“पगडण्डी”———————————–
आज फिर उसी पगडण्डी से होते हुए चलती हुई उन यादों में खो जाती हूँ,,अपने गांव और गांव के नीचे बहती अलकनंदा की कलरव करती मधुर आवाज,सामने वही मेरा दृढ पहाड़,वही मेरे गांव के सरसों के खेत मानों मेरे आने पर पीली ओढ़नी ओढ़े बसंत संग मेरे आने के स्वागत में दोनों हाथों को फैलाये हो,,,इस बार फिर वही अहसास साथ ” दी” का सारी यादें ताजा कर गई,, वो बचपन की सारी यादें।। उन दिनों सुबहें कितनी जल्दी हुआ करतीं थीं, शामें भी कुछ जल्दी घिर आया करती थीं तब… फूलों की महक भीनी हुआ करती थी और तितलियाँ रंगीन,और इन्द्रधनुष के रंग थोड़े चमकीले, थोड़े गीले हुआ करते थे, आँखों में तैरते ख़्वाब,,सुबह होते ही चीं-चीं करती गौरैया छत पर आ जाया करतीं थीं दाना चुगने, उस प्यारी सी आवाज़ से जब नींदें टूटा करती थीं तो बरबस ही एक मुस्कुराहट तैर जाया करती थी होंठों पर… यूँ लगता था जैसे किसी ने बड़े प्यार से गालों को चूम के, बालों पर हौले से हाथ फेरते हुए बोला हो “उठो… देखो कितनी प्यारी सुबह है… इसका स्वागत करो.” … सच! कितने प्यारे दिन थे वो,,बचपन से मासूम,रूहानी एहसास भरे। कोहरे और धुँध को बींधती हुई धूप जब घने पेडों से छन के आया करती थी छज्जे में तो कितनी मीठी हुआ करती थी..खुले आँगन में जब अलाव जलाया करते थे तो सर्दी कैसे फ़ौरन ग़ायब हो जाया करती थी,अब बन्द कमरों में घंटो हीटर के सामने बैठ कर भी नहीं जाती,उस अलाव में कैसे हम सब भाई बहन अपने अपने आलू छुपा दिया करते थे और बाद में लड़ते थे “तुमने मेरा वाला ले लिये वापस करो…” कितनी मीठी लड़ाई हुआ करती थी… वो मिठास कहाँ मिलती है अब माइक्रोवेव में रोस्टेड आलू में… कभी सरसों के पीले पीले खेत में दोनों बाहें फैला के नंगे पैर दौड़े हैं आप ?
यूँ लगता है मानो पूरी क़ायनात सिमट आयी हो आपके आग़ोश में… कभी महसूस की है सरसों के फूलों की वो तीखी गंध ? क्या है कोई इम्पोर्टेड परफ्यूम जो उसकी बराबरी कर सकता है कभी ? शायद नहीं… आज भी याद आती हैं गाँव में बीती वो गर्मियों की छुट्टियाँ,,बचपन और गाँव दोनों अपने आप में ही ख़ूबसूरत और साथ मिल जाएँ तो यूँ समझिये दुनिया में उससे ज़्यादा ख़ूबसूरत और कुछ भी नहीं… जाने क्यूँ आज दिल यादों की उन ख़ूबसूरत सी गलियों में फिर भटक रहा है..मिट्टी के चूल्हे में पकी वो सौंधी सी रोटी जो धुएँ की महक को आत्मसात कर के कुछ और सौंधी और मीठी हो जाया करती थी, वो हँसी ठिठोली,वो देवी माँ का मंदिर,लकड़ी के तख्ते वाला झूला, शोर मचाते हुए हम “और तेज़ झुलाओ और तेज़… और तेज़…” आज भी कानों में गूंज उठती हैं ये आवाजें।।
“पहन ओढ़नी पीली पीली,
अंगड़ाई लेती है सरसों,
खिलखिलाकर मानो करती,,
स्वागत बसंत के आने का,,
धरती प्रफुल्लित होकर,,
कर रही है मानो श्रृंगार,
पवन के झोंकों संग,
फिर लहराई है सरसों।।”
“दीप”
दीपशिखा गुसाईं
~देहरादून ~