दीपेंद्र सिवाच
ऑल इंडिया रेडियो देहरादून में कार्यरत
उसे इस मझोले शहर में आए लगभग दो महीने हो चले थे और वो अब कुछ कुछ सहज होने लगा था। एक तो इस शहर में भी बहुत कुछ वैसा ही था जैसा उसके छोटे से शहर में था जिससे वो बावस्ता होता आया था। बाकी जिन चीजों से शुरुआती दिनों में वो असहज होता था उनको भी उसके दिलो दिमाग ने अब स्वीकार करना शुरू कर दिया था। अब कम से कम वे चीज़ें उसे उस तरह से डराती या अचंभित नहीं करती थीं जैसे शुरू शुरू में करती थीं। विशालता और भव्यता अब कम से कम उसे अचरज में नहीं डालती थी बल्कि वे उसमें उत्सुकता जगाने लगी थीं। साथ ही भव्यता और विशालता के भीतर के खोखलेपन से भी उसका धीरे धीरे परिचय हो रहा था। वो अब समझ पा रहा था कि चमकने वाली हर चीज सोना नहीं होती है। उसे समझ में आने लगा था हर बड़ी चीज से आक्रांत होने की ज़रूरत नहीं है। अब विश्वविद्यालय में प्रवेश करने पर उसके दिल की धड़कन उस तरह से असामान्य नहीं हो जाती थी जैसे शुरू में होती थी। उल्टे कई बार तो वे चीजें उसे रुचने लगी थीं। कुल मिलाकर उसके लिए चीजें सहज होती जा रही थीं और ज़िंदगी व्यवस्थित।
लेकिन ज़िन्दगी होती ही ऐसी है। जब जब ये लगता है कि सब कुछ व्यवस्थित होता जा रहा है उसी समय बहुत कुछ ऐसा भी चल रहा होता है जो फिर फिर ज़िन्दगी को असहज ही नहीं करता जाता है बल्कि ज़िन्दगी में बेचैनी भी भरता जाता है। वो अभी शहर को समझने की कोशिश कर रहा था। अपने आस पास की चीजों से उसकी पहचान बन रही थी। और इस बीच उसका वास्ता एक ऐसी चीज से पड़ा जिसने उसको एक अलग ही तरह की बेचैनी से भर दिया था। ये एक जादू था। लोग इसे काला जादू कहते थे। लोगों का मानना था ये दरअसल बंगाल का काला जादू है। इस जादू की व्याप्ति शहर भर में थी। शहर में जहां कहीं भी वो जाता उसे अपने ऊपर इस जादू का असर होता लगता और हर बार सम्मोहित सा लौटता। ये जादू उसके मन मष्तिष्क पर छाया रहता। हालांकि लोग इसे काला कहते पर उसे हमेशा लगता कि ये जादू इस कदर स्याह भी नहीं है। बल्कि उसे लगता कि इसका रंग तो साँवला है। इस रंग में फैली अजीब सी कशिश उसे अपनी और खींचती। वो जब भी इस जादू से बावस्ता होता उसे हर बार उस रंग का एक अलग शेड महसूस होता। किसी एक रंग के इतने ज्यादा शेड्स भी हो सकते हैं ये उसे अब पता चला था। कि हर बार एक नया शेड देख वो अचंभित हो जाता।
निसन्देह ये वाला जादू उस जादू सा तो नहीं था जैसा उसकी कल्पना में था और उसके बारे में यहां आने से पहले उसने पढ़ा सुना था। वो जब से यहां आया था हर बार जादू की एक नई आकृति, एक नया रूप देखने को मिलता। जब भी वो जादू से होकर गुजरता उसे महसूस होता कि वो जादू एक खास किस्म के आभिजात्य से दमकता है। ये शायद उस जादू की अपनी सुदीर्घ और समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा और विरासत से आता जिसे वो जतन से सहेजता आया था। वो उसे ज्ञान के प्रकाश से आलोकित सा लगता। उसे आश्चर्य होता जादू ऐसा भी हो सकता है। पर सच यही था। जो कुछ साक्षात दीख रहा था वो झूठ तो नहीं हो सकता था। उसके भीतर की बेचैनी बढ़ती जाती।
उसे उसमें सांझ की सी छाया दिखाई देती। उस जादू में भी सांझ की सी ही आतुरता होती। दिन को अपने में समेट लेने की। अपने से बांध लेने की। दिन के अस्तित्व को समाप्त कर खुद में समाहित कर लेने की। दिन पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लेने की ऐसी उत्कट उत्कंठा। उसे विश्वास नहीं होता। उसे एक और बात भी सालती। उसे जादू के हर शेड में,हर रूप में एक उदासी पसरी दिखाई देती। उसकी खूबसूरत मुस्कुराहट और खनकदार हंसी के बावजूद वो उदासी छिप नहीं पाती। लगता ये उदासी मानो उसका अंतरनिहित गुण हो।
वो उदासी उसे बेचैन करती। वो अक्सर उस उदासी के बारे में सोचता। उसे लगता कि जादू में जो स्याहपन है शायद उसी से ये उदासी है। उसे लगता वो जादू भी अपने प्रभाव में आने वाले व्यक्ति को उसी तरह अपने में समेट लेना चाहता है जैसे सांझ दिन को खुद में समेटकर उसकी चमक से अपने स्याहपन को दूर करना करना चाहती है। पर ऐसा कहीं होता है क्या! नहीं ना! सांझ की नियति तो स्याह रात में तब्दील हो जाने की होती है। सांझ तो दिन का अंत है ना। क्या जादू भी यही सोचकर उदास होता है कि वो भी किसी का अंत है। पर वो ये क्यूं नहीं सोच पाता कि सांझ हर रात की सुबह भी तो होती है। वो ये क्यों नहीं सोच पाता कि वो अंत नहीं आरंभ है। आरंभ एक खूबसूरत रात का। वो जादू दिन की चमक के पीछे के स्याह को क्यों नहीं देख पाता। क्यों नहीं देख पाता रोशनी के पीछे अंधेरे को। क्यों दिन भर की भागम भाग,आपा धापी,छल कपट,प्रवंचना का भान उसे नहीं होता। और फिर ये भी कि क्यों उसे रात के पीछे का उजाला नज़र नहीं आता। रात्रि का सुकूँ और असीम शान्ति महसूस नहीं होती। क्यों सिर्फ स्याह रंग के कारण उदासी को एक स्थायी भाव बना लिया। पर उसे तो जादू की वो उदासी भी सुहाने लगी थी। उसे वो उदासी जादू के चेहरे पर नज़र के किसी टीके सी लगने लगी थी। निसंदेह जादू का सम्मोहन अब गहरा होता जा रहा था ।
वो उस दिन भी रोज़ की तरह ही विश्वविद्यालय गया था। उस दिन भी चमकदार दोपहर में दो विभागों के मध्य वाली सड़क से होता हुआ वो अपने विभाग की ओर जाने का उपक्रम कर ही रहा था कि उसे महसूस हुआ कि वो जादू वहां पसरा हुआ है और वो उसके सम्मोहन में बंधा जा रहा है। इस बार जादू का असर बहुत गहरा था। वो मदहोश सा हुआ जा रहा था। अब वो एक स्वप्नलोक में था। उसे दिखाई दे रहा था जादू एक आकृति में तब्दील हो रहा है। एक नए शेड में। बादल के किसी आवारा टुकड़े सा। जो आसमान में उन्मुक्त विचरण कर रहा हो। उस झुलसा देने वाली धूप में उसे अहसास हुआ काले बादल का खूबसूरत सा टुकड़ा उसी की तरफ बढ़ा आ रहा है। पास आते ही जो उसके अहसासों पर छा गया। तीखी धूप की तपिश कहीं बह गई हो। उसे लगा वो रुई सा हल्का हो गया है और आसमान में उड़ने लगा है। उसे महसूस हुआ ये उस जादू का सबसे खूबसूरत शेड है। उसकी नाक पर एक ऐनक थी। उसका चेहरा थोड़ा सा ऊपर उठा हुआ था। शायद इसी वजह से उसकी ठोढ़ी उसकी नाक से भी थोड़ी आगे निकली हुई थी। पहली नज़र में उसे लगा कि उसके नाक और कान उसके ऐनक का बोझ संभाल नहीं पा रहे हैं। इसीलिए ये मुँह उसने थोड़ा ऊपर किया हुआ है। कहीं ऐनक गिर ना जाए। पर अचानक ‘वो’ ने गर्दन घुमाई और उसकी तरफ देखा। उसे लगा समय रुक गया है। उसने ‘वो’ की आँखों में झांका था। वे आंखें उम्मीद की रोशनी से लबालब थीं। उस रोशनी में अनगिनत सपने दिखाई दे रहे थे। वे सपने उस रोशनी के समंदर में मछलियों से तैर रहे थे। तब उसे समझ आया कि उसने मुँह ऐनक थामने के लिए नहीं बल्कि अपने सपनों को आंखों से छलक जाने से रोकने के लिए ऊपर किया हुआ है। वो जानती थी अपने सपनों को बचाने की कीमत चुकानी पड़ सकती है। जब आपकी निगाहे आसमां पर होती हैं जो जमीं कहां दिखाई देती है। पर उसे अपने सपने बचाने की एवज में हर ठोकर मंज़ूर थी। अगर कुछ मंज़ूर नहीं था तो बस बिना सपनों वाली आंखें।
जादू ने उसको देखा । उसने जादू को देखा। दोनों की नजरें मिली। मिली और वे फिर फिर मिलने लगी। मिलती रही। मिलकर एक हो गई। सपने उसकी भी आंखों में थे। दोनों के सपने अब साझा हो गए थे। दिन गुज़रने लगे। जादू के इस शेड के बाद उसे कभी और शेड नहीं दिखाई दिया। ये अल्टीमेटम जो था शायद इसलिए। ये शेड उसकी आत्मा में समा गया था। अब समय उड़ने लगा। मानो हाथ ही ना आता। हज़ार दिन बीते । फिर और ज़्यादा दिन बीते।
फिर एक दिन अचानक। उस दिन उसने देखा कि जादू का मुँह कुछ और ऊंचा है। ठोड़ी कुछ और आगे बढ़ गई है। जमीं कुछ और ज़्यादा छूट गयी है। सपने कुछ और ज़्यादा और बड़े हो गए थे। आसमान जितने शायद। उसकी पहुंच से दूर। जादू उस दिन उसके पास नहीं बल्कि पास से गुजरने को हुआ कि ठोकर लगी। अचानक उसके हाथ सामने आ गए। उसे लगा वो जादू की ऐनक को और उसके पीछे के अनगिनत सपनों को थाम लेगा।बिखरने से, टूटने से बचा लेगा।पर… पर… वहां वहां कुछ भी तो नहीं था। ना सपने। ना जादू। ना जादू का वो सबसे खूबसूरत शेड। वहां एक शून्य था। उसका सम्मोहन खत्म हो गया। जादू गायब हो गया था। खुरदरी ज़मीन थी। कुछ सूखी मटमैली घास पैरों के नीचे पैरों में चुभ रही थी और बस कुछ अनचाहे अहसास दिल में। जो उसे अहसास करा रहा था कि जादू कुछ नहीं होता। एक गहरी उदासी थी। कुछ गीलापन था। कुछ टीसें थीं। उस दिन उसने अपनी डायरी दर्द दर्ज़ किया
‘क्लासरूम में
कभी ख़त्म ना होने वाली
हमारी बातों के बीच
वो अनकहा
और पलास के सिंदूरी दहकते फूलों से लदे पेड़ों के नीचे टहलते हुए
हमारी लम्बी खामोशियों के बीच
बहुत कुछ कहा गया
सीनेट हाल के कॉरीडोर में तैरती हमारी फुसफुसाहटें
और चबूतरे पर बैठकर गाये गीतों की हमारी गुनगुनाहटें
आनंद भवन के सीढ़ीनुमा लॉन पर
गूंजती हमारी खिलखिलाहटों से
मिलकर बनी
गुलाब के अनगिनत रंगों की मौज़ूदगी में
अनजाने लोगों के होठों पर तैरती रहस्यमयी मुस्कान
और उनकी आँखों की चमक से
साहस पाती हमारी कहानी
बन चुकी थी प्रतिरोध का दस्तावेज
जिसे जाना था संगम की ओर
मिलन के लिए
पर पता नहीं
क्या हुआ
क्यों बहक गए तुम्हारे कदम
और चल पड़े कंपनी बाग़ की तरफ
जहाँ ब्रिटेन की महारानी की तरह
तुम्हें करनी थी घोषणा
एक युग के अंत की
ताकि सध सके तिज़ारत का बड़ा मुक़ाम।’
ये जादुई कथा का उपसंहार था।
समय का बहाव तेज होता है। उसमें सब बह जाता है। जादू की वो कहानी भी बह गई। पर वो लम्हा, जिससे उस जादुई कथा की शुरुआत हुई थी,समय की नदी के बहाव से किसी बूंद की तरह अलग हो उसकी स्मृतियों के बियावान में एक बिरवे की तरह हमेशा हरा खड़ा रहा।
लम्हे_जो_समय_के_बहाव_छूट_गए