*गुंजाइश*
ऊपर टट्टर पर से तेज़ आवाजें आ रही थीं….कभी तेज़ कभी धीमी, कभी अचानक से टट्टर पर तेज़ कदम की उछाल की आवाज तो हम बच्चों को डरा जाती। हम नीचे खड़े हुए पापा और ताऊजी को ऊपर लड़ते हुए देख रहे थे… सहमे से…… मम्मी मेरे कंधे पर हाथ रखे हुए जैसे दिलासा दे रही हों, सब ठीक हो जायेगा घबराओ मत तुमसब।और मैं ये सोच रही थी….’शायद अब ताइजी के हाथ के लड्डू और मठरी नहीं मिलने वाले खाने को….किस मुँह से मांगूगी….. पापा तो लड़ रहे हैं….लाईट जाने पर उनके कमरे में बैठकर चित्रहार और रंगोली का मज़ा भी खतम, ताऊजी का छोटा बेटा जिस से मेरी बहुत पटती थी, उसके साथ मस्ती कैसे करूँगी…..’
ऊपर एक कोने से बार बार उनका बेटा भी हमें नीचे खड़ा देखने को बार बार आता और ताऊजी की फटकार से वापस अंदर कमरे में चला जाता ।
खैर, दोनो भाईयों की लड़ाई खत्म हुई और पापा तेज़ कदमों से नीचे आते पता लगे, हम बच्चे जल्दी से अपनी अपनी किताबों में मुँह छुपाकर बैठ गये।
पूरा दिन उधेड़बुन में निकल गया कि आगे क्या होगा…… बिना बात किये कैसे रहेंगे….शाम घिरने को आई तो हम बच्चों की कुलबुलाहट बढ़ गयी क्यूँकी ये वक़्त होता था ऊपर वाले हिस्से में ताइजी के कमरे में मस्ती का
किसीको भूख नहीं थी, पर मम्मी मोमबत्ती की रोशनी में खाना बना रही थीं। उन दिनों बिज़ली की बहुत ज्यादा किल्लत थी, ये नियम ही बन गया हो जैसे शाम होते ही बत्ती गुल होने का। उस वक़्त इनवर्टर नहीं हुआ करते थे। जेनरेटर होते थे वो भी इक्का दुक्का किसी किसी के घर , पूरे घर में ताऊजी हमेशा से ही आधुनिक विकास में आगे थे, तिमंज़िल पर उनका कमरा रौशन था जेनरेटर से।
‘अरे रीनू, रीमा, बिंकी बबलू, ऊपर आ जाओ बच्चो…अन्धेरे में क्यूँ बैठे हो….ऊपर आ जाओ ताऊजी का मन नहीं लग रिया…. कह रहे हैं बच्चों को बुला लो’
ताईजी की आवाज सुनते ही हमारे चेहरे ऐसे खिले जैसे कोई गुलाब। हमने किसी की आज्ञा लेना भी जरूरी नहीं समझा और लगा दी ऊपर को दौड़।’कमलेश तुम भी आ जाओ….उन्होने मम्मी को भी पुकारा।मम्मी ने कभी भी ताईजी की कोई बात आज तक टाली नहीं थी, वो भी सिर पे पल्लू ठीक करती हुई ऊपर को चढ़ गयीं।तुमलोग आये क्यूँ नहीं आज ऊपर, ताऊजी का मन नहीं लगता तुम लोगो के बिना, देखो उन्होनें खाना भी नहीं खाया। ‘अब मैं आपका खाना लगा दे रही हूँ…… मनीष चित्रहार लगा दो…..बहुत दिन का छूटा इस बार’…. मनीष भैया जो मोमबत्ती से थैलियों की पैकिंग में लगे थे, छोड़ कर उठे और वीसीआर पर रिकॉर्ड करा हुआ चित्रहार लगा दिया।ये हर हफ्ते का क्रम था, चित्रहार और रंगोली रिकॉर्ड की जाती थी और रात को सब एक साथ बैठ कर देखते थे।
पांच मिनट में पापा भी अपनी थाली के साथ ऊपर आ गये ये कहते हुए कि मैं क्यूँ नीचे अन्धेरे में खाना खाऊँ, मैं भी यहीं बैठूंगा। ताऊजी और पापा बीच बीच में एक दूसरे को देखते भी जा रहे थे और खाना भी खाते जा रहे थे।
ये यादें कभी ना मिटने वाली छाप छोड़ गईं, हम बच्चे भी अब बड़े बड़े बच्चों के मातापिता बन चुके हैं। पर वो पहले वाली गुंजाइश अब खत्म हो चुकी है। जिसे खोजना इतना भी मुश्किल नहीं, पर हम शायद हार मान चुके हैं।
–पारुल अग्रवाल–