गौरव अवस्थी
रायबरेली
रचत बिरंचि, हरि पालत हरत हर
तेरे ही प्रसाद अब-जग-पालिके
तोहिमें बिकास विश्व, तोहिमें बिलास सब
तोहिमें समात, मातु भूमिधर बालिके
दीजे अवलंब जगदंब! ना बिलंब कीजे
करुणातरंगिनी, कृपा-तरंग-मालिके
रोष महामारी, परितोष महतारी दुनी
देखिए दुखारी, मुनि-मानस-मरालिके
-गोस्वामी तुलसीदास कृत कवितावली-173
भावार्थ: हे चराचर का पालन करने वाली माता पार्वती! तेरी ही कृपा से ब्रह्मा जी सृष्टि की रचना करते हैं, ब्रह्मा जी पालन करते हैं और महादेव जी संहार करते हैं. सारे विश्व का तेरे ही में विकास होता है तेरे ही में उसकी स्थिति है और फिर तेरे ही में उसका लय होता है. हे जगतजननी! तुम कृपा तरंगावलि से विभूषित करुणामई सरिता हो. तुम देरी न करके मुझे आश्रय दो. हे मुनिमन मानस मरालिके! कुपित होने पर तुम महामारी हो जाती हो और प्रसन्न होने पर तुम ही संसार की साक्षात जननी स्वरूपा हो; अतः अब तुम कृपा दृष्टि से हम दुखियों की ओर देखो .
“इतना सुनते ही ठाकुर साहब ने पुरोहित जी से कहा-“यह ₹30 ले लीजिए और मेरे 8 नोकर साथ ले जाकर कृपा करके दग्ध क्रिया करवा दीजिए और मुझे इलाके पर जाने की आज्ञा दीजिए..” यह कहकर लड़के को साथ लेकर मित्रों से विदा होकर ठाकुर साहब इलाके पर पधारे और पुरोहित जी सत्य सिंह प्रभति 8 नौकरों को लेकर उनके घर गए. सीढ़ी बनवाते और कफन आदि मंगवाते सायंकाल हो गया. जब नाइन बहूजी को कफ़नाने लगी, उसने कहा-” अभी इनका शरीर पूरी तरह से ठंडा नहीं हुआ है और आंखें अधखुली सी हैं, मुझे भय मालूम होता है.” पुरोहित जी और नौकरों ने कहा-“यह तेरा भ्रम है. मुर्दे में जान कहां से आई. जल्दी लपेट ताकि गंगा तट ले चल कर इसका सतगत करें. रात होती जाती है. क्या मुर्दे के साथ हम लोगों को भी मरना है. ठाकुर साहब तो छोड़ ही भागे. अब हम लोगों को इन पचड़ों से क्या मतलब है. किसी तरह फूक-फाक कर घर चलना है. क्या इसके साथ हमें भी जलना है.”
(मास्टर भगवान दास की कहानी प्लेग की चुड़ैल-1902 का अंश)
अपने-अपने समय की महामारियो के मार्मिक चित्रण कवित्त और साहित्य के माध्यम से ही हम सब देखते-सुनते और समझते हैं. यह उदाहरण हमें बताते चलते हैं कि महामारी का कालखंड कोई भी हो, उससे उपजा भय-विषाद-विडंबना-विद्रूपता-याचना और अव्यवस्था का रूप एक सा ही है. ज्यादा पीछे जाने से कोई फायदा नहीं. सौ सवा सौ साल पहले से लेकर अब तक के महामारी के इतिहास को साहित्य के आईने में देखने से यह बात स्पष्ट है कि विपदा के समय समाज निष्ठुर हो जाता है. व्यवस्थाएं फीकी पड़ जाती हैं. व्यवहार जीवितो के लिए शेष रह जाता है. ऐसे समय में गुरु नानक देव का पद- “सबै कुछ जीवत का व्यवहार” या सूरदास का पद- “कुसमय काको मीत कौन” स्वत: याद आने लगता है.
काशी में आई महामारी के वक्त तुलसीदास महादेव-गणेश-पार्वती किन-किन देवों से याचना नहीं करते. कवितावली में ऐसी याचना वाले कवित्त एक नहीं कई हैं. याचना के करुण स्वर कोरोना महामारी के वक्त भी सबको सुनाई दिए हैं. बस रूप इतना बदला है कि आज टीवी चैनलों के स्क्रीन पर हैं. अखबार के पन्नों पर हैं. ट्विटर पर हैं और सोशल मीडिया के अन्य माध्यमों पर भी. आज याचना देवों से मन में है और चैनलों पर देश के प्रधानमंत्री मोदी से. आप सबने भी ऐसी करुण पुकार- “मोदी जी! मेरे पापा को बचा लीजिए. अस्पताल भर्ती नहीं कर रहा है. ऑक्सीजन नहीं मिल रही है. बचा लीजिए मैं हाथ जोड़कर विनती करती हूं..” सुनी ही होंगी.विपदा के समय में ऐसी ना जाने कितने करुण स्वर कानों को विचलित करते हुए गुजरे हैं.
केवल याचना ही क्यों? लालच और स्वार्थ सिद्धि भी तो इस दौर में भी वैसी ही है जैसी 100 साल पहले प्लेग महामारी के वक्त सामने आ रही थी. तब पैसों के लालच में लाश ले जाने के लिए बैलगाड़ी वाला जान से खेलता है और आज एंबुलेंस वाला. 1918 मे लिखी गई पांडे बेचन शर्मा “उग्र” की कहानी “वीभत्स” से गुजर कर देखेंगे तो आज और कल के “हालात” में फर्क करना आपके लिए खुद मुश्किल हो जाएगा. कहानी कहती है-” सुमेरा के सौभाग्य से समझिए या दुर्भाग्य से, जिस दिन से उसने हाटवाले मुर्दों को बहाना शुरू किया, उसी दिन से गाही के गाही आदमी मरने लगे. 7 दिनों तक बराबर मुर्दे फेंकने के बाद कमर की थैली निकालकर सुमेरा ने रुपए जो गिने वह पूरे 75 निकले. 75 इसलिए कि एक 10 वर्ष की लड़की की लाश को उसने आधे रेट में ही फेंक दिया था.. सचमुच आठवें दिन सुमेरा को गाड़ी पर गंगा की यात्रा करने को उत्सुक 11 मुर्दे तैयार मिले. वह बहुत प्रसन्न हुआ यद्यपि गाड़ी में 8 मुर्दों से ज्यादा लादने की जगह नहीं थी फिर भी उसने 11 के 11 मुर्दे लाद लिए..” यह नंगा सच हम सबने देखा है कि एंबुलेंस वालों ने मजबूरी के नाम पर 5 या 10 किलोमीटर की दूरी के लिए 15000 रुपए तक कैसे ठग लिए?
अकाल-प्लेग-हैजा-इन्फ्लूएंजा- स्वाइन फ्लू आदि-आदि की विपदा पर अपने-अपने समय में साहित्यकारों ने उन हालात को मार्मिक ढंग से दर्ज किया है. महावीर प्रसाद द्विवेदी का निबंध “प्लेग स्तवराज” हो या महाप्राण निराला का उपन्यास अलका और अप्सरा, प्रेमचंद की महामारी पर लिखी मार्मिक कहानियां हो या हरिशंकर परसाई का खुद का संस्मरण “गर्दिश के दिन” या रांगेय राघव का रिपोर्ताज (तूफानों के बीच-1946). फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी पहलवान का ढोलक हो या राही मासूम रजा का “आधा गांव”. धर्मवीर भारती की कहानी “मुर्दों का गांव” में अकाल पीड़ित अपनी झोपड़ी के बाहर दम तोड़ता है और आज कोरोना संक्रमित अस्पताल के बाहर. अस्पताल के बाहर अनगिनत मरीजों को दम तोड़ते हम सबने टीवी चैनलों पर लाइव देखा ही है.
1915 में पैदा हुए उर्दू के कथाकार राजेंदर बेदी ने कहानी “क्वॉरेंटाइन” प्लेग महामारी को केंद्र पर रखकर लिखी थी. कहानी कहती है-” प्लेग तो खतरनाक था ही मगर क्वॉरेंटाइन उससे भी ज्यादा खौफनाक था. लोग प्लेग से इतने परेशान नहीं थे जितना क्वारंटाइन से..” हमारी तरह ही अनजान पीढ़ी ने क्वारंटाइन-लॉकडाउन-आइसोलेशन शब्द ही पहली बार अपने जीवन में सुने और इनके अच्छे-बुरे अर्थ भी एहसास किए. आपको भी ऐसी खबरें पढ़ने में मिली होगी कि क्वारंटाइन में रह रहे अमुक व्यक्ति की अवसाद से मृत्यु हो गई या फलां ने मृत्यु का वरण कर लिया. आइसोलेशन में कितने लोगों को इलाज ही नहीं मिल पाया. इलाज क्या कहें? ऑक्सीजन तक नहीं मिल पाई और कईयों का बिना ऑक्सीजन दम घुट गया.
सवाल यह नहीं है कि मानव का चरित्र बढ़ा या घटा, बदला या वैसा ही रहा. जीवन के संघर्ष सबके अपने हैं. फिर मानव स्वभाव तो प्राकृतिक है. नैतिकता सामाजिक-पारिवारिक संस्कारों से आती है. कोरोना संकट के दौरान ही हमने कई परिवारीजनों को अपने प्रियजनों के शवों को घाट पर अधजला छोड़ देने या नदी में पुल से फेंक देने की घटनाएं देखी-सुनी है. सौ-सवा सौ साल पहले भी मानव चरित्र और प्रवृत्ति में ऐसा ही था. मास्टर भगवान दास की कहानी “प्लेग की चुड़ैल” ऐसी ही विद्रूपता को रेखांकित करने वाली है, जिसमें पति जिंदा होते हुए भी पत्नी को मरा मानकर दूसरों को दाह क्रिया का ठेका दे देता है. यह वह अपने और अपने बच्चे के जीवन बचाने के लिए करता है. फिर भी इस संकट के दौरान भी तमाम ऐसे फरिश्ते समाज में सामने आए, जिनका महामारी से मरे हुए लोगों से सीधा कोई रिश्ता नहीं था लेकिन नजदीकियों से ज्यादा नजदीकी रिश्ता इन लोगों ने निभाया. ऐसे लोगों के काम सलाम के हकदार हैं.
इस सबके बीच सबसे बड़ा सवाल यही है कि सौ-सवा सौ साल में हमारा और हमारे देश की तरक्की का सफर आखिर खड़ा कहां है? इलाज की दुश्वारियां तब भी थी और आज भी. तब हम गुलाम थे. देश पर फिरंगियों का शासन था और आज हमारा खुद का. आखिर 72 वर्षों का यह “विकास” गया कहां? कोरोना महामारी हमें (खासतौर से राजनीतिक और शासक वर्ग को) इस आत्ममंथन के लिए मजबूर करती है कि विकास नाम का है या आधा अधूरा है या वास्तव में अपने देश की आबादी के अनुरूप. हम कौन सा और कहां विकास कर रहे हैं कि जरूरत पर अस्पतालों में इंतजाम न दे पाएं, मरते हुए को सांसे (ऑक्सीजन) न दे पाएं, घाट पर अंतिम क्रिया के लिए लकड़िया सुलभ न करा पाएं.
ऐसे में यह हमें अब सोचना छोड़ करने की तरफ मुखातिब होना चाहिए कि भविष्य की पीढ़ियां ऐसे संकटों का सामना करने से बची रहे, इसलिए जरूरी है कि विकास की प्लानिंग हमारी अपनी देश की भौगोलिक परिस्थितियों और आबादी के अनुरूप ही बनाई और कार्य रूप में परिणित की जाएं. समय आया है और जाएगा भी. बस! हमें अपनी नीतियों में परिवर्तन करना होगा और अगर अब भी ऐसा करने से परहेज किया गया तो ऐसे शासक वर्ग को न समय माफ करेगा और न समाज.
ये लेखक के अपने निजी विचार है l