देहरादून। प्रदेश में हाईकोर्ट व एनजीटी के आदेशों का पालन करने को कोई तैयार नहीं है। जिसके चलते नदियों के किनारे की बस्तियों के उपर खतरा मंडरा रहा है। कहीं जाते जाते मानसून नदी किनारे की बस्तियों में विनाशलीला न मचा दे इसकी आशंका लगातार बनी हुई है।
प्रशासन की अनदेखी के चलते सभी कायदे कानूनों को ताक पर रखकर लोग नदियों के किनारे आशियाने बनाकर खुद जोखिम मोल ले रहे हैं। अगस्त 2013 में हाईकोर्ट ने राज्य की सभी नदियों के 200 मीटर के भीतर सभी निर्माण गतिविधियों पर प्रतिबंध लगा दिया था।
अदालत ने यह आदेश ऋषिकेश निवासी सामाजिक कार्यकर्ता संजय व्यास की ओर से दायर एक जनहित याचिका पर पारित किया था। लेकिन इस नियम की भी धज्जियां उड़ रही हैं। दिसंबर 2017 के एक आदेश में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने निर्देश दिया था कि पर्वतीय इलाकों में गंगा के किनारे से 50 मीटर के भीतर आने वाले क्षेत्र में किसी भी निर्माण की अनुमति नहीं दी जाएगी और न ही कोई अन्य गतिविधि की जाएगी।
यहां 50 मीटर से अधिक और 100 मीटर तक के इलाके को नियामक क्षेत्र के रूप में माना जाएगा। मैदानी क्षेत्र में जहां नदी की चौड़ाई 70 मीटर से अधिक है, उस स्थिति में नदी के किनारे से 100 मीटर का क्षेत्र निषेधात्मक क्षेत्र के रूप में माना जाएगा।
किन्तु इसकी परवाह करने को कोई तैयार नहीं दिख रहा। इस मामले में माडिया में जारी एक बयान में पर्यावरणविद् व चारधाम परियोजना पर सुप्रीम कोर्ट की ओर से नियुक्त उच्चाधिकार प्राप्त समिति (एचपीसी) के सदस्य हेमंत ध्यानी ने कहा कि उत्तराखंड में लोगों ने नदी किनारे अवैध रूप से अतिक्रमण किया है और सभी प्रकार की संरचनाओं का निर्माण किया है।
इन बसावटों में अदालतों के तमाम अदेशों के बाद भी सरकार नियंत्रण नहीं कर पा रही है। फिर वर्ष 2013 जैसी आपदा आई तो इस बार नुकसान उससे कहीं अधिक होगा। ध्यानी ने कहा कि अवैध अतिक्रमण सिर्फ प्रमुख नदियों के किनारे ही नहीं, बल्कि उनकी सहायक नदियों, छोटी नदियों और नालों पर भी हुआ है।