सत्ताधारी दल के समर्थकों का बड़ा वर्ग भले संसद भवन पर गर्व करे, लेकिन विपक्ष समर्थक और बहुत से निष्पक्ष लोगों के लिए ऐसा करना फिलहाल संभव नहीं हुआ है। मगर यह सूरत बदल सकती है, अगर सरकार संसदीय परंपराओं का सम्मान करती दिखे।
नए संसद भवन के उद्घाटन से ठीक पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि इस नई इमारत पर देश के हर नागरिक को गर्व होगा। अब प्रधानमंत्री के पास अपने इस कथन को सचमुच सार्थक और सच साबित करने का मौका है।
लेकिन इसके लिए उनकी सरकार को अपने चाल-व्यवहार और सोच में कुछ परिवर्तन लाने होंगे। उसे सबसे पहले तो यह बात आत्म-सात करनी होगी कि किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में जन-प्रतिनिधित्व की सबसे ऊंची संस्था पर लोग गर्व करते हैं- यह बात ज्यादा मायने नहीं रखती कि वह संस्था कैसी और किस इमारत से अपना काम करती है। ऐसी संस्था से आम जन को कुछ वाजिब उम्मीदें होती हैँ। संसद को क्या करना चाहिए और उससे क्या उम्मीद रखी जानी चाहिए, इसका विस्तृत वर्णन भारतीय संविधान में भी किया गया है।
बहरहाल, सबसे पहली बात तो यह है कि सरकार को- चाहे कितना बड़ा ही बहुमत क्यों ना हासिल हो- संसद का सम्मान करना चाहिए: ठीक वैसा ही सम्मान जैसा नौ साल पहले प्रधानमंत्री निर्वाचित होने के बाद संसद की सीढिय़ों पर मत्था टेक कर जताया था। लेकिन उसके बाद उनकी सरकार ने संसदीय समितियों से लेकर प्रश्न काल और अपेक्षित बहसों को लेकर एक तरह का तृरस्कार का रुख अपनाए रखा है। वर्तमान सरकार यह आत्म-सात नहीं कर पाई है, संसदीय लोकतंत्र में विपक्ष शासन का हिस्सा होता है, जिसे सरकार की कमियों को बेनकाब करने, विरोध करने और लगातार सरकार को जवाबदेह बनाए रखने का जनादेश मिला होता है।
मगर सत्ताधारी पार्टी के नेता अक्सर विपक्ष मुक्त भारत की बात करते सुने गए हैँ। विपक्षी नेताओं को सरकारी जांच एजेंसियों से जानबूझ कर घेरा गया है और हाल में तो प्रमुख विपक्षी दल के नेता राहुल गांधी को लोकसभा से ही बाहर कर दिया गया। इन परिस्थितियों में सत्ताधारी दल के समर्थकों का बड़ा वर्ग भले संसद भवन पर गर्व करे, लेकिन विपक्ष समर्थक और बहुत से निष्पक्ष लोगों के लिए ऐसा करना फिलहाल संभव नहीं हुआ है। मगर यह सूरत बदल सकती है, अगर प्रधानमंत्री सचमुच यह संकल्प जताएं कि अब उनकी सरकार संसद का सम्मान और उस पर गर्व करेगी।