जम्मू। जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव 2024 के सामने आए नतीजों में नेकां और कांग्रेस गठबंधन ने बहुमत हासिल किया। दोनों पार्टियों ने मिलकर 48 सीटें हासिल की। एनसी को 42 सीटें, तो कांग्रेस को 6 सीटें मिली हैं। जिसके बाद आज यानी बुधवार को उमर अब्दुल्ला ने जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली है।
उमर अब्दुल्ला वैसे तो पहले भी जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री रह चुके हैं, लेकिन इस बार परिस्थितियां बिल्कुल अलग हैं। इस बार भले ही उमर अब्दुल्ला मुख्यमंत्री बन गए हैं लेकिन इस सरकार की चाबी उपराज्यपाल के हाथ में होगी।
राज्यपाल की मंजूरी और अनुमति लेकर करना होगा काम
उमर अब्दुल्ला जनवरी 2009 से जनवरी 2015 तक जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री रहे थे। हालांकि, उस समय जम्मू-कश्मीर एक पूर्ण राज्य था। जम्मू-कश्मीर का अपना खुद का संविधान था। केंद्र सरकार से ज्यादा राज्य सरकार की चलती थी।
लेकिन अब जम्मू-कश्मीर एक राज्य नहीं बल्कि केंद्र शासित प्रदेश है और यहां राज्य से ज्यादा केंद्र सरकार की चलेगी। यानी उमर अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री बनने के बाद बहुत से ऐसे फैसले हैं, जो राज्यपाल के मंजूरी और अनुमति लिए बगैर नहीं कर पाएंगे।
2019 में पास हुआ था जम्मू-कश्मीर रिकॉर्गनाइजेशन एक्ट
साल 2019 में जम्मू-कश्मीर रिकॉर्गनाइजेशन एक्ट पास हुआ था। जिसके बाद राज्य को जम्मू-कश्मीर और लद्दाख, दो हिस्सों में बांटकर दोनों को अलग-अलग केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया था। केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख में विधानसभा नहीं है, लेकिन जम्मू-कश्मीर में विधानसभा है।
संविधान के अनु्च्छेद 239 के अनुसार केंद्र शासित प्रदेश का प्रशासन राष्ट्रपति के पास होता है। जिसके लिए राष्ट्रपति हर केंद्र शासित प्रदेश में एक प्रशासक नियुक्त करता है। दमन दीव और दादरा नगर हवेली, लक्षद्वीप, चंडीगढ़ और लद्दाख में राज्यपाल होते हैं, जबकि दिल्ली, अंडमान-निकोबार, पुडुचेरी और जम्मू-कश्मीर में उपराज्यपाल होते हैं।
बदल चुकी है जम्मू-कश्मीर की संवैधानिक संरचना
जम्मू-कश्मीर में भी पुडुचेरी की तरह संविधान का अनुच्छेद 239A लागू है। दिल्ली एकमात्र केंद्र शासित प्रदेश है, जहां 239AA लागू है। इसलिए दिल्ली में पुलिस, जमीन और कानून-व्यवस्था के अलावा सभी मामलों में दिल्ली सरकार को कानून बनाने का अधिकार है। हालांकि, जम्मू-कश्मीर में ऐसा नहीं है।
जम्मू-कश्मीर रिकॉर्गनाइजेशन एक्ट 2019 के आने के बाद जम्मू-कश्मीर की संवैधानिक संरचना पूरी तरह बदल चुकी है और अब यहां सरकार से ज्यादा बड़ी भूमिका उपराज्यपाल की है। जम्मू-कश्मीर की सरकार पुलिस और कानून व्यवस्था को छोड़कर सभी मामलों में कानून बना सकती है, लेकिन उसे इस बात का ध्यान देना होगा कि इससे केंद्रीय कानून पर कोई असर न पड़े। इसके अलावा, कोई भी बिल या संशोधन विधानसभा में बिना राज्यपाल की मंजूरी के पेश नहीं किया जा सकता है।
उपराज्यपाल के पास कितनी शक्तियां?
साधारण भाषा में आप उपराज्यपाल की शक्तियों का अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि जम्मू-कश्मीर में सरकार किसी की भी हो उपराज्यपाल ही सबकुछ है। जम्मू-कश्मीर की सरकार को कोई भी बिल विधानसभा में पेश करने, कोई भी कानून बनाने के लिए उपराज्यपाल की मंजूरी लेना आवश्यक है। यानी कोई भी बिल या कानून बिना उपराज्यपाल की मंजूरी के जम्मू-कश्मीर की सरकार नहीं बना सकती है।
इसके अलावा उपराज्यपाल की मंजूरी के बाद ही सरकारी अफसरों का ट्रांसफर और पोस्टिंग किया जा सकता है। जम्मू-कश्मीर की सरकार उपराज्यपाल के किसी भी काम की वैधता पर सवाल नहीं उठा सकती है। उपराज्यपाल ने कोई भी फैसला लेते वक्त मंत्री परिषद की सलाह ली थी या नहीं, इस आधार पर उनके फैसले को कोर्ट में चुनौती नहीं दी जा सकती है।
जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव 2024 से पहले ही उपराज्यपाल को एडवोकेट जनरल और लॉ अफसरों की नियुक्ति करने का अधिकार मिल गया था। जम्मू-कश्मीर में पहले 6 साल का कार्यकाल होता था, लेकिन अब हर 5 साल के कार्यकाल के बाद चुनाव होंगे। बता दें कि फिलहाल जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा हैं।