राजीव कुमार
नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ कांग्रेस के अविश्वास प्रस्ताव पर 8 अगस्त को लोक सभा में चर्चा की शुरुआत हुई. कांग्रेस सांसद गौरव गोगोई की ओर से लाए गए इस प्रस्ताव को हाल ही में 26 दलों को मिलाकर बने विपक्षी गठबंधन I.N.D.I.A. का समर्थन हासिल है. जैसा कि पहले से उम्मीद थी अविश्वास प्रस्ताव के जरिए विपक्ष ने मणिपुर हिंसा को लेकर मोदी सरकार को कटघरे में खड़े करने की कोशिश की.
अविश्वास प्रस्ताव की रणनीति के मायने
ऐसे तो संसदीय प्रक्रिया में अविश्वास प्रस्ताव विपक्ष की ओर से सरकार के खिलाफ उस वक्त लाया जाता है, जब सदन में सरकार को संख्या बल के लिहाज से खतरा हो. हालांकि इस बार ऐसी कोई परिस्थिति नहीं थी. इस बात से कांग्रेस के साथ ही तमाम विपक्षी पार्टियां भलीभांति अवगत थीं. अविश्वास प्रस्ताव लाने का फैसला विपक्षी की रणनीति का हिस्सा था. सरकार संसद में मणिपुर पर उन नियमों के तहत चर्चा को तैयार नहीं हो रही थी, जिसकी मांग विपक्ष कर रहा था. इसके अलावा विपक्ष इस मसले पर चर्चा का जवाब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से चाहता था. सरकार की ओर से इस पर भी सहमति नहीं थी.
लोक सभा में सरकार को घेरने की रणनीति
इन दोनों मांगों को पूरा न होता देख कांग्रेस ने अविश्वास प्रस्ताव लाने का फैसला किया और इस पर विपक्ष की सहमति भी दिखी. हम कह सकते हैं कि संसद में सरकार को घेरने की रणनीति होने के बावजूद विपक्ष ने अविश्वास प्रस्ताव को मजबूरी में लाया है. इस बात को चर्चा की शुरुआत करते हुए कांग्रेस सांसद गौरव गोगोई ने भी 8 अगस्त को सदन में कहा.
अविश्वास प्रस्ताव के जरिए विपक्ष ने ये सुनिश्चित कर दिया कि मणिपुर का मुद्दा सदन में उठेगा और मणिपुर की स्थिति से जुड़े हर पहलू को सदन के रिकॉर्ड में जगह मिलेगी. विपक्ष चाहता था कि मणिपुर के मामले में प्रदेश की ए. बीरेन सिंह सरकार और केंद्र की मोदी सरकार विफलताओं पर सदन में चर्चा हो, इसे संसदीय वाद-विवाद के दस्तावेज में जगह मिले. विपक्ष अपनी इस रणनीति में कामयाब भी होता दिखा. विपक्ष की ओर से जिन सांसदों ने भी अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा में भाग लिया, लगभग सभी सांसदों ने अपने भाषणों में मणिपुर हिंसा और उससे पैदा हुई स्थिति को भरपूर जगह दी.
मणिपुर के मुद्दे पर है विपक्ष का मुख्य ज़ोर
अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में यानी मोदी सरकार के खिलाफ 8 अगस्त को कांग्रेस सांसद गौरव गोगोई, डीएमके सांसद टी आर बालू, टीएमसी सांसद सौगत राय, एनसीपी सांसद सुप्रिया सुले, समाजवादी पार्टी की सांसद डिम्पल यादव, शिवसेना (उद्धव गुट) के सांसद अरविंद सावंत, शिरोमणि अकाली दल (अमृतसर) के सांसद सिमरनजीत सिंह मान, कांग्रेस सांसद मनीष तिवारी, सीपीआई(एम) सांसद ए. एम आरिफ और रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी के सांसद एन. के प्रेमचंद्रन ने चर्चा में हिस्सा लिया. इन सभी सांसदों के भाषण में मुख्य ज़ोर मणिपुर हिंसा पर ही था. उसमें भी इन सांसदों ने मणिपुर की मौजूदा स्थिति को नियंत्रित नहीं करने के लिए केंद्र और प्रदेश दोनों सरकारों को जिम्मेदार ठहराया. अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान इन विपक्षी सांसदों के भाषणों कोशिश की गई कि मणिपुर की नाकामी को लेकर सीधे-सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कटघरे में खड़ा किया जाए.
सत्ता पक्ष के सांसद मणिपुर से बचते रहे
दूसरी ओर 8 अगस्त को अविश्वास प्रस्ताव के खिलाफ यानी मोदी सरकार के समर्थन में बोलने वालों में बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे, शिवसेना (शिंदे गुट) के सांसद श्रीकांत एकनाथ शिंदे, बीजेडी सांसद पिनाकी मिश्रा, बीजेपी सांसद और केंद्रीय मंत्री नारायण राणे, बीजेपी सांसद सुनीता दुग्गल, बीजेपी सांसद और केंद्रीय मंत्री किरेन रिजीजू, और निर्दलीय सांसद नवनीत राणा शामिल थे. चूंकि विपक्षी सांसदों के भाषणों में मुख्य ज़ोर मणिपुर पर था, तो उम्मीद थी कि मणिपुर को लेकर सरकार पर लगे आरोपों पर तथ्यों के साथ सत्ता पक्ष के सांसदों की ओर से पलटवार किया जाएगा. हालांकि लोकसभा में ऐसा नहीं दिखा.
सत्ता पक्ष की ओर से 8 अगस्त को जितने भी सांसदों ने बोला, उनमें से तकरीबन सभी मणिपुर के मामले से किनारा करते हुए नज़र आए. अगर मणिपुर पर बोले भी तो मौजूदा हालात पर नहीं बल्कि मणिपुर के इतिहास पर बोले. कम से कम विपक्ष की कुशल रणनीति का ही ये असर है कि पिछले 9 साल से ज्यादा वक्त से केंद्र की सत्ता को संभाल रहे मोदी सरकार के सांसदों को मणिपुर हिंसा से जुड़े आरोपों पर जवाब देते नहीं बन रहा है और उन्हें इतिहास की घटनाओं का सहारा लेना पड़ रहा है. उसमें भी तब, जब मणिपुर में भी मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह की अगुवाई में बीजेपी की सरकार है.
बीजेपी मोदी सरकार का नहीं कर पा रही बचाव
अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा की शुरुआत गौरव गोगोई ने की थी. वहीं सत्ता पक्ष से बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे सबसे पहले वक्ता थे. एक वक्त था जब बीजेपी में वैसे वक्ताओं का भरमार हुआ करता, जिनके बोलने से संसद में अलग ही प्रभाव पैदा होता था, चाहे वे सत्ता में रहे हों या विपक्ष में हों. लेकिन जिस तरह से बीजेपी की ओर से सबसे पहले निशिकांत दुबे बोलने आए, ऐसा लगा ही नहीं कि ये वहीं बीजेपी है. सत्ता पक्ष की ओर से सबसे ज्यादा केंद्रीय मंत्री किरेन रिजीजू बोले. वे खुद पूर्वोत्तर राज्य अरुणाचल प्रदेश से आते हैं, उनसे उम्मीद थी कि मणिपुर के वर्तमान हालात पर कुछ ठोस प्रकाश डालते हुए समाधान पर बात रखेंगे. हालांकि ऐसा नहीं हुआ. उन्होंने भी राजनीतिक और सरकारी जवाबदेही लेने और उस पर बात करने की बजाय अतीत का ही सहारा लिया.
राहुल गांधी का भी मणिपुर पर ही रहा फोकस
जब अविश्वास प्रस्ताव पर 9 अगस्त को चर्चा की शुरुआत हुई तो, माहौल या रणनीति में न तो विपक्ष की ओर से कोई बदलाव दिखा और नहीं सत्ता पक्ष की ओर से. विपक्षी सांसदों का मुख्य ज़ोर मणिपुर पर ही रहा, तो एनडीए और अविश्वास प्रस्ताव पर सरकार के पक्ष में खड़े दलों के सांसदों का फोकस सरकार की उपलब्धियां बताने पर रहा.
9 अगस्त को सबसे पहले कांग्रेस सांसद राहुल गांधी बोले. राहुल गांधी की 24 मार्च को लोकसभा सदस्यता खत्म हो गई थी. सुप्रीम कोर्ट से मानहानि मामले में कन्विक्शन पर रोक के बाद उनकी फिर से सदस्यता बहाली हुई है. इस वजह से सबकी निगाहें उनके भाषण पर टिकी थी. हालांकि अडाणी मामले पर तो राहुल गांधी नहीं बोले, लेकिन मणिपुर को लेकर राहुल गांधी पुराने तेवर में ही दिखे. उनका पूरा भाषण मणिपुर पर ही केंद्रित रहा. चूंकि हिंसा की शुरुआत के बाद वो मणिपुर का दौरा करके आए थे, तो उनके भाषण में वहां के लोगों का अनुभव भी शामिल रहा. उन्होंने मणिपुर में हिंसा को नहीं रोकने के लिए मोदी सरकार को जिम्मेदार ठहराया. उनका पूरा फोकस मणिपुर को लेकर प्रधानमंत्री मोदी और केंद्र सरकार के रवैये पर रहा.
स्मृति ईरानी मणिपुर के मुद्दे से बचते दिखीं
राहुल गांधी के बाद बीजेपी सांसद और केंद्रीय महिला और बाल विकास मंत्री स्मृति ईरानी को बोलने का मौका मिला था. आशा थी कि वे मणिपुर पर राहुल गांधी के आरोपों पर पलटवार करेंगी. महिला और बाल विकास मंत्री होने के नाते उनसे और ज्यादा उम्मीदें थी क्योंकि मणिपुर में पिछले 3 महीने में जो कुछ हुआ है, उसमें सबसे ज्यादा पीड़ित महिला और बच्चे ही रही हैं. 19 जुलाई को वायरल वीडियो से कोई भी अंदाजा लगा सकता है कि इस अवधि में मणिपुर में महिलाओं के साथ किस तरह से बर्बरतापूर्ण यौन उत्पीड़न हुआ होगा. इस तरह की घटनाओं में किस समुदाय का उत्पीड़न हुआ है और कौन सा समुदाय शोषक है, ये मायने नहीं रखता है. इस तरह की घटनाएं पूरे देश के लिए, पूरी मानवता के लिए शर्मनाक हैं.
इस वजह से भी महिला और बाल विकास मंत्री स्मृति ईरानी से उम्मीदें ज्यादा थी. हालांकि स्मृति ईरानी भी वही करती नजर आई, जो इससे पहले सत्ता पक्ष के बाकी सांसदों ने किया था. उन्होंने अपने भाषण में मणिपुर की महिलाओं और बच्चों के साथ हुए उत्पीड़न के बजाय मोदी सरकार की उपलब्धियां गिनाने को ज्यादा तवज्जो दिया. मणिपुर पर बोलने से वे कतराते रहीं.
प्रधानमंत्री के जवाब पर टिकी निगाहें
सदन में अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा को लेकर कमोबेश यही सिलसिला आगे भी जारी रहा. अब मणिपुर को लेकर सबकी उम्मीदें 10 अगस्त पर टिकी हैं, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा का जवाब देंगे. ये तो उस वक्त ही पता चलेगा कि मणिपुर की हिंसा की सरकारी जवाबदेही को लेकर प्रधानमंत्री क्या कहते हैं.
क्यों मणिपुर के मुद्दे से भाग रही है बीजेपी?
एक बात तो साफ है कि मणिपुर के मौजूदा हालात पर बोलने की बजाय सत्ता पक्ष का मुख्य ज़ोर पिछले 9 साल में सरकार की उपलब्धियों को बताने पर था. हालांकि इसमें कुछ ग़लत भी नहीं है. लेकिन जब संसद के सामने मणिपुर जैसा बेहद ही गंभीर और संवेदनशील मुद्दा हो, भले ही अविश्वास प्रस्ताव के बहाने उस पर चर्चा हो रही हो, तो ये सत्ताधारी पक्ष के सांसदों का दायित्व भी बनता है कि मौजूदा परिस्थितियों पर फोकस करते हुए उस पर सरकार का पक्ष रखें.
मणिपुर के सांसदों को मिलना चाहिए मौका
मणिपुर में लोकसभा की दो सीटें हैं. आर. के. रंजन इनर मणिपुर और आउटर मणिपुर से लोरहो एस. फोज़ सांसद है. आर. के. रंजन बीजेपी सांसद हैं और लोरहो एस. फोज़ नागालैंड पीपुल्स फ्रंट से सांसद हैं. यानी मणिपुर के दोनों लोकसभा सांसद सत्ता पक्ष से हैं. जब विपक्ष अविश्वास प्रस्ताव के बहाने मणिपुर का मसला सदन में उठा रहा है, तो उस रणनीति के काट के तहत मणिपुर के सांसदों को भी इस चर्चा में हिस्सा लेने का मौका सत्ता पक्ष को देना चाहिए था. जिस प्रदेश में पिछले 3 महीने से ज्यादा वक्त से हिंसा का दौर जारी है, वहां के बारे में वहां के सांसदों से बेहतर कोई और नहीं बता सकता है. अगर ऐसा होता तो ये संसद के साथ ही देश के लोगों के लिए भी मणिपुर के हालात को जानने और समझने का एक अवसर होता.
बीजेपी के लिए मणिपुर का मुद्दा है कमजोर कड़ी
दरअसल विपक्ष की अविश्वास प्रस्ताव की रणनीति से संसद में मणिपुर पर बीजेपी घिरी नज़र आ रही है. बीजेपी के सांसदों का लोकसभा में जो रुख दिखा, उससे जाहिर होता है कि वे खुद को मोदी सरकार का इस मसले पर बचाव करने में अक्षम पा रहे हैं. मणिपुर का मुद्दा बीजेपी और मोदी सरकार दोनों के लिए कमजोर कड़ी है. कुछ बातें ऐसी है, जिसका जवाब शायद सत्ता पक्ष के किसी सांसद के पास नहीं है.
ऐसे तो मणिपुर में तनाव का माहौल अप्रैल से ही बनना शुरू हो गया था, लेकिन 3 मई से हिंसा व्यापक होती गई. 3 महीने से ज्यादा का वक्त बीत चुका है. 150 से ज्यादा लोगों को जान गंवाना पड़ा, हजारों लोग बेघर हो गए. इस बीच वायरल वीडियो पर दिए गए बयान को छोड़ दें तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से मणिपुर हिंसा पर सार्वजनिक तौर से कुछ नहीं कहा गया है. इसके साथ ही इतने दिन होने के बावजूद अब तक प्रधानमंत्री मणिपुर नहीं गए हैं, जबकि इस बीच वे कई विदेश दौरा कर चुके हैं.
केंद्र-राज्य दोनों में बीजेपी सरकार
एक और पहलू है. मणिपुर में एन बीरेन सिंह की अगुवाई में बीजेपी की ही सरकार है. मणिपुर में मार्च 2017 से बीजेपी की सरकार है. यानी प्रदेश में 6 साल से ज्यादा वक्त से बीजेपी की सरकार है. साथ ही केंद्र में भी बीजेपी की अगुवाई में ही सरकार है.
जब 2017 में वहां विधानसभा चुनाव हो रहा था तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनावी जनसभा के दौरान कहा था कि मणिपुर की जो भी समस्या रही है, उसके पीछे एक बड़ा कारण प्रदेश और केंद्र अलग-अलग पार्टियों की सरकार होना है. इसी को आधार बनाकर उन्होंने उस वक्त मणिपुर की जनता से समर्थन मांगते हुए वादा किया था कि जब केंद्र और प्रदेश दोनों में बीजेपी की सरकार होगी, तो यहां की हर समस्या से मुक्ति दिलाएंगे. हालांकि पिछले 3 महीने से मणिपुर के लोग हिंसा की आग में झुलस रहे हैं और प्रधानमंत्री की ओर से सार्वजनिक तौर न तो एक बयान दिया गया है और न ही इस बीच वे मणिपुर गए हैं.
इन सारे पहलुओं की वजह से मणिपुर एक ऐसा मुद्दा हो गया है, जिस पर बोलना बीजेपी और मोदी सरकार के नुमाइंदों दोनों के लिए काफी मुश्किल हो गया. कांग्रेस समेत विपक्ष ने इसी कमजोरी को भांपते हुए लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव के जरिए मोदी सरकार को घेरने की रणनीति बनाई. अब तक के बहस से ऐसा लग रहा है कि विपक्ष इसमें कामयाब होते दिख रहा है.
उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं.