संचार क्रांति से सूचनाओं के हुए महा विस्फोट से भारतीय खासकर हिंदी पत्रकारिता वैश्विक जरूर हो चली है लेकिन इसकी दृष्टि संकुचित और लक्ष्य सीमित होते जा रहे हैं. यकीनन पूरी दुनिया में हिंदी बोलने और समझने वालों की संख्या तेजी से बढ़ रही है. संख्याओं का यह खेल हिंदी खासकर खड़ी बोली के लिए सोख्ता सा साबित हो रहा है. यह हर कोई मानेगा की किसी भी भाषा की आत्मा उसके लिपि और लिपियों के मेल से बनने वाले शब्द होते है. हिंदी पत्रकारिता पर जरा सा भी गौर फरमाने वालों के लिए यह बेहद चिंता करने वाली है कि एकरूपता के अभाव में हिंदी के तमाम शब्द ही भिन्न-भन्न तरीके से पत्र-पत्रिकाओं में लिखे जा रहे हैं. जब शब्द ही समरूप नहीं होगे तो भाषा कैसे शुद्ध और सुघड़ हो सकती है?
बेलगाम दौड़ रही भारतीय खासकर हिंदी पत्रकारिता के भाषाई स्वरूप पर मंथन आज की सबसे बड़ी जरूरत है लेकिन हिंदी पत्रकारिता में यह सवाल सिरे से गायब है. उम्मीद का कोई सिरा कहीं दिख ही नहीं रहा है. हमें याद दशक डेढ़ दशक पहले हिंदी के महत्वपूर्ण माने जाने वाले कुछ अखबारों के संपादक भाषा के प्राण तत्व माने जाने वाले शब्दों की एकरूपता के प्रति गंभीर थे लेकिन उनकी यह गंभीरता भी अपने संस्थान तक ही सीमित थी. अपनी हिंदी और अपने शब्दों के लिए शुरू हुई यह कोशिश भी समय के साथ खत्म होती चली गई. अब कहीं से कोई आवाज भाषा और शब्दों की एकरूपता पर सुनाई ही नहीं दे रही.
विश्व पटल पर अपना स्थान बनाने को मचल रही आज की हिंदी का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यही है कि उसका कोई भाग्य विधाता संपादक या नियामक संस्था है ही नहीं. यह अभाव ही भाषा के भाव और स्वरूप दोनों को नष्ट करता जा रहा है. हर प्रदेश क्षेत्र और यहां तक की संस्थानों में हिंदी अपनी तरह से बोली और लिखी जा रही है. हिंदी के कर्णधारों के लिए यह बात सोचने वाली होनी चाहिए कि भाषा का स्वरूप न बिगड़े. जब शब्द अराजक (अलग-अलग ढंग से शब्द लिखे जाने की प्रवृत्ति) हो जाएंगे तो भाषा कैसे बची रह सकती है? यह समय की जरूरत है और एक तरह से चेतावनी भी की हम अपनी भाषा के लिए अब तो चेत ही जाए.
यह सच है कि संस्कृत और फारसी के समझ में ना आने वाले शब्दों से मुक्त करा कर सरल और समझ में आने वाली हिंदी का उपयोग हमारे पूर्वज संपादकों ने पत्र-पत्रिकाओं में शुरू किया था. इसका लक्ष्य हिंदी को लोकप्रिय बनाना था न कि अलोकप्रिय. याद कीजिए खड़ी बोली के निर्माण की उस प्रक्रिया को जिसे भारतेंदु हरिश्चंद्र ने शुरू किया और आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, बालमुकुंद गुप्त, कामता प्रसाद गुरु, लक्ष्मीधर बाजपेई डॉक्टर काशी प्रसाद जायसवाल आदि जैसे संपादकों और लेखको ने कैसे उस प्रक्रिया को पूर्णता प्रदान की. बोलियों में बटी हिंदी को खड़ी बोली का रूप सहज ही नहीं मिला था. एक-एक शब्द पर “शास्त्रार्थ” का इतिहास हिंदी भाषी समाज भुला नहीं है. याद कीजिए, आचार्य द्विवेदी और बालमुकुंद गुप्त के बीच “अस्थिरता” शब्द सही है या “अनस्थिरता” को लेकर कितनी खतो-किताबत हुई थी. यह एक प्रसंग भर है. आज से 100-120 वर्ष पहले आचार्य संपादकों ने अपने जीवन जब कुर्बान किए तब खड़ी बोली हिंदी शुद्ध रूप में स्थापित हुई.
भारतेंदु हरिश्चंद्र के छोड़े हुए महत्वपूर्ण काम को अपने हाथ में लेने वाले आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को भाषा के परिष्कार मैं ऐसी-ऐसी आलोचनाओं को सुनना पड़ा, जिससे विचलित होकर वह खड़ी बोली आंदोलन छोड़ भी सकते थे लेकिन भाषा के सवाल पर वह अडिग रहे. जिस दौर में वह हिंदी के निर्माण के काम में जुटे थे उस दौर में संस्कृत अंग्रेजी फारसी का दबदबा था और हिंदी “स्टुपिड हिंदी” कही जाती थी. खड़ी बोली हिंदी के निर्माण में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को सबसे पहला मोर्चा ब्रजभाषा के लेखकों और कवियों से संभालना पड़ा था. उस वक्त ब्रजभाषा ही काव्य की सर्वोत्तम भाषा थी. खड़ी बोली आंदोलन का ब्रजभाषा के कवि जगन्नाथ दास रत्नाकर और जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी द्वारा उड़ाए गए मखोल का आचार्य द्विवेदी ने यह कहकर प्रतिवाद किया था-” बोलचाल की भाषा को खड़ी बोली कहकर निंदा करना या उसके पुरसकर्ताओं को लंगूर बनाकर ब्रजभाषा अपना गौरव नहीं बढ़ा सकती. बोलचाल की हिंदी में कविता करने वालों को इस तरह के निंदापवाद की कुछ भी परवाह न करके गुणवती कविता लिखने में चुपचाप लगे रहना चाहिए”
सरस्वती के जून 1912 के अंक में पेज नंबर 306 से 309 मैं योगेंद्र पाल सिंह के प्रकाशित लेख “हिंदी की वर्तमान दशा” के इस निचोड़ पर हमें गौर करना होगा-
” सबसे बड़ी बात यह है कि हमें हिंदी को इस योग्य बना देना चाहिए कि वह हमारा कुल काम दे सके. उसके सारे अंग पूर्ण कर देना हमारा पहला कर्तव्य है. जिससे उसे अन्य भाषाओं के आगे लजाना ना पड़े. जब उसके अंग पुष्ट हो जाएंगे तब उसके राष्ट्रभाषा होने में कोई रुकावट न रहेगी. जिस प्रकार रात के बाद दिन अवश्य ही होता है उसी प्रकार वह राष्ट्रभाषा हो जाएगी-
रीते सबहि तुच्छ जग माही, बिनु पूरनता गौरव नाही
अंतर जब तेरो भरि जाई, पवनहू तोहि न रोकि सकाई..”
आज एक बार फिर ऐसे आचार्य संपादकों की जरूरत महसूस हो रही है जो हिंदी हित में आलोचना निंदा से परे होकर भाषाई और शाब्दिक एकरूपता पर आपस में शास्त्रार्थ करके भविष्य की भाषा को शुद्ध रूप प्रदान कर सकें. ऐसा नहीं है कि हिंदी में ऐसे विद्वान चिंतक-विचारक व्यक्ति या संपादक वर्तमान में है नहीं. बेशक ऐसे लोगों की कमी नहीं है. कमी है तो बस भाषा के प्रति समर्पण- निष्ठा और जुनून की. पत्रकारिता की वर्तमान और भावी पीढ़ी को दोष से बचाने के लिए ऐसे संपादकों को अब यह महत्वपूर्ण काम अपने हाथ में लेने का सही समय आ गया है. ऐसे बेलगाम वाले दौर मैं अगर हिंदी हितैषी आगे ना आए तो “स्टुपिड हिंदी” कहने वालों का दौर वापस आने का डर हमेशा बना ही नहीं रहेगा बढ़ता ही जाएगा.
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