गौरव अवस्थी
प्रथम स्वाधीनता संग्राम में अंग्रेजों को नाकों चने चबाने वाली झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के साहस शौर्य और बलिदान को हमेशा ही याद किया जाता है। दक्षिण ब्राहमण विष्णु भट्ट गोडसे वरसाईकर ने मराठी में लिखी अपनी पुस्तक ‘माझा प्रवास’ में ग़दर का आंखों देखा इतिहास लिखा है। इस पुस्तक का हिंदी में अनुवाद चर्चित लेखक अमृतलाल नागर ने ‘आंखों देखा गदर’ शीर्षक पुस्तक में किया है। यह किताब झांसी राज्य और रानी लक्ष्मी बाई के संघर्ष को विस्तार से जानने वालों के लिए बहुत उपयोगी है।
आज 165वें बलिदान दिवस पर झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के कुछ अनछुए पहलुओं को जाना-समझा जाना जरूरी है। मात्र 4 वर्ष की अवस्था में मां की छाया से महरूम होने वाली सबकी प्यारी-दुलारी ‘छबीली’ के लक्ष्मीबाई बनने की कथा सब जानते ही हैं। लाड़-दुलार से बेटी को पाल-पोस कर बड़ा करने वाले पिता मोरोपंत तांबे ब्रह्मावर्त के श्रीमंत की होमशाला के ऋत्विज के शिष्य स्वरूप थे। लक्ष्मी बाई नाना साहब पेशवा के साथ ही बचपन में खेला करती थीं। पुरुष खेल खेलने से ही उनमें पुरुषोचित गुण भी पनप गए। झांसी के राजा गंगाधर राव की पत्नी के निधन के बाद मोरोपंत तांबे के पास विवाह का प्रस्ताव आया। विवाह पश्चात वह भी झांसी राज्य में ही आकर रहने लगी। रहने के लिए उन्हें हवेली दी गई।
अंग्रेज सरकार से अनबन के बाद हुए युद्ध के 11वें दिन पराजय के बाद रानी लक्ष्मीबाई के अपने विश्वासपात्र सरदारों, सैनिकों और दासी मंदरा के साथ कालपी की तरफ कूच करते समय गोरों से युद्ध हुआ। उनकी सेना तितर-बितर हुई। पिता मोरोपंत तांबे भी अलग-थलग पड़े। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के शौर्य गाथा तो खूब गाई जाती है लेकिन पिता मोरोपंत तांबे के शौर्य की चर्चा इतिहास में बहुत कम ही हुई है। मोरोपंत ने भी रानी लक्ष्मी बाई के साथ झांसी छोड़ते वक्त अंग्रेज सरकार के सैनिकों से भयंकर युद्ध किया था। तलवार से एक पैर कट जाने के बावजूद वह 20 किलोमीटर तक घोड़े पर सवारी करते हुए दतिया तक पहुंचे। दतिया के गद्दार राजा ने उन्हें अंग्रेज सरकार के हवाले कर दिया। अंग्रेज सरकार ने उन्हें सरकारी हवेली के सामने ही फांसी पर लटका दिया था।
युद्ध का आंखों देखा हाल लिखने वाले विष्णु भट्ट गोडसे लिखते हैं -‘ उस रात लक्ष्मीबाई के पिता मोरोपंत तांबे का पैर किसी शत्रु पक्ष की तलवार के वार से कट गया। फिर भी वो वैसे ही घोड़े की रकात पर मार देकर घोड़ा दौड़ते हुए दतिया तक पहुंच गए। सारा शरीर खून से लथपथ था। कपड़े लाल हो गए थे। उस रात ब्राह्मण का शरीर जवाब दे रहा था। मोरोपंत तांबे ने रुपए होकर शहर के फाटक के पास गए। वहां एक तंबोली अपनी दुकान लगाए बैठा था उसे देखकर वह किसी तरह घोड़े पर से उतरे और उस तंबोली को कुछ मोहरे देकर शरण मांगी। तंबोली ने मोरोपंत को अपने घर में लाकर रखा और उसके बाद राजा से जाकर सारी बात बता दी। दतिया राजा के लोग आकर मोरोपंत को पकड़ ले गए बाद में दतिया वाले राजा ने उन्हें अंग्रेज सरकार के हवाले कर दिया। अंग्रेज सरकार उन्हें डोली पर लादकर झांसी लाई और सरकारी हवेली के सामने उन्हें फांसी दे दी गई।
युद्ध के बीच लक्ष्मीबाई का वह स्वप्न: शकुन या अपशकुन?
विष्णुभट्ट लिखते हैं-‘ अंग्रेजी सेना से युद्ध में खुद ही मोर्चा संभालने वाली रानी लक्ष्मीबाई थक कर चूर हो रहीं थीं। आठवें दिन लालू भाई देकरें और भैया उपासने ने सलाह दी कि राव साहब की ओर से जल्दी सहायता आ जाए, इसलिए गणपति के मंदिर में अनुष्ठान बैठाया जाए। लक्ष्मीबाई ने मंजूरी दे दी। दीवान खाने में थोड़ी देर के लिए लेटने गई लक्ष्मी बाई ने तभी एक सपना देखा-‘एक गौर वर्ण की मध्यम वय की रूपवती स्त्री खड़ी है। उसकी नासिका सीधी, कपाल प्रशस्त, नेत्र काले और विशाल शरीर पर मोती के अलंकार, लाल रंग की साड़ी और रेशमी चोली पहने हुए आंचल से कमर को कस कर किले के बुर्ज पर खड़ी है और बड़ी कठोर मुद्रा के साथ तोप के लाल-लाल गोले फैला रही है। गोले फैलाते-फैलाते उसके हाथों में काले-काले ठिक्कर पड़ गए हैं। बाई साहब को दिखाकर उसने कहा मैं अभी यह गोले फैला रही हूं।’ सपना देखते ही बाई साहब अचकचाकर उठ बैठीं और सबको यह सपना सुनाया। सभी को आश्चर्य हुआ।
गोरों ने घास के गट्ठरों पर चढ़कर जीता झांसी का किला
विष्णु भट्ट लिखते हैं -युद्ध के 11वें दिन एक भेदिए ने रानी लक्ष्मीबाई को आकर खबर दी कि दो-ढाई लाख रुपयों का गोला बारूद खर्च करके भी अंग्रेज सरकार को विजय मिलती दिखाई नहीं दे रही। उनका गोला बारूद भी अब चुक गया है। कल पहर भर लड़ाई लड़ने के बाद उनका लश्कर उठ जाएगा। यह खबर सुनकर लक्ष्मीबाई उस रात दो बजे के लगभग निश्चिंत होकर गहरी नींद में सो गई। पौ फटने के समय शहर के दक्षिण बाजू की तोप बंद हो गई। यह खबर मिलने पर रानी हड़बड़ा कर उठीं। तब तक देर हो चुकी थी। अंग्रेजों ने शहर पर कब्जा कर लिया था। विष्णु भट्ट लिखते हैं कि छठी मंजिल पर जाकर मैं खुद नजारा देखने लगा। देखा कि हजारों मजदूर सिर पर घास के गट्ठर लेकर आगे-आगे थे और पीछे-पीछे गोरे सिपाही किले की दीवार पर चढ़े चले आ रहे थे। मजदूरों ने घास के गट्ठर एक पर एक फेंककर सीढ़ी सी बना दी और गोरे सिपाही किले पर चढ़ आए। उसी के बावजूद में पराजय का रास्ता साफ हो गया।
अश्व परीक्षा में अद्वितीय थी लक्ष्मी बाई
विष्णु भट्ट के मुताबिक, हिंदुस्तान (मराठा क्षेत्र के लोग गदर के समय उत्तर भारत को इसी नाम से पुकारते थे) में अश्व परीक्षा में तीन ही आदमियों का नाम लिया जाता था। नाना साहब पेशवा दूसरे बाबा साहब आपके ग्वालियर वाले और लक्ष्मी बाई झांसी वाली। उन्होंने लिखा है-‘ एक दिन एक सौदागर दो घोड़े लेकर आया। घोड़े देखने में बड़े सुंदर, गठे हुए और चतुर थे। लक्ष्मीबाई ने दोनों पर सवारी की और चक्कर लगाकर एक की कीमतों 1000 ठहराई और दूसरे की 50। उन्होंने कहा कि दूसरा घोड़ा देखने में तो बहुत उम्दा और चतुर लगता है लेकिन उसकी छाती फूटी हुई है। इसलिए वह निकम्मा है। उसी समय सौदागर ने लक्ष्मीबाई की कुशलता की तारीफ करके यह कबूल किया कि इस घोड़े को मैंने उत्तम मसाले देकर दिखाऊ बनाया है। इसकी परीक्षा के लिए मैं जगह-जगह घूमा लेकिन उनकी कीमत न हो सकी। लक्ष्मी बाई ने वह दो घोड़े ठहराई हुई कीमत पर खरीद लिए और सौदागर को बख़्शीश देकर विदा किया। ‘माझा प्रवास’ में ही लिखा गया है कि युद्ध में पराजय के बाद लक्ष्मीबाई जिस घोड़े पर सवार होकर कालपी के लिए निकली थीं वह एकदम सफेद था और ढाई हजार रुपए में खरीदा गया था। राजरत्न के समान ही उसका राज्य में आदर था। उस घोड़े पर बैठकर पीछे रेशमी दुपट्टे में अपने 12 वर्ष के दत्तक पुत्र को बांधकर वह किले से कूच की थीं।
वृद्ध सरदार के कहने पर लक्ष्मीबाई ने आत्महत्या का विचार त्यागा
अंग्रेजी सेना ने शहर में मारकाट मचा रही थी। झांसी के हलवाई पूरा में आग लगा दी गई। चीख-पुकार रोना पीटना सुनकर लक्ष्मीबाई का हृदय द्रवित हो गया। उन्होंने सोचा कि मैं महापातिकी हूं। दीवान खाने में सब लोगों को बुलाकर उन्होंने कहा कि मैं महल में गोला बारूद भरकर इसी में आग लगाकर मर जाऊंगी। आप लोग रात होते ही किलो को छोड़कर चले जाएं और अपने प्राण की रक्षा के उपाय करें। एक वृद्ध सरदार उन्हें दीवान खाने में ले गया और समझाया कि आप शांत हो जाए ईश्वर ही शहर पर यह दुख लाए हैं मनुष्य उसका कोई इलाज नहीं कर सकता आत्महत्या करना बड़ा पाप है। दुख में धैर्य धारण करके गंभीरतापूर्वक सोचना चाहिए। इसके बाद उन्होंने आत्महत्या का विचार त्याग दिया और रात में ही कालपी की ओर कूच करने का निर्णय लिया था।
बलिदान दिवस पर रानी लक्ष्मीबाई को कोटि-कोटि नमन!