जाजम उमाश्री की छवि, उनकी सक्रियता और उनकी नेतृत्व क्षमता की बदौलत ही बिछ सकी थी।

दर्द उपेक्षा का

लेकिन 2014 से शुरू हुए भाजपा के नये परिदृश्य में उम्रा जी धीरे-धीरे अप्रासंगिक होने लगीं। शायद ज्यादा सच यह है कि राजनीतिक कारणों से उन्हें जानबूझकर अप्रासंगिक बनाया जाने लगा। केन्द्रीय मंत्री रहते हुए भी वे अपनी प्रतिभा के अनुरूप काम नहीं कर पाई। मोदी की राजनीतिक शैली से अपनी तासीर का तालमेल न बैठा पाने के कारण केन्द्र की राजनीति छोडक़र उन्होंने मध्यप्रदेश में अपनी सियासी जड़ों को फिर से अंकुरित करने की चेष्टा भी की, लेकिन इसमें भी वे सफल नहीं हो पाई।

भाजपा के कद्दावर चेहरे और म.प्र. भाजपा की वरिष्ठ नेत्री की पहचान रखने वाली उमा भारती पिछले चार वर्षों से पार्टी की सक्रिय राजनीति में उपेक्षित की तरह रही हैं। पार्टी के ज्यादातर बड़े कार्यक्रमों से भी उन्हें दूर रखने के सतत् प्रयास होते रहे हैं। उनके समर्थकों को भी सत्ता में भागीदार बनाने में भेदभाव बरता गया। उनके एक खास समर्थक प्रीतम लोधी को पार्टी से छ: साल के लिये निष्कासित करने में बरती गई जल्दबाजी की पृष्ठभूति भी उमाजी को हाशिये पर धकेलने की राजनीति से प्रेरित रही है, राजनीतिक विश्लेषक ऐसा मानते हैं और शायद उमा भारती को भी कुछ ऐसा ही ऐहसास है ? इन्हीं परिस्थितियों की पृष्ठभूमि से उमाजी के तल्ख तेवरों के नये संस्करण की पटकथा तैयार हुई है। चर्चाऐं ऐसी भी है कि इस पृष्ठभूमि की रचना में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की व्यक्तिगत दिलचस्पी का बड़ा योगदान रहा है। खुद उमा जी इन चर्चाओं से कितना इत्तफाक रखती हैं, वे ही बेहतर जानती होंगी। लेकिन इस कद्दावर भाजपा नेत्री की सियासी संभावनाओं को पलीता लगाने में शिवराज की भूमिका का रत्ती भर भी योगदान नहीं है, पता नहीं क्यों किसी के गले से यह बात उतरती भी तो नहीं है। मध्यप्रदेश भाजपा में सत्ता की सियासत का सिरमौर बनने की महत्वकांक्षा रखने वालों की तादाद कम नहीं है। उमा भारती को भी उसी फेहरिस्त का हिस्सा, माना जाता है। यह भी सच है कि इस फेहरिस्त के सभी किरदारों को बखूबी इल्म है कि शिवराज राजवंश के मौजूद रहते उनकी महत्वाकांक्षा कभी परवान नहीं चढ़ पायेगी। शायद इसीलिये इनमें से ज्यादातर ने परिस्थितियों से करना ही समझौता बेहतर मान लिया है। लेकिन उमा भारती की तासीर पराजय के डर से अपने कदम रखींचने की नहीं रहीं है इसलिये वे गाहे-बगाहे अपने इरादों का डमरू बजा ही देती हैं।

दवाब की राजनीति

अपनी करिश्माई काबिलियत पर जरूरत से ज्यादा ऐतबार रखने वाली उमा भारती एक बार भाजपा से अलग होकर अपना अलहदा सियासी मुकाम बनाने का प्रयोग कर चुकी हैं। परिस्थितियों उन्हें दोबारा उसी प्रयोग पर अमल करने की इजाजत नहीं दे रहीं। संभवत: यही वजह है कि इस बार वे पार्टी अनुशासन की लक्ष्मण रेखा लांघने की भूल करने की बजाय, दायरे में रहकर दवाब बनाने की राजनीति करती दिख रहीं हैं। शराब बंदी की मुहिम की आड़ में जहां एक ओर वे शिव- सरकार को धर्मसंकट डालती रहीं, वहीं दूसरी ओर समय-समय पर शिवराज की प्रशंसा करने का राजधर्म भी निभाती रहीं। राजनीति में अपनी महत्याकांक्षाओं की अमरबेल पनपाने के लिये इस तरह का संतुलन बनाना वर्तमान दौर की राजनीति की जरूरत जो कहलाती है। तारीख पर तारीख बढ़ाते रहने के बावजूद जब उमा भारती को अपेक्षित परिणाम मिलते नहीं दिखे, तो उन्होंने जातिगत समीकरणों का सहारा लिया। सजातीयों को लाभ-हानि का वास्ता देकर वोट करने की बात भी कहीं और स्वयं के पार्टी की प्रतिबद्धता से जुड़े रहने का संकल्प दोहराकर अपने बचाव का मार्ग भी महफूज रख लिया। इसके तुरन्त बाद भगवान राम और हनुमान के बारे में वही बयान दुहराये जिनका वे कई बार जाप कर चुकी हैं और जिनका आशय भगवान पर भाजपा के एकाधिकार को नकारने का रहा है।

मध्यप्रदेश भाजपा की सत्ता राजनीति में इन दिनों शिव-विरोधी आंतरिक संघर्ष की खामोश सक्रियता भभकती दिखाई पड़ रही है। भाजपा को सत्ता में बनाये रखना यद्यपि सभी का घोषित लक्ष्य है लेकिन शिव- राजवंश के रहते जो कथित क्षत्रप स्वयं को उपेक्षित मानते हैं, वे नेतृत्व परिवर्तन को वक्त की जरूरत बताकर अपने मिशन को मजबूत भी करते जा रहे हैं। इस साल के अंत में होने वाले विधान सभा चुनावों से पहले उपेक्षित कुनबे का कितना विस्तार होता है, उमा भारती की सियासी संभावनाऐं इसी पर निर्भर रहेंगी।

जहाँ तक शिवराज के राजनीतिक स्थायित्व का सवाल है, उन्हें चुनौती देने लायक कोई परिस्थिति फिलहाल दिखाई नहीं देती। अपनी-अपनी महत्वाकांक्षाओं के कारण जो लोग नेतृत्व परिवर्तन की बात करते हैं, उनमें से ज्यादातर यह भी स्वीकार करते हैं कि 2023 में सत्ता का लक्ष्य शिवराज की पार्टी के प्रति प्रतिबद्ध भूमिका की बदौलत ही साधा जा सकता है। एंटी इन्कमबेंसी के नाम पर शिवराज से नेतृत्व छीना जाये, पार्टी का एक बड़ा तबका इस प्रयोग से इत्तफाक रखता दिखाई नहीं देता। लोधी समाज के बोट-बैंक को अपनी मर्जी के मुताबिक इस्तेमाल करने में उमा भारती कितनी कामयाब होंगी, इस पर स्पष्ट राय का अभी अभाव है। इस समाज से जुड़े कुछ बड़े नेता अभी भाजपा की मुख्यधारा से जुड़े हैं और सत्ता में भागीदार भी बने हुए हैं, ऐसे में वे दबाव की राजनीति का समर्थन करना पसंद क्यों करेंगे? बहरहाल ग्वालियर चंबल अंचल सहित विदिशा, बालाघाट, रायसेन, नर्मरापुरम् और नरसिंहपुर जिलों की लगभग 60-65 विधान सभा सीटों पर लोधी समाज का अपना रसूख है जो जीत-हार के समीकरणों को प्रभावित करने का माद्दा भी रखता है। उमा भारती इसे अपनी ताकत मानती तो होंगी लेकिन यह ताकत सियासी सौदेबाजी पर कितना असर दिखायेगी, यह देखना अभी बाकी है।


(लेखक:- मध्यप्रदेश के बरिष्ठ पत्रकार हैं)

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