चंद्रशेखर कुशवाहा
एम.ए. के दौरान मेरा उससे परिचय हुआ था। मेरा एम.ए. पूरा होने वाला था। वह बी.ए. करके घर बैठ चुकी थी। खूबसूरत थी। मीठा बोलती थी। अपनी जात की थी। बहुत किचिर-पिचिर नहीं करती थी। सारी बातें मान लेती थी। ऐसी लड़की से प्रेम करने में लड़कों को बहुत सुभीता रहता है। बहुत बुद्धि लगाने वालियों से भला कौन प्यार करता है। मुझे भी सुभीते की जिंदगी चाहिए थी। कोई रिस्क न हो तो जीने में बड़ा आराम रहता है। दूसरी जात-धरम वालियों से इश्क फरमाकर रिस्क लेना कमअक्लों का काम है। मैं अपने हिसाब से बुद्धिमान था। आराम चाहता था। वही अच्छी लगने लगी थी मुझे। आए दिन कोई न कोई गजल उस पर कुर्बान कर देता। प्रोफेसर लोगों में से कोई न कोई कभी कभार कह ही देता कि बहुत बढ़िया गजल लिख रहे हो। मामला चल रहा है कहीं जरूर। एक प्रोफेसर के साथ मैं उनकी कार में था। वह पूछ बैठे कि आप किसी महिला मित्र के प्रेम में हैं या ऐसे ही लिखते रहते हैं। मैं इधर-उधर करके बात टाल देता था। क्या बताता। अपनी ही भावनाओं को नहीं समझ पाता था। वह भी नहीं जानती थी कि मैं उसे पसंद करता हूँ। आज भी नहीं जानती। उसका नाम छिपा रहा हूँ।
उसके पापा दूसरे गाँव के थे। छोटे किसान थे। मेरे पापा से भी कम जमीन थी। पेट चलाते थे। उसे पढ़ाते थे। इसलिए नहीं कि आगे चलकर अपने पैरों पर खड़ी हो जाएगी। इसलिए कि कोई अच्छा सा वर मिल जाएगा। उसका प्रवेश बी.ए. में करवाकर वह हर जगह वर खोजा करते थे। वर नहीं मिलता था। व्यापारी मिलते थे। लोग टेण्डर खोलकर बैठे रहते थे। तीन बेटियाँ और थी उनकी। उदास रहा करते थे। कभी कोई अच्छा भला लड़का मिलता तो उनकी आँखें चमक जाती। जानते मुझे पहले से ही थे। पर कोई खास बात नहीं थी मुझमें। कभी बाजार में मिलते तो पापा का हाल-चाल लेकर चलते बनते। इधर मैं जे.आर.एफ. हो गया तो मुझ पर ध्यान देने लगे। किसी ने कुछ बताया होगा उन्हें। बड़े सलीके से नाम लेकर पुकारने लगे थे मुझे। बाद में मैं पी-एच.डी. करने लगा तो उनकी आँखों की चमक दो गुनी हो गई। मुझे बेटा कहकर पुकारने लगे थे। कहते कुछ नहीं थे। बस पापा की हाल-चाल अधिक लेने लगे थे। पापा का नम्बर था उनके पास। बात करते थे उनसे। पर उनकी हाल-चाल मुझसे कुछ अधिक लेने लगे थे। वह फेसबुक नहीं चलाते थे। चला ही नहीं पाते थे। वह चलाती थी। फ्रैण्ड रिक्वेस्ट भेजा था मैंने। उसने स्वीकार भी किया था। पता नहीं मुझे पढ़ती थी कि नहीं। मेरी पोस्ट तो कभी लाइक नहीं की। नहीं ही पसंद करती रही होगी मुझे। वह बात, जो किसी के दिल में मोहब्बत सुलगा सके, मुझमे नहीं थी। आज भी नहीं है।
इधर मेरा uphesc में चयन हो गया। साक्षात्कार होना बाकी था। उसके पापा मेरे घर आने-जाने लगे। उसके पापा का नाम भी जानबूझकर छिपा रहा हूँ। जानता हूँ कि सब जानते हैं। फिर भी। दो बार मेरे कमरे पर भी आए थे। बहुत रहस्यमयी तरीके से। वह आए, तो बनियान और चड्ढा पहने था मैं। नख से शिख तक देखने का पूरा मौका था उनके पास। हम दोनों एक दूसरे की बातों से अनजान थे। मुझे उनकी लड़की पसंद है, यह वह नहीं जानते थे। उन्हें मैं पसंद हूँ, यह मैं नहीं जानता था। हम दोनों अपनी-अपनी आशाओं को दांव पर लगाकर जिंदगी का पानी पीटे जा रहे थे। फिर वह पापा से बात-चीत करते रहे। घर आते-जाते रहे। शादी की भूमिका बनती रही।
इधर हम दोनों को कुछ नहीं पता था। मैं साक्षात्कार की तैयारी में बिजी था। वह घर की चूल्हा-चौकी में। हमारे यहाँ एक आम रिवाज है। शायद आपके यहाँ भी हो। जिनकी शादी होती है, उन्हें बहुत मूर्ख माना जाता है। उन्हें कुछ भी नहीं आता। उनसे अपने जीवन साथी कि बारे में कोई राय नहीं ली जाती। वह विवाह नहीं कर सकते, इसलिए उनका विवाह कराया जाता है। हम दोनों के पापा ऐसे बात करते थे जैसे उन्हीं दोनों का विवाह हो रहा हो। इधर मेरा साक्षात्कार हो गया। दो दिन बाद होली के ठीक पहले परिणाम घोषित हो गया। लिस्ट में मेरा नाम नहीं था। मैं बुझ गया। बुझे मेरे पापा भी थे। पर उसके पापा तो एकदम से बुझ गए थे। होली के दिन वह हमारे घर नहीं आए। फिर वह अब तक तो नहीं ही आए हैं। पापा का हाल भी नहीं पूछते।
इधर मई में मेरे एक दोस्त की शादी थी। इंटरमीडिएट तक साथ ही पढ़े थे। बिरादर ही हैं हम दोनों। तीन साल पहले वह सिपाही हो गया था। अच्छा लड़का है। दोस्त था तो एक दिन पहले ही बुलाया लिया था। गया। काम करवाया। व्यवस्था पूरी हो गई तो हम दोनों साथ बैठे। उसने लड़की की फोटो दिखाई। वही थी। निहायत ही खूबसूरत। मैं अंदर से हिला पर बाहर से रोके रहा। दोस्त था, ताड़ गया। कहा कि बात-चीत के दौरान उसने कुछ बताया है। वह तुम्हें पसंद करती थी। तुम्हारा लिखा उसे बेहद पसंद है। तुम नौकरी करते तो आज तुम्हारी बारात होती। मैं दंग रह गया। यानी….यानी……धत तेरी की……। मैं थोड़ा बड़बड़ाया। नसीब को कोसा। पर फिर दोस्त की तरफ देखा। वह हल्के संकोच के साथ मुस्कुरा रहा था। बातों में थोड़ी चुहल घोलकर बोला- मैं तुम्हारी बारात में नाचता फिलहाल तुम मेरी बारात में नाचो। फिर कसकर गले से लगा लिया। मैं बारात गया। उसके पापा को देखा। कन्यादान के समय भी खुद बहुत सज-बज नहीं पाए थे। पर बाकी की तीन बेटियों को सजाकर मैदान में उतार दिए थे। मैंने सोचा-ऐसे बेबस और इनसेक्योर पापाओं के लिए तो सैकड़ों मोहब्बत हाथ से निकलती रहें, कोई गम नहीं। जमकर नाचा। खाया। अगले दिन बिदा लेकर कमरे पर इलाहाबाद चला आया। थीसिस पूरी करनी थी। मोहब्बत का क्या है, होती रहती है। उसको, उसके पापा को छिपाया तो दोस्त को भी छिपा रहा हूँ। पढ़कर अपने-अपने को सब समझ जाएंगे। पर मुझमें अपना नाम बताने का भी साहस नहीं है। इसलिए खुद को भी छिपा रहा हूँ। आप मुझे तलाशिएगा। तलाशिएगा मुझे।