नई दिल्ली : अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा के खिलाफ संयुक्त विपक्षी गठबंधन तैयार करने के लिए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जुटे हुए हैं. नीतीश इसके लिए पूरे देश का दौरा कर चुके हैं और लगभग सभी प्रमुख विपक्षी दलों के नेताओं से अपील कर चुके हैं. इसके बावजूद भाजपा इस मुद्दे पर बेहद शांत दिखाई दे रही है. दरअसल उसे विपक्ष के बीच ‘महाएकता’ होने की संभावना ही नहीं दिख रही है. इसका नजारा नीतीश की तरफ से 23 जून को पटना में बुलाई गई विपक्षी दलों की साझा बैठक से पहले ही दिखने लगा है. बैठक से पहले ही कई ऐसे मुद्दे सामने आ गए हैं, जो इस आयोजन की सफलता पर सवालिया निशान खड़े कर रहे हैं. राजनीतिक विश्लेषक भी मान रहे हैं कि बहुत सारे मुद्दे ऐसे हैं, जिनका हल निकले बिना विपक्षी एकता संभव नहीं है. आइए ऐसे 5 मुद्दों के बारे में बताते हैं, जो विपक्षी एकता की राह में रोड़ा बन रहे हैं.
कॉमन सिविल कोड पर विपक्षी की है बिखरी राय
भाजपा नेतृत्व वाली NDA सरकार ने 22वें विधि आयोग के जरिये समान नागरिक संहिता यानी कॉमन सिविल कोड (UCC) पर जनता की राय मांगी है. माना जा रहा है कि भाजपा सरकार 2024 चुनावों से पहले इसे संसद में पेश कर सकती है. भाजपा के इस दांव पर ही विपक्ष बिखरता दिख रहा है. एकतरफ जहां कांग्रेस, सपा, जदयू, राजद जैसे दल इसका विरोध कर रहे हैं, वहीं विपक्ष के साथ खड़े शिवसेना (उद्धव ठाकरे) ने इसका समर्थन कर दिया है. उद्धव ठाकरे ने कहा है कि हम पहले से ही इसकी मांग कर रहे हैं. अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी भी पहले ही कई बार UCC के समर्थन में बयान दे चुकी है. इसके अलावा यह मुद्दा ऐसा है, जिस पर कई अन्य राज्यों के क्षेत्रीय रूप से मजबूत राजनीतिक दल सरकार के साथ खड़े दिख सकते हैं.
राज्यों में विपक्ष में खड़े दल केंद्र में साथ होने के आसार नहीं
विपक्षी एकता की राह में सबसे बड़ी बाधा अधिकतर दलों के बीच राज्य स्तर पर प्रतिद्वंद्विता होना भी है. दिल्ली और पंजाब के कांग्रेस कार्यकर्ता साफतौर पर AAP के साथ नहीं खड़े होने की बात पार्टी हाईकमान से कह चुके हैं, जिसका असर केजरीवाल के अध्यादेश विरोधी अभियान पर दिख चुका है. AAP खुद भी कांग्रेस के पंजाब-दिल्ली छोड़ने पर राजस्थान-MP में साथ देने की बात कहकर देश की सबसे पुरानी पार्टी को भड़का चुकी है. पश्चिम बंगाल में भी कांग्रेस का गठबंधन वाम दलों के साथ है, जो किसी भी सूरत में ममता बनर्जी की TMC के साथ खड़े नहीं हो सकते हैं. खुद ममता बनर्जी ने शुक्रवार को पंचायत चुनाव प्रचार के दौरान हुई हिंसा को लेकर कांग्रेस पर जिस तरह हमला बोला है, उसके बाद दोनों के एकमंच पर खड़े होने की संभावना खत्म हो चुकी है. ममता ने साफ कहा है कि बंगाल में कांग्रेस का माकपा और भाजपा के साथ तालमेल बनाए रखने पर हम दोनों एकसाथ खड़े नहीं हो सकते हैं. तेलंगाना में साल के आखिर में विधानसभा चुनाव हैं, जिनमें KCR की भारत राष्ट्र पार्टी के सामने सबसे बड़ी चुनौती कांग्रेस की ही है. ऐसे में केसीआर भी कांग्रेस के साथ खड़े होने में झिझक रहे हैं.
कांग्रेस की नेतृत्व करने की चाहत
कांग्रेस साफतौर पर कह चुकी है कि वह किसी भी विपक्षी गठबंधन में तभी शामिल होगी, जब गठबंधन उसके नेतृत्व में बनेगा. कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा है कि विपक्षी एकता कांग्रेस के नेतृत्व में ही होगी. कांग्रेस पहले से ही समान विचारों वाले दलों के साथ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (UPA) में है, जिसकी मुखिया कांग्रेस ही है. उधर, जदयू इस एकता अभियान के जरिये नीतीश को संयुक्त विपक्ष का मुख्य चेहरा बनाने की रणनीति पर चल रही है. इसके चलते भी कांग्रेस के विपक्षी ‘महाएकता’ का हिस्सा बनने पर संशय दिख रहा है.
प्रधानमंत्री पद के चेहरे पर स्पष्टता नहीं
विपक्ष में अब तक प्रधानमंत्री पद के चेहरे पर स्पष्टता नहीं है. जदयू और राजद जहां विपक्षी महाएकता के जरिये नीतीश को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनाना चाह रहे हैं, वहीं यह महत्वाकांक्षा रखने वाले कई अन्य चेहरे भी विपक्ष में मौजूद हैं. हालांकि NCP चीफ शरद पवार कह चुके हैं कि पीएम का चुनाव बाद में भी हो सकता है, लेकिन इस बात की संभावना कम ही है कि बिना किसी चेहरे पर सहमति बने विपक्षी दल एक झंडे के तले खड़े हो पाएंगे. मोदी बनाम कौन? इस सवाल का जवाब तलाशे बिना जनता के सामने वोट मांगने जाने पर विपक्षी गठबंधन को फायदे के बजाय नुकसान भी हो सकता है. हालांकि इसके लिए कांग्रेस के 2004 में बनाए UPA जैसा फॉर्मूला बनाया जा सकता है, जिसमें बिना किसी को पीएम पद का चेहरा घोषित किए ही चुनाव लड़ा गया था. लेकिन भाजपा जिस तरह सारे चुनाव पीएम मोदी को चेहरा बनाकर लड़ रही है और उनकी आम जनता के बीच लोकप्रियता का जो स्तर है, उसे देखते हुए बिना पीएम चेहरे वाले फॉर्मूले पर चलने की स्थिति में विपक्ष को लाभ होने के आसार कम ही हैं.
भाजपा की विपक्ष में फूट बढ़ाने की रणनीति
भाजपा की रणनीति विपक्षी दलों के बीच आपसी फूट बढ़ाने वाले मुद्दों को हवा देने की है. इसका एक नजारा कॉमन सिविल कोड का मुद्दा उठाकर भाजपा दिखा ही चुकी है. माना जा रहा है कि अगले कुछ महीनों में कई ऐसे मुद्दे भाजपा की तरफ से आगे किए जाएंगे, जिनकी मांग जनता करती रही है और विपक्ष में उन्हें लेकर एकराय नहीं है. इससे भाजपा ‘एक पंथ, दो काज’ वाला फॉर्मूला आजमाना चाहती है. एकतरफ मुद्दों को आगे बढ़ाने से जनता के सामने वोट मांगने के लिए उनका सहारा मिलेगा, वहीं दूसरी तरफ उन मुद्दों पर एकराय नहीं होने के चलते विपक्षी दलों में बिखराव बढ़ेगा.