नई दिल्ली: विदेश नीति में कूटनीति सबसे अहम होती है। अपने हितों को साधने के लिए वक्त और जरूरत के हिसाब से फैसले लेने पड़ते हैं। भारत अपनी जरूरत का 80 फीसदी तेल खरीदता है और देने वाले देशों के संगठन को ओपेक (OPEC) कहते हैं। इसमें सऊदी अरब, इराक, कुवैत जैसे ज्यादातर मुस्लिम देश हैं। एक समय तेल बेचने वाले देशों के समूह (तेल के सौदागरों) से भारत 90 प्रतिशत तेल खरीदता था लेकिन ये देश कीमतों को लेकर मनमानी करने लगे। भारत ने पिछले एक साल में आक्रामक कूटनीति पर काम किया, ओपेक देखता रह गया। दरअसल, 60 साल से इस ग्रुप का वैश्विक तेल पर दबदबा रहा है। एक समय ओपेक ने कुछ देशों को तेल देने से ही मना कर दिया था। शिपमेंट रुके, तेल के उत्पादन में कटौती हुई तो दाम आसमान छूने लगे। यह खेल आगे भी चलता रहा।
तेल के ‘खेल’ से अपने देश को बचाने के लिए दुनियाभर में तेल भंडार बनाए गए। OPEC को भले ही व्यापारी समझा जाए लेकिन उसके पीछे राजनीतिक मंशा भी छिपी रहती है। भारत करीब 50 लाख बैरल तेल रोज इस्तेमाल करता है। पिछले महीने ही ओपेक प्लस समूह ने अचानक तेल उत्पादन में रोज 16 लाख बैरल तेल की कटौती का ऐलान किया था। भारत ओपेक का सदस्य नहीं है। ऐसे फैसलों का असर होना लाजिमी है लेकिन मोदी सरकार ने धीरे-धीरे इसका विकल्प ढूंढ लिया है।
OPEC की मनमानी पर लगेगा ब्रेक
जी हां, ओपेक का जब मन करता है, वह उत्पादन रोक कर तेल के रेट बढ़ाने की कोशिश करता है। हालांकि आज के दौर में स्वच्छ ऊर्जा की मांग के चलते सऊदी अरब की अगुआई वाले इस ग्रुप की अहमियत घट रही है। सबसे बड़ी बात यह है कि तेल के लिए इस समूह पर भारत की निर्भरता सबसे निचले स्तर पर पहुंच गई है। जी हां, 90 फीसदी से घटाकर अप्रैल में भारत ने ओपेक से अपनी जरूरत का मात्र 46 प्रतिशत तेल खरीदा। वैसे, सऊदी अरब से भारत के अच्छे रिश्ते रहे हैं, लेकिन वह अमेरिका के प्रभाव में रहता है। जब से यूक्रेन संकट पैदा हुआ है अमेरिका ने भारत को रूस के खिलाफ बोलने या कहिए खड़ा करने की कोशिश की लेकिन मोदी सरकार अपने रुख पर अडिग रही। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद कहा कि ये समय युद्ध का नहीं है लेकिन कभी भी भारत ने अमेरिका की हां में हां नहीं मिलाया। उल्टे, मोदी सरकार अपने भरोसेमंद सदाबहार दोस्त रूस से ज्यादा तेल खरीदने लगी। पश्चिमी मीडिया ने भारत सरकार को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश तो मोदी सरकार के ‘मिसाइल मिनिस्टर’ एस जयशंकर ने अपने आंकड़ों से यूरोप और अमेरिका की बोलती बंद करा दी। भारतीयों के हितों की बात करते हुए जयशंकर ने स्पष्ट कर दिया कि हम एक देश से तेल नहीं खरीदते, कई देशों से लेते हैं। ऐसे में जहां से सबसे अच्छी कीमत मिलेगी, भारत वहीं से तेल खरीदेगा।
यूक्रेन संकट के बाद भारत ने बदली रणनीति
भारत के तेल आयात में पेट्रोलियम निर्यातक देशों के संगठन की हिस्सेदारी सर्वकालिक निचले स्तर आ गई है। यह मोदी सरकार की कूटनीति को दर्शाता है। ओपेक से तेल का हिस्सा घट रहा है क्योंकि भारत ने रूस से कच्चे तेल की खरीद पिछले एक साल में काफी बढ़ा दी है। OPEC की भारत के कच्चे तेल के आयात में अप्रैल 2022 में 72 प्रतिशत हिस्सेदारी थी। लेकिन एक साल बाद अप्रैल 2023 का आंकड़ा देखिए तो यह 46 प्रतिशत पर आ गया है। पिछले साल यूक्रेन संकट के समय से ही रूसी कच्चा तेल भारत को रियायती दाम पर मिल रहा है। ऐसे में रूसी तेल की हिस्सेदारी लगातार बढ़ रही है। रिफाइनरियों में कच्चे तेल से पेट्रोल और डीजल प्राप्त होता है। भारत के कुल तेल आयात में लगातार सातवें महीने रूस की हिस्सेदारी 33 प्रतिशत से ज्यादा रही है। गौर करने वाली बात यह है कि रूस से आयात अब इराक और सऊदी अरब से कुल खरीद से ज्यादा हो चुका है। जबकि पिछले दशक में ये देश भारत के सबसे बड़े तेल आपूर्तिकर्ता थे। यह बात अपने आप में मोदी सरकार के बदले रुख को स्पष्ट करती है। भारत आज के समय में किसी एक देश या समूह की दया पर आश्रित नहीं रहना चाहता।
दिलचस्प है कि फरवरी 2022 में रूस-यूक्रेन संघर्ष शुरू होने से पहले भारत की तेल खरीद में रूस का हिस्सा 1 प्रतिशत से भी कम हुआ करता था। इस साल अप्रैल में भारत के तेल आयात में रूस का हिस्सा बढ़कर 36% हो गया है। भारत ने अप्रैल में कुल 46 लाख बैरल रोज कच्चे तेल का आयात किया। इसमें ओपेक का हिस्सा 21 लाख बैरल ही था। पहले ढुलाई का खर्च ज्यादा होने से भारतीय रिफाइनरी कंपनियां रूसी तेल कभी-कभार खरीदती थीं लेकिन यूक्रेन संकट के बाद बदली परिस्थितियों में भारत और रूस के बीच करीबी बढ़ी। रूस ने रियायती रेट पर कच्चे तेल का ऑफर दिया जिससे भारत का फायदा हो रहा है।