–मेरे हाॅस्टल की लड़कियां–
अभी-अभी घर की बेड़ियां
तोड़ अकेली अंजान शहर में
आई हैं…….
आजादी का स्वाद….
पढ़ाई के बहाने
तलाशने…..
कुछ हैं जो दबी-दबी सी
सहमी-सहमी सी हैं
कुछ हैं जो खोल से निकलने
को आतुर हैं।
कुछ ने अभी-अभी ही खोल को
हल्का सा खोला है।
जोर से सांस लेती हैं अंदर तक
और उसे उतनी ही जोर से करती हैं बाहर
छटपटाहट हैं….
अपनी ही बेड़ियों को
काटने मंे….
कुछ ने पूरी तरह तोड़ा हैं
एक ही झटके में…
और खुलकर जोरदार ठहाके लगाती हैं
उनकी हँँसी पूरे हास्टल में
सुनाई देती है रात-रात भर
चैंक जाती हैं….
कुछ सहमी हुई लड़कियां
जो अभी भी कैद हैं
उसी खोल में
जो अंजाने ही किस्मत का साथ पा
चली आई है…हाॅस्टल में।
वे पंख फैला ही नही पा रही हैं
पर उड़ने की कोशिश जारी है
जोर से हँसी ठ्ठ्ठा करती
उन लड़कियांे को देखती हैं
आश्चर्य से…चैंक कर
सहमते हुये पूछती हैं
तुम इतनी जोर से कैसे हँस पाती हो ?
माँ कहती है लड़कियों को जोर से हँसना
नही चाहिये…
पिता नाराज होगें
शरीफ घराने की लड़कियां
आँखें नीची कर मँुह दबाकर हँसती हैं
और तुम इतनी जोर से हँसती हो ?
समवेत हँसी …अचानक इस प्रश्न से
एकाएक मौन हो जाती हैं।
यह शिक्षा तो हर बेटी को अपनी माँ से
विरासत में मिली है
एक विराट मौन पसर जाता है।
फिर अचानक ही समवेत हँसी का
फव्वारा फूट पड़ता है….हाॅस्टल में…
हाॅस्टल में रहने वाली
हर लड़की जान गई है
खुल कर हँसने में….
बेड़ियों के टूटने का राज
मेरे हाॅस्टल की लड़कियाँ..
–किरण सिंह बैस–
वाराणसी