नई दिल्ली: साल 2021 से लेकर अब तक पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवादियों ने जम्मू-कश्मीर में भारतीय सेना या पुलिस चौकियों पर कम से कम 26 सीमा पार हमले किए हैं। 9 से 11 जून के बीच जम्मू क्षेत्र में चार आतंकवादी हमले किए गये हैं और सबसे बड़ा हमला, रियासी जिले के शिव खोरी से तीर्थयात्रियों को ले जा रही बस पर किया गया।
पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर के लिए अपने आतंकी मॉड्यूल को फिर से स्थापित करने के लिए कुछ नई स्ट्रैटजी पर काम करना शुरू किया है।
पहला- पाकिस्तान ने अब आतंकियों के ऑपरेशन के क्षेत्र को उत्तरी कश्मीर से दक्षिण कश्मीर यानि जम्मू संभाग में ट्रांसफर कर दिया है, जिसमें पुंछ, राजौरी, कठुआ, डोडा और रियासी को नया टारगेट एरिया बनाया गया है।
दूसरा- उसकी गुरिल्ला स्ट्रैटजी में एक नया एलिमेंट है। जिसके तहत उसके भेजे गये आतंकी घने जंगलों में, गुफाओं और गहरी दरारों को छिपने के स्थानों के रूप में उपयोग कर रहे हैं। इन अज्ञात गुफाओं में हथियार, गोला-बारूद, खाद्य पदार्थ, कपड़े, दवा पहले से ही जमा कर लिए जाते हैं, ताकि कोई आतंकी वहां लंबे वक्त तक रह सके और कुछ स्थानीय गाइड इन आतंकवादियों तक जरूरी सामान पहुंचाने में मदद करते हैं। सुरक्षा बलों या पुलिस गश्ती दल पर हमला करने के बाद, ये आतंकी इन गुफाओं में वापस लौट जाते हैं। सुरक्षा बलों को इन मायावी आतंकवादियों का पता लगाने के लिए हेलीकॉप्टर और ड्रोन तैनात करने पड़ते हैं।
तीसरा- भारतीय क्षेत्र में घुसने के लिए सबसे खतरनाक टेक्टिकल बदलवा। भारत में दाखिल होने के लिए अब इन आतंकियों ने अज्ञात मार्ग का चनय करना शुरू कर दिया है। बताया जाता है, कि चीन ने लीपा घाटी में कहीं एक सुरंग खोदी है, जो कश्मीर सीमा को काराकोरम राजमार्ग से जोड़ती है। पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवादी अब हथियार, गोला-बारूद और अन्य युद्ध सामग्री को डंप करने के लिए सीमा क्षेत्र में जाने के लिए इस गुप्त मार्ग का इस्तेमाल कर रहे हैं।
चौथा- चौथा परिवर्तन ये है, कि पाकिस्तान ने इन आतंकवादियों को गुरिल्ला युद्ध लड़ने के लिए बेहतरीन तरीके से ट्रेनिंग देनी शुरू कर दी है। इन आतंकवादियों को चीन में बने अत्याधुनिक हथियार, कम्युनिकेशन उपकरण, गोलियां और हथगोले दिए गये हैं।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है, कि कश्मीर को लेकर भारत-पाक विवाद में अब चीन सीधे तौर पर शामिल हो चुका है और चीन से पाकिस्तान को न सिर्फ नैतिक समर्थन मिल रहा है, बल्कि हथियार और गोला-बारूद भी मिल रहा है। दोनों दुश्मनों ने मिलकर भारत को हजारों जख्म देने की बड़ी और खतरनाक साजिश रची है।
क्या सरकार से कश्मीर को लेकर रणनीति में हुई गलती?
सेंट्रल एशियन स्टडीज के पूर्व डायरेक्टर और विदेश मामलों के जानकार केएन पंडिता ने यूरेशियन टाइम्स में लिखे एक लेख में कहा है, कि कश्मीर को लेकर मोदी सरकार की स्ट्रैटजी में एक चूक हो गई है।
उन्होंने उदाहरण देते हुए लिखा है, कि जैसे पाकिस्तान के कब्जे वाले जम्मू और कश्मीर (POJK- एनडीए सरकार के एक आधिकारिक दस्तावेज में पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर (POK) को POJK कहा गया है) और गिलगित-बाल्टिस्तान (GB) को वापस लेने के भारत के दृढ़ संकल्प पर जोर देते हुए यह दलील देना, कि ये क्षेत्र कश्मीर के महाराजा द्वारा हस्ताक्षरित विलय के तहत भारत के हैं। क्या विश्व समुदाय का कोई भी सदस्य यह स्वीकार करता है, कि पाकिस्तान के कब्जे वाला कश्मीर, कश्मीर का हिस्सा है? उनका तर्क है, कि एक बार जब भारत ने 1948 में जम्मू और कश्मीर में युद्ध विराम स्वीकार कर लिया, तो उसने अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकार कर लिया, कि पाकिस्तान इस विवाद में एक पक्ष था।
1994 में भारतीय संसद ने सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित किया था, जिसमें कहा गया था कि POJK भारतीय संघ का हिस्सा है और उसे वापस लेने की इच्छाशक्ति और क्षमता भी है। उस प्रस्ताव को पारित हुए करीब 30 साल बीत चुके हैं। लेकिन, भारत ने इसे वापस लेने की एक भी कोशिश नहीं की है। पाकिस्तान को सिर्फ पीओजेके खाली करने और क्षेत्र को भारत को वापस करने की चेतावनी देना, सिर्फ एक मजाक भर है।
केएन पंडिता का कहना है, कि भारतीय संसद का प्रस्ताव कूड़ेदान में चला गया है, क्योंकि भारत ने क्षेत्र को वापस लेने की इच्छाशक्ति या शक्ति नहीं दिखाई है। पिछले तीन या चार दशकों के दौरान, इस्लामाबाद ने जम्मू-कश्मीर के अपने अवैध कब्जे वाले हिस्से में संरचनात्मक, न्यायिक और प्रशासनिक बदलाव किए हैं। लेकिन, भारत ने चेतावनी देने के अलावा कुछ नहीं किया है। भारत ने कभी ऐसा कुछ नहीं किया, जिससे यह पता चले कि वह POJK को वापस लेने की शक्ति रखता है।
कश्मीर को लेकर पाकिस्तान से क्या बातचीत की गई?
ऐसा कहा जाता है, कि कश्मीर को लेकर कुछ बार कुछ बातें की गई हैं। जैसे अफवाहों के मुताबिक, दोनों देशों के विदेश मंत्रियों (भारत के सरदार स्वर्ण सिंह और पाकिस्तान के जेडए भुट्टो) के बीच छह महीने तक चली कश्मीर वार्ता के दौरान, वे अपनी अंतिम बैठक में घाटी को दो हिस्सों में बांटने और वुलर झील को जलविभाजक बनाने पर सहमत हुए। लेकिन अंतिम बैठक में, जिसमें एक समझौता ज्ञापन भी तैयार किया गया था, भुट्टो ने अपने कदम वापस ले लिए और पूरी योजना फेल हो गई।
केएन पंडिता ने लिखा है, कि “एक और अफवाह के मुताबिक, तब जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन मुख्यमंत्री बख्शी गुलाम मुहम्मद थे, जिन्होंने कश्मीर को विभाजन की नापाक साजिश से बचाया था। उन पर आरोप है, कि उन्होंने भुट्टो को एक गुप्त संदेश भेजा था, कि “जब पाकिस्तान पूरे जम्मू-कश्मीर को हड़पने की स्थिति में था, तो वह केवल आधे हिस्से पर ही क्यों राजी हो गया?”
उन्होंने आगे लिखा है, कि “यह भी एक अफवाह थी, जो उस समय कश्मीर के राजनीतिक हलकों में घूम रही थी। उसी बख्शी गुलाम मुहम्मद को पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 1962 में अपमानजनक तरीके से बर्खास्त कर दिया था। मैंने हमेशा कहा है कि जिस दिन बख्शी को बर्खास्त किया गया, उसी दिन कश्मीर कैंसर ने अपनी जड़ें जमा लीं।”
पंडिता के मुताबिक, यह योजना भले ही नाकाम हो गई हो। लेकिन इसने पाकिस्तानी हुक्मरानों पर अमिट छाप छोड़ दी, कि भारत कश्मीर में अपनी कमजोरी से वाकिफ है और वे इसका फायदा उठाने का कोई मौका नहीं छोड़ते।
फिर, मई 1964 में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने शेख अब्दुल्ला को पाकिस्तान जाकर तीन राज्यों: भारत, पाकिस्तान और जम्मू-कश्मीर के परिसंघ का फार्मूला पेश करने का जिम्मा सौंपा। लेकिन, पाकिस्तान के अयूब खान ने इस विचार को सिरे से खारिज कर दिया। शेख ने कश्मीरी नेतृत्व का समर्थन हासिल करने के लिए पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर की राजधानी मुजफ्फराबाद की यात्रा की। लेकिन अपने मिशन पर जाने से पहले उन्हें नेहरू के निधन की खबर मिली और उन्हें भारत लौटना पड़ा। उसके बाद परिसंघ के प्रस्ताव के बारे में कुछ नहीं सुना गया।
पाकिस्तान में कश्मीर विशेषज्ञों ने जो निष्कर्ष निकाला है, वह यह है, कि नेहरू ने जम्मू-कश्मीर को विवादित मामला माना था। आज जमीनी हालात यह हैं, कि चीन ने कश्मीर पर अपना पुराना रुख बदल दिया है, कि दोनों देशों को इसे द्विपक्षीय रूप से सुलझाना चाहिए। बल्कि अब बीजिंग अब खुलकर पाकिस्तान के रुख का समर्थन करता है। यह समर्थन पाकिस्तान के प्रति किसी प्रेम के कारण नहीं है, बल्कि अवैध रूप से कब्जे वाले अक्साई चिन और शक्सगाम का उपयोग ल्हासा से जुड़ने वाली सड़क और रेलमार्ग बनाने के लिए करने की उसकी दिलचस्पी के कारण है।
चीन कराकोरम राजमार्ग पर सुरंगों और बंकरों का निर्माण कर रहा है, जिससे पाकिस्तानी आतंकवादी संगठनों को कश्मीर में आतंकवादी हमले करने के लिए लोगों और सामग्रियों को ले जाने में मदद मिल सकती है।
कश्मीर में आतंक फैलाना अब चीन की प्राथमिकता
कश्मीर में भारत को अस्थिर करना, अब बीजिंग की प्राथमिकता बन गई है, जब से भारत के शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व ने पाकिस्तान को पीओके को लेकर चेतावनी देनी शुरू कर दी है। ये खोखली चेतावनियां, पाकिस्तान से ज्यादा चीन की ओर निर्देशित थीं। जवाबी कार्रवाई में, चीन ने न केवल पाकिस्तानी सेना को भारी सैन्य तैनाती के साथ अपनी सीमा सुरक्षा को मजबूत करने के लिए प्रोत्साहित किया है, बल्कि जम्मू-कश्मीर के भारतीय हिस्से में आतंकवादी हमले करने के लिए उसे नैतिक समर्थन भी दे दिया है।
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इस महीने बीजिंग की 4 दिवसीय यात्रा पर थे, जहां उन्होंने राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ बैठक की। जहां पाकिस्तान की खस्ताहाल अर्थव्यवस्था पर उन्होंने चर्चा की, वहीं भारत की ओर से लगातार मिल रही धमकियों के बीच पीओके और गिलगित-बाल्टिस्तान की सुरक्षा भी उतनी ही महत्वपूर्ण और जरूरी थी। पिछले करीब छह महीनों से पीओके के लोग इस्लामाबाद के खिलाफ भारी प्रदर्शन कर रहे हैं। स्थानीय लोगों ने पाकिस्तान से अलग होने और जम्मू-कश्मीर के महाराजा के मूल राज्य के साथ फिर से जुड़ने की मांग की है।
माना जा रहा है, कि चीनी राष्ट्रपति के साथ अपनी हालिया वार्ता में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने शी जिनपिंग से कहा, कि अगर भारत पीओके को वापस लेने में सफल हो जाता है, तो इसका मतलब होगा, कि काराकोरम राजमार्ग का अंत और चीन के अवैध कब्जे वाले अक्साईचिन और शक्सगाम की नाकाबंदी। इससे मध्य और दक्षिण एशिया की पूरी भू-रणनीतिक केमिस्ट्री बदल जाएगी।
यह बहस का विषय है, कि क्या भारत.. चीन-पाकिस्तान गठबंधन के खिलाफ पीओके को वापस लेने का विकल्प चुनेगा?