मां कभी रोती नहीं थी,
कभी झगड़ती नहीं थी,
कभी ज़िद नहीं करती थी,
कभी अड़ती नहीं थी,
मां तो सतयुग आरंभ वाले दिन ही पैदा हुई थी,
धरती पर गंगा के अवतरण वाले दिन l
अक्षय तृतीया
इस दिन का बहुत भार था माँ पर
अक्षय क्या था उसके पास सिवाय दुखों के…
मां बहुत संस्कारी थी
पर यह किसी ने कभी नहीं कहा
हां! मां बहुत वाचाल थी, मां खुलकर हंसती थी
तो सबको चुभती थी
अपने त्रास को छिपाने के लिए या बस यूं ही रौब जमाने के लिए
थोड़ा सा बहुत थोड़ा सा झूठ बोल दिया करती थी
मां के अभिमान को जब-जब रौंदा जाता
उसके गल्प को जब जब पकड़ा जाता
मां पान में सुपारी और ज़र्दा थोड़ा ज्यादा डालती थी
सारे अपमान का गरल पी जाती थी पान के पीक में
मां दुर्वासा की पत्नी थी और आप ही श्रापित शकुंतला भी
सीता सा नाम था उसका और द्रौपदी सी हारी हुई वनवासिनी
बाद में गांधारी भी बनी रही कई सालों तक
नहीं-नहीं मां हरिश्चंद्र की संतति रही हो शायद…
तभी तो होती रही मां के सच झूठ की परीक्षा आजीवन
तब मां का भगवान रसोई घर में रहता था
मां के भगवान को आँसू पसंद थे
पर माँ धुँए के बहाने भी कभी रोती नहीं थी
बस फरियाद करती थी
मां किसी की ख्वाहिश नहीं थी, किसी की इल्तिज़ा भी नहीं थी
मां के साथ क्यों नहीं बनवाई किसी ने रोटियां?
क्यों नहीं धुलवायीं किसी ने उसके साथ कपड़े, चादर और रजाई की खोलियां?
प्रवासी पिता के दौरों के दौरान औलादों वाली मां क्यों सोती रही अकेली सालों साल?
हां मां श्रापित थी
तभी तो उसकी तेल लगाती उंगलियां स्नेहिल लगने के बजाय खराश लगातीं थीं
उसके पोरों की खरखराहट से भाग जाना चाहते थे
सभी बच्चे उसकी पकड़ से
जमा हुआ वक़्त अब पिघलने लगा है
मां का हाथ भी अब मुलायम लगने लगा है…
मां अब लड़ने लगी है, और चिल्लाने भी
ठेसरे भी करती है,अभिमान भी
श्राप भी देती है और गालियां भी
कभी-कभी कुछ बड़बड़ाती भी है माँ
अकेले में सोते सोते बहुत डर जाती है मां
मां का अब कोई रसोईघर नहीं है
कोई भगवान नहीं है
मां की अब कोई प्रार्थना नहीं है
डॉक्टर कहते हैं मां की इस बीमारी का कोई इलाज भी नहीं है l
गति उपाध्याय
(स्वतंत्र टिप्पणीकार)