नई दिल्ली l आपने भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) का लोगो देखा है? लोगो में नीचे संस्कृत में लिखा हुआ है- ‘योगक्षेमं वहाम्यहम्’।
बीजेपी और वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को पता होना चाहिए कि यह भगवत गीता के 9वें अध्याय का बाईसवां श्लोक है- ‘अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते, तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्’।
कृष्ण कहते हैं- जो लोग अनन्य भाव से मेरे दिव्य स्वरूप को पूजते हैं, मैं उनकी आवश्यकताओं को पूरा करता हूं, और जो कुछ भी उनके पास है, उसकी रक्षा करता हूं।
1 फ़रवरी, 2020 को निर्मला सीतारमण ने बजट भाषण में भारतीय जीवन बीमा निगम के निजीकरण का ऐलान किया है। यानी नरेंद्र मोदी सरकार, बीजेपी और आरएसएस को भगवान कृष्ण और उनके मुख से निकले श्रीमद्भागवत गीता से कोई मतलब नहीं। उन्हें तो LIC बेचनी है, अम्बानी के लिए।
क्या मोदी सरकार ऐसा कर सकती है?
आजादी के आसपास कुल मिलाकर 245 छोटी-बड़ी कंपनियां बीमा के क्षेत्र में कार्यरत थीं। इनमें से कुछ कंपनियां अक्सर छोटी-मोटी वित्तीय गड़बड़ियां करती रहती थीं। देश के नागरिकों के लिए बीमा की गारंटी देने के विचार से, 1956 में भारतीय संसद ने बीमा विधेयक पारित किया।
सभी 245 कंपनियों का विलय करके एक सरकारी संस्था का गठन हुआ जिसका नाम था भारतीय जीवन बीमा निगम यानी एलआईसी। सरकार ने पांच करोड़ रुपये की पूंजी इसमें लगायी थी। वैसे लगाना था 100 करोड़, लेकिन जब सरकार ने पैसे नहीं दिए तो LIC ने ही अपनी कमाई से 95 करोड़ जमा किये। यानी इसमें सरकार का सिर्फ 5 करोड़ ही लगा है, तो सरकार तकनीकी रूप से इसे बेच कैसे सकती है?
सरकारी आंकड़ों के हिसाब से 31.12 लाख करोड़ रुपये की चल और अचल संपत्ति के साथ एलआईसी देश की सबसे बड़ी बीमा कंपनी है।
इसके पास लगभग 77.61% बीमा का मार्केट शेयर है। कुल प्रीमियम आय में इसकी भागीदारी 70.02% है। लगभग 3.40 लाख करोड़ की सालाना आय होती है। इसमें ज़्यादातर पैसा आम बीमा धारकों का है।
यह सारा पैसा जनता का है। एलआईसी की स्थापना के वक़्त इसके घोषणा पत्र का 28वां पैराग्राफ़ साफ़ शब्दों में कहता है कि इसे सिर्फ़ लाभांश का 5% ही सरकार को देना होगा शेष सारा 95% लाभांश पॉलिसी धारकों में बांटा जाएगा।
इसकी प्रस्तावना में कहीं भी ज़िक्र नहीं है कि इसका विनिवेश किया जा सकता है। ज़ाहिर है कि एलआईसी का विनिवेश से पहले इस नियम को बदलना होगा और ये संसद के द्वारा ही पारित होगा। LIC ने आम पालिसी धारकों की पूंजी जमा और सुरक्षित रखने का वचन दिया है। ऐसे में सरकार कैसे सुनिश्चित करेगी कि विनिवेश के बाद, जब ये निजी हाथों में होगी, तो जनता की पूंजी सुरक्षित रहेगी?
LIC में लगभग एक लाख नियमित कर्मचारी और तकरीबन 11.79 लाख एजेंट्स हैं। इन लोगों का रोज़गार ख़तरे में पड़ने वाला है। देश का सबसे पहला वित्तीय घोटाला एलआईसी की स्थापना के दूसरे वर्ष, यानी 1958 में ही हो गया था। तब हरीदास मूंदड़ा नामक व्यापारी ने कुछ अफ़सरों और नेताओं के साथ मिलकर उसकी ही कंपनियों के शेयर्स ख़रीदने के लिए एलआईसी को मजबूर किया था। यानी एक निजी और सरकारी तंत्र की साठ-गांठ थी।
क्या मोदी सरकार इस बात की गारंटी दे सकती है कि इसके निजीकरण के बाद भी उस पर उसका कोई नियंत्रण रहेगा जो इस प्रकार के हादसों को रोक सके? इसका जवाब नकारात्मक है।
भारत सरकार एलआईसी के विनिवेश से प्राप्त राशि का इस्तेमाल किस प्रकार करेगी? क्या वित्त मंत्री ने देश को इस बारे में कभी बताया?
LIC को बेचने का मोदी सरकार का मकसद ही ग़लत है और यही सबसे बड़ा सवाल भी है।
साभार : bhadas4media