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प्रवास : आशियाने की तलाश

Jitendra Kumar by Jitendra Kumar
17/05/20
in साहित्य
प्रवास : आशियाने की तलाश

google image

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प्रज्ञा शालिनी प्रज्ञा शालिनी
भोपाल
मध्यप्रदेश


खोदने वाले पहाड़
छाँटने वाले चट्टान
बनाने वाले ऊँची इमारतें
साफ़ करने वाले तलहटी
सुना किसी ने ,
आज चींटी बन चुके हैं
अपना घर तलाश करते करते
मजूरी के घिसे पैर से
बस,
चलते चले जा रहे हैं
कतार बद्ध …

जैसे चलती है चींटी
क़दम दो क़दम नहीं
मीलों… सैकड़ो हजारों मील
काली लम्बी सड़कों पर बेसुध
या,
ऊबड़खाबड़ रास्तों से होकर
नाले पोखर पटरी पार कर बिना साधन
बिना अन्न पानी के…
चल पड़ने को मजबूर
जैसे,
ज़िंदगी के आख़री अनुष्ठान पे
ये कामगार मजदूर… मय परिवार…
चल पड़े हों
पीठ पे बूढ़े माई बाप बाँधे
आदमी
भारी पैर मेहरारू के सामान और
बच्चों के
ग़रीबी की जोड़ी
चिथड़ा चिथड़ा ग्रहस्थी
जिन्हें छोड़ना खड़े खड़े लुटने जैसा लगा होगा
मजबूरी के मारे उन मजदूरों को बस इसीलिए
छूटते आशियाने से कुछ मैले डिब्बे कुछ पोटलियाँ
साथ बाँध लिए टूटी फूटी साइकिल के पीछे…

भूखे पेट प्यासे होठ सूखती नाभि से जुड़ा गर्भनाल
में जुड़े बच्चे के पपड़याते होठ
एक बच्चे को कंधे पे एक पोटली
और एक बच्चे की बाँह थामे स्त्री
चलती चली जा रही है जाने कैसी बेसुधी में
जैसे घर सामने हो
और
उसी से महकती हो रोटी की खुशबू …
कौन सा अपराध हुआ इन मेहनतकश मजदूरों से
जिनके भाग बदा पलायन और पलायन
फूटी किस्मत टूटी चप्पल फटी एड़ियाँ
खुद के लिए या
ऊँचे महलों फैक्ट्रियों मिलों के मालिकों के लिए
रातदिन एक किया सफलता के वास्ते
उनकी सीढ़ी का पहला पायदान बना
वज़ीफ़े ट्रॉफी नाम शौहरत कामयावी सब नाम उनके
एक बस एक बुरा वक्त और काई सी छांट दिए गए
नहीं दे सके दो निवाले होठों तक नहीं रख सके पीठ पर थपथपाता हाथ पेट तक महसूसता सा…

कौन हैं हम मजदूर
आज बड़ा सबाल खड़ा किया है
आला साहब लोगो ने
कीड़ा मकोड़ा , या बेजुबान जनाबर या हाथ लगी कठपुतली ,बिना पेट पिरता कोलुहु का बैल
या बिना मास का रोबोट …
नहीं साहेब… अब और नहीं
हम मजदूरों को मालूम है… हम क्या हैं
हम मजदूर मजबूर नहीं ,
देश की रीढ़ हैं साहेब… रीढ़
मोटर पार्ट हमसे है, ईंट-पत्थर हमसे है
पटरी की रफ़्तार हमसे है मिलों की झंकार हमसे है
ऊँची ईमारत, कुआ, तालाब नदीयों के पुल हमसे हैं
और क्या बात करें साहिब
मंदिर,मस्ज़िद ,चर्च, गुरुद्वारे
फ़िर इनके भी भीतर गढ़ा देवता हमसे है…
जहाँ की रफ़्तार हमसे है…
ज़मीर मज़दूरी का मुस्कराता रहा देर तक
फ़िर,
उसी के हाथों गढ़ा हुआ ईश्वर भी
मुस्कराता रहा देर तक…
सामन्ती ताक़त पर
और
कर्मठता मजदूरों की देख कर
लेक़िन ,
जानता है वो
कर्म ही महान है …
गलती इतनी भर है
अफ़सोस
मजदूर जानते नहीं हैं
मुट्ठी खुली है इनकी
और
नज़र…नव्ज़ की,
वाज़ है…

 

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