डॉलर की धमक कम हो गई है क्या? या चीन के पर इतने निकल आएं है कि वो डॉलर की जगह लेने के बारे में सोच रहा है? ऐसे में भारतीय रुपया और पीएम मोदी पीछे क्यो रहें? जी हां, आज ग्लोबल इकोनॉमी के अक्स में ऐसे कई सवाल उभरकर सामने आ रहे हैं, जिनका जवाब सिर्फ भारत ही बनना चाहता है. ग्लोबल करेंसी की बिसात पर चीन और अमेरिका जिस शह-मात का गेम खेल रहे हैं, उसमें भारतीय रुपया भी वाइल्ड कार्ड के जरिये एंट्री मारना चाहता है. जिसकी तैयारी भारत में काफी समय से चल रही है.
पीएम मोदी के हर विदेशी दौरे के साथ रुपये का इंटरनेशनलाइजेशन कार्ड हमेशा चलता है और चले भी क्यों ना. आखिर कब तक भारत डॉलर की बैसाखी लेकर बिजनेस के मैदान में रेंगता रहेगा. भारत सरकार और पीएम मोदी को समझ में आ चुका है कि ग्लोबल इकोनॉमी पर एकछत्र राज करना है तो डॉलर की बैसाखी को छोड़ रुपये को मजबूत बनाना होगा, जिसके सहारे भारत की इकोनॉमी चले नहीं बल्कि दौड़ सके.
इसके लिए रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया काफी तेजी के साथ काम कर रहा है. बीते बुधवार को आरबीआई के इंटर डिपार्टमेंटल ग्रुप ने जो कहा उससे चीन, यूरोप और अमेरिका की धड़कनें जरूर तेज हो गई होंगी. आईडीजी ने साफ कहा कि भारत सबसे तेजी से बढ़ते देशों में से एक है और विपरीत परिस्थितियों में लचीलापन भी दिखा रहा है, ऐसे में भारतीय रुपये में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा यानी इंटरनेशनल करेंसी बनने की पूरी क्षमता है.
ऐसे में डॉलर, यूरो और चीनी युआन के सामने भारतीय रुपया मजबूती के साथ खड़े होने की स्थिति में आ रहा है. क्योंकि यूक्रेन पर आक्रमण करने के बाद रूस पर अमेरिका ने जिस तरह के आर्थिक प्रतिबंध लगाए हैं उसके बाद से अंतरराष्ट्रीय पटल पर डॉलर का विकल्प खोजने की मांग बढ़ती जा रही है. चीन इसमें तेजी के साथ आगे बढ़ता हुआ दिख भी रहा है, लेकिन चीन के संबंध दुनिया के बाकी देशों के साथ कितने अच्छे हैं, उसके सामने ये बड़ा सवाल है.
ऐसे में रुपया या यूं कहें भारत दुनिया के उन तमाम देशों को साधने में जुटा है जिनसे रुपये में ट्रांजेक्शन कर सके. ऐसे में आईडीजी ने अपने तौर पर सिफारिशें भी हैं. आज आईडीजी की सिफारिशों और उन परिस्थितियों को मथने की जरुरत है, जिससे रुपया, डॉलर, यूरो और युआन को टक्कर दे सकता है.
आखिर क्या है करेंसी का अंतर्राष्ट्रीयकरण?
करेंसी अंतर्राष्ट्रीयकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें सीमा पार लेनदेन में रुपये का उपयोग बढ़ाना शामिल है. इसमें इंपोर्ट और एक्सपोर्ट बिजनेस और फिर दूसरे करंट अकाउंट ट्रांजेक्शन के लिए रुपये को बढ़ावा देना और इसके बाद कैपिटल अकाउंट ट्रांजेक्शन में इसका उपयोग करना शामिल है. ये सभी इंडियन रेजिडेंट्स और नॉन-रेजिडेंट्स के बीच ट्रांजेक्शन हैं. करेंसी अंतर्राष्ट्रीयकरण के लिए करेंसी सेटलमेंट और एक स्ट्रांग स्वैप और फॉरेक्स मार्केट को और खोलने की आवश्यकता है, जिसका देश की आर्थिक प्रगति के साथ रिश्ता काफी करीब से जुड़ा हुआ है
इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि इसके लिए कैपिटल अकाउंट पर करेंसी की फुल कंवर्टेबिलिटी और बिना किसी प्रतिबंध के फंड के क्रॉस बॉर्डर ट्रांसफर की आवश्यकता होगी. भारत ने अभी तक करंट अकाउंट पर केवल फुल कंवर्टेबिलिटी की परमीशन दी है. मौजूदा समय में अमेरिकी डॉलर, यूरो, जापानी येन और पाउंड स्टर्लिंग दुनिया में प्रमुख रिजर्व करेंसीज हैं. वहीं चीन को अपनी करेंसी को इस दिशा कममें बढ़ाने के लिए बेहद सीमित सफलता मिली है.
क्या अब वो वक्त आ गया है?
मौजूदा समय में अमेरिकी डॉलर को ‘अत्यधिक विशेषाधिकार’ प्राप्त करेंसी के रूप में देखा जाता है. जिसे दुनिया के दूसरे सभी देश अपने इंटनेशनल ट्रांजेक्शन के रूप में इस्तेमाल करते हैं. जिसका काफी फायदा अमेरिका और उसकी इकोनॉमी को मिलता हुआ दिखाई देता है. ऐसे बहुत सारे फैक्टर हैं जो डॉलर की पोजिशन को सपोर्ट करते हैं. जिसमें अमेरिकी इकोनॉमी का साइज, अमेरिका के बिजनेस और फाइनेंशियल नेटवर्क की पहुंच, अमेरिकी फाइनेंशियल मार्केट की गहराई और लिक्विडिटी और मैक्रो इकोनॉमिक स्टेबिलिटी और करेंसी कंवर्टेबिलिटी का इतिहास शामिल है. विकल्पों की कमी की वजह से डॉलर डॉमिनेंस को काफी फायदा हुआ है.
आरबीआई वर्किंग ग्रुप के अनुसार, अमेरिकी डॉलर के डॉमिनेंस को स्पष्ट चुनौती चीनी रेनमिनबी से है. हालांकि, अमेरिकी डॉलर को टक्कर देने की इसकी क्षमता अमेरिका और चीन दोनों की भविष्य की पॉलिसीज और चीनी इकोनॉमी और इसके फाइनेंशियल सिस्टम के लांगटर्म लचीलेपन, अखंडता, पारदर्शिता, खुलापन और स्थिरता को प्रदर्शित करने की क्षमता पर निर्भर करेगी, जो मौजूदा समय में अमेरिकी इकोनॉमी की विशेषताएं हैं.
डॉलर डॉमिनेंस पर चीन-रूस मुखर
रूसी सरकार, उसके पब्लिक सेक्टर और यहां तक कि सरकार से जुड़े व्यक्तियों पर लगाए गए प्रतिबंधों के मद्देनजर, कई देश इस बात को लेकर सतर्क हो गए हैं कि अगर पश्चिमी सरकारों द्वारा उन पर इसी तरह के प्रतिबंध लगाए जाते हैं तो उन्हें कितनी कीमत चुकानी पड़ सकती है. चीन, रूस और कुछ अन्य देश अमेरिकी डॉलर-डॉमिनेंस वाली ग्लोबल करेंसी सिस्टम पर सवाल उठाने में अधिक मुखर हो गए हैं. वे अमेरिकी डॉलर और उसके फाइनेंशियल मार्केट्स पर अपनी निर्भरता के साथ-साथ सोसाइटी फॉर वर्ल्डवाइड इंटरबैंक फाइनेंशियल टेलीकम्युनिकेशंस (स्विफ्ट) मैसेजिंग सिस्टम पर बेस्ड इंटरनेशनल पेमेंट सिस्टम पर अपनी निर्भरता को कम करना चाहेंगे.
जबकि 1997-1998 के एशियाई संकट ने बाहरी झटकों से निपटने के लिए उभरती बाजार अर्थव्यवस्थाओं के पास मजबूत फॉरेक्स रिजर्व की आवश्यकता को समझा था, लेकिन तेजी के साथ पोलराइज्ड होती दुनिया में और आर्थिक प्रतिबंधों के खतरे के खिलाफ मजबूत ढाल नहीं रह गई है. आरबीआई द्वारा नियुक्त ग्रुप का मानना है कि भारत के लिए यूएसडी और यूरो दोनों के विकल्प तलाशना जारी रखना जरूरी है.
रुपये के अंतर्राष्ट्रीयकरण के बेनिफिट
क्रॉस बॉर्डर ट्रांजेक्शन में रुपये का इस्तेमाल भारतीय कारोबार के लिए करेंसी रिस्क को को कम करता है. करेंसी की अस्थिरता से सुरक्षा न केवल व्यापार करने की लागत को कम करती है, बल्कि बिजनेस ग्रोथ में भी इजाफा करती है, जिससे भारतीय बिजनेस के ग्लोबल लेवल पर बढ़ने की संभावना में तेजी के साथ सुधार होता है.
जबकि रिजर्व एक्सचेंज रेट की अस्थिरता को मैनेज करने और बाहरी स्थिरता का अनुमान लगाने में मदद करते हैं, वे इकोनॉमी पर कॉस्ट लगाते हैं. रुपये के अंतर्राष्ट्रीयकरण से फॉरेक्स रिजर्व रखने की जरुरत कम होगी. फॉरेन करेंसी पर कम करने से भारत पर बाहरी झटकों का असर कम देखने को मिलेगा. जैसे-जैसे रुपये का उपयोग महत्वपूर्ण होगा, भारतीय बिजनेस की बारगेनिंग पॉवर में उतनी की मजबूती आएगी. भारतीय अर्थव्यवस्था में वजन बढ़ेगा और भारत का ग्लोबल कद और सम्मान बढ़ेगा.
क्या हैं सुझाव
आरबीआई के एग्जिक्यूटिव डायरेक्टर राधा श्याम राठो की अध्यक्षता वाले वर्किंग ग्रुप ने रुपये के अंतर्राष्ट्रीयकरण की गति को तेज करने के लिए शॉर्ट से लांग टर्म उपायों की सिफारिश की है. पहले अगर शॉर्ट टर्म उपायों पर बात करें तो ग्रुप ने रुपये और स्थानीय करेंसी में चालान, सेटलमेंट और पेमेंट के लिए द्विपक्षीय और बहुपक्षीय व्यापार व्यवस्था पर प्रस्तावों की जांच के लिए एक स्टैंडर्ड अप्रोच अपनाने का सुझाव दिया है, जिससे नॉन रेजिडेंट्स के लिए रुपये और लोकल करेंसी में रुपया अकाउंट खोलने को प्रोत्साहित किया जा सके. भारत और भारत के बाहर और क्रॉस बॉर्डर ट्रांजेक्शन के लिए इंडियन पेमेंट सिस्टम को अन्य देशों के साथ इंटिग्रेड करना होगा.
वर्किंग गुप ने ग्लोबल 24×5 रुपया बाजार को बढ़ावा देने और एफपीआई रिजीम के रिकैलिब्रेशन के माध्यम से फाइनेंशियल मार्केट को मजबूत करने का सुझाव दिया. अगले दो से पांच सालों में, ग्रुप ने मसाला (भारतीय संस्थाओं द्वारा भारत के बाहर जारी किए गए रुपये-डॉमिनेटिड बांड) बांड, सीमा पार बिजनेस ट्रांजेक्शन के लिए रियल टाइम ग्रॉस सेटलमेंट (आरटीजीएस) के अंतर्राष्ट्रीय उपयोग और ग्लोबल बांड इंडेक्सेस में भारत सरकार के बांड पर टैक्सेस की समीक्षा की सिफारिश की है.
लांग टर्म में वर्किंग ग्रुप ने सिफारिश की है कि रुपये को आईएमएफ के एसडीआर में शामिल करने के लिए प्रयास किए जाने चाहिए. एसडीआर आईएमएफ द्वारा अपने सदस्य देशों के आधिकारिक भंडार के पूरक के लिए बनाया गया एक इंटरनेशनल रिजर्व असेट है. एसडीआर में मौजूदा समय में पांच करेंसी अमेरिकी डॉलर, यूरो, चीनी रॅन्मिन्बी, जापानी येन और ब्रिटिश पाउंड स्टर्लिंग शामिल हैं.
आखिर के कुछ सवाल
आखिर में जो सवाल उभरकर सामने आ रहे हैं वो ये ही हैं, क्या अमेरिका जिस तरह से चीन के साथ ट्रेड वॉर में भारत का सहारा ले रहा है क्या चीनी करेंसी को रोकने के लिए भारत रुपये के अंतर्राष्ट्रीयकरण में मदद करेगा? क्या रुपये और भारत की पॉलिसीज में इतना दम है कि बिना किसी मदद के वो डॉलर, चीनी करेंसी और यूरो, पाउंड और येन को पछाड़ सकेगा? सबसे बड़ा सवाल भारत को ऐसा क्या करने की जरुरत है कि पूरी दुनिया के साथ रुपये के अलावा किसी दूसरी करेंसी का विकल्प ही बचें. भारत सरकार, आरबीआई और रुपये के सामने सवाल वाकई बेहद मुश्किल हैं, लेकिन मुश्किल समय से निकलकर भारत को बाजीगर भी बनना आता है और सौदागर भी.