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विपक्षी दलों की भरमार पर भारी पड़ सकता है भ्रष्टचार के खिलाफ NDA सरकार का वार

Jitendra Kumar by Jitendra Kumar
18/07/23
in मुख्य खबर, राष्ट्रीय
विपक्षी दलों की भरमार पर भारी पड़ सकता है भ्रष्टचार के खिलाफ NDA सरकार का वार
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नई दिल्ली : राजस्थान में कांग्रेस अंतर्कलह से उबर नहीं पा रही है। महाराष्ट्र में एनसीपी दो फांक हो गई है। शिवसेना (उद्धव गुट) और आम आदमी पार्टी समान नागरिक संहिता (यूसीसी) के सवाल पर दूसरे विपक्षी दलों से अलग मत रखती हैं। बीएसपी की मायावती, टीआरएस से बीआरएस बनी पार्टी के नेता केसी राव, एआईएमआईएम के असदुद्दीन ओवैसी, आंध्र प्रदेश में वाईएसआर कांग्रेस के जगन मोहन रेड्डी, जेडीएस के कुमार स्वामी; ये कुछ ऐसे नाम हैं, जिन्हें विपक्षी एकता की मुहिम से कोई लेना-देना नहीं। पहले के 15 से बढ़ कर अब 26 पार्टियों के साथ का दावा करने वाले यूपीए के नेता भले इतराएं कि कामयाबी अब चरण चूमने वाली है, लेकिन सच यह है कि दलों की भीड़ जब तक जनता के दिलों से खुद को नहीं जोड़ पाती है, तब तक कामयाबी की कल्पना कोरी ही रहेगी।

पहली बार घटी है एनडीए के साथी दलों की संख्या

साल 2014 में बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए में 29 पार्टियां शामिल थीं। साल 2019 में यह संख्या बढ़ कर 41 तक पहुंच गई थी। अगले साल यानी 2024 में होने जा रहे लोकसभा चुनाव के लिए एनडीए का जो नया स्वरूप सामने अब तक आया है, उसमें सिर्फ 19 दलों का दावा किया गया है। लोकसभा के दो चुनावों में एक बात साफ रही है कि एनडीए में साथी दलों की संख्या बढ़ने का सर्वाधिक लाभ बीजेपी को मिला है। बीजेपी को 2014 के लोकसभा चुनाव में 282 सीटें मिली थीं, जो 2019 में साथी दलों की संख्या बढ़ने से 303 तक पहुंच गईं। इस बार एनडीए में साथी दल 2014 से भी कम रह गए हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि 2024 में बीजेपी का क्या होगा ?

एनडीए फॉम्युले की नकल तो नहीं कर रहा यूपीए?

पहली नजर में तो यही लगता है कि यूपीए अपने प्रतिद्वंद्वी यूपीए की नकल कर रहा है। बिहार में प्रयोग के तौर पर शुरू में तीन दलों के महागठबंधन (आरजेडी, जेडीयू और कांग्रेस) और बाद में 6 दलों के महागठबंधन (आरजेडी, जेडीयू, सीपीआई, सीपीएम, भाकपा- माले, कांग्रेस) को मिली सफलता को राष्ट्रीय स्तर पर रिपीट करने करने का विपक्षी दल प्रयास कर रहे हैं। इसकी शुरुआती कोशिश में ही 15 दल एकजुट हो गए थे। अब तो 26 दल साथ आ गए हैं। यानी यूपीए अपना कुनबा बढ़ा कर वोटों का ध्रुवीकरण करना चाहता है। एनडीए का नेतृत्व करने वाली बीजेपी ने साथी दलों के प्रति सीटों से लेकर मंत्री बनाने तक साधे रखा। यही उसकी सफलता का राज भी रहा है। कालांतर में कई दलों ने किनारा कर लिया, लेकिन जिस तरह शिरोमणि अकाली दल, टीडीपी और जेडीएस जैसे दलों का बीजेपी की ओर रुझान बढ़ा है, उससे एक बात तो साफ है कि उन्हें एनडीए में रह कर ही मजा आया होगा।

एनडीए में साथी बढ़े तो बीजेपी का वोट शेयर बढ़ा

पिछले दो लोकसभा चुनावों का अध्ययन करें तो पता चलता है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी का कुल वोट शेयर 37.4 प्रतिशत था। यह 2014 के चुनाव में 31.34 प्रतिशत रहा था। यानी 29 साथियों को लेकर चुनाव लड़ने पर बीजेपी का वोट शेयर 2014 में जितना था, 2019 में 41 साथियों के कारण उसके वोट शेयर में 6 प्रतिशत से अधिक की बढ़ोतरी हुई। एनडीए की बात करें तो 2019 में एनडीए का वोट शेयर 45 प्रतिशत था, जो 2014 में 38 प्रतिशत था। यानी एनडीए के वोट शेयर में 7 प्रतिशत की वृद्धि हुई। साथी दलों की संख्या 29 से 41 होने के बावजूद बीजेपी के अकेले वोट शेयर के मुकाबले 41 दलों वाले एनडीए के वोट शेयर में 6-7 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि नहीं हुई। संभव है कि बीजेपी ने अभी एनडीए के जिस स्वरूप का ऐलान किया है, उसमें अभी कई और दल शामिल होने वाले हैं, जिन्हें रणनीतिक ढंग से बीजेपी ने अभी जाहिर नहीं किया है।

बीजेपी के कई अघोषित साथी भी उसके मददगार हैं

ओड़िशा में बीजू जनता दल के नेता सीएम नवीन पटनायक कभी किसी गठबंधन का हिस्सा नहीं बनते, लेकिन अब तक का आकलन यही रहा है कि वे बीजेपी के कई मौकों पर मददगार बने हैं। आंध्र प्रदेश के सीएम वाईएसआर कांग्रेस के जगन मोहन रेड्डी भी मौके-बेमौके भाजपा का साथ देते रहे हैं। तेलंगाना के सीएम केसी राव तो अपनी डफली अपना राग वाले हैं। कर्नाटक में जेडीएस ने बीजेपी का साथ दे दिया तो लोकसभा के परिणाम चौंका सकते हैं। महाराष्ट्र में शरद पवार फिलहाल आधी अधूरी एनसीपी के अध्यक्ष हैं। मसलन उनकी पार्टी के ज्यादातर विधायक-सांसद अब एनडीए में साझीदार बन गए हैं। शिवसेना को एकनाथ शिंदे ने भाजपा की मर्जी पर छोड़ दिया है। यूपी में ओपी राजभर के साथ आने से पूर्वांचल में एनडीए को मजबूती मिली है। माफिया मुख्तार अंसारी के विधायक बेटे अब्बास अंसारी राजभर की पार्टी से जीते हैं। राजभर के एनडीए में जाने से वे स्वतः एनडीए का हिस्सा बन गए हैं। यानी बीजेपी की पसमांदा पोलिटिक्स की कामयाबी का पहला रुझान भी सामने आ गया है। बीएसपी सुप्रीमो मायावती फिलहाल न इधर हैं और न उधर, लेकिन जरूरत पड़ने पर वे भाजपा का ही साथ देंगी, इसलिए कि बीएसपी को यूपीए में कोई पूछ ही नहीं रहा। ऐसे में बीजेपी के इस बार भी मैदान मार ले जाने में कोई संदेह नहीं है।

अतीत के अनुभव से भी यूपीए को सीख लेना चाहिए

साल 2019 में भी यूपीए की ऐसी ही तस्वीर बनी थी। ऐन वक्त तस्वीर पर कालिख की बूंदे टपक पड़ीं। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और आरएलडी ने साथ चुनाव लड़ा। कांग्रेस को तो कोई साथी ही नहीं मिला। बिहार में भी आरजेडी और कांग्रेस ने साथ चुनाव लड़ा था। तब 40 में 39 सीटें बीजेपी की झोली में चली गईं। आरजेडी का खाता ही नहीं खुला। बंगाल में ममता बनर्जी को राहुल के नेतृत्व पर एतराज था। यानी लोकसभा चुनाव आते-आते एकता का तानाबाना बिखर गया था।

एनडीए के पास हथियार, विपक्षी नेताओं का भ्रष्टाचार

एनडीए के पास सबसे बड़ा हथियार अभी विपक्षी नेताओं का भ्रष्टाचार है। जिस तरह प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और सीबीआई विपक्षी नेताओं के भ्रष्टाचार की परतें उधेड़ रहे हैं और उनकी घेरेबंदी में जुटे हैं, उससे यही लगता है कि लोकसभा चुनाव की घोषणा के पहले ही कई नेता जेल में होंगे। इनकी गोलबंदी की जमीन भी भ्रष्टाचार पर कार्रवाई को लेकर ही शुरू हुई थी। सुप्रीम कोर्ट तक ने इन्हें किसी तरह की राहत देने से मना कर दिया। जनता ने भ्रष्टाचारियों के लिए की गई नोटबंदी की परेशानियों को बर्दाश्त कर अगर 2019 में बीजेपी का साथ दिया तो माना जाना चाहिए कि इस बार बड़े भ्रष्टाचारियों के खिलाफ होने वाली कार्रवाई पर भी जनता की प्रतिक्रिया उससे कम नहीं होगी। यानी जनता बीजेपी का साथ दे सकती है।

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