रमेश शर्मा
सृष्टि निर्माण में अवतारों के क्रम में परशुराम जी का अवतार छठें क्रम पर है । सभी अवतारों में परशुराम जी अवतार अकेला ऐसा अवतार है जो अक्षय है, अमर है, वैश्विक है और सर्व व्यापक भी । वे अपने बाद के सभी अवतारों में निमित्त बने हैं । उनका अवतार सतयुग और त्रेता के संधिकाल में वैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को हुआ । चूंकि अवतार अक्षय है इसलिये यह तिथि अक्षय तृतीया कहलाई । उनका अवतार एक प्रहर रात्रि रहते हुआ ऋषि कुल में हुआ इसलिये वह पल ब्रह्म मुहूर्त कहलाया । उनके पिता महर्षि जमदग्नि भृगु कुल ऋषि ऋचीक के पूत्र थे तो माता देवी रेणुका राजा रेणु की पुत्री थीं । उनका विवाह स्वयंबर में हुआ था । इस विवाह में ब्रह्मा जी और अन्य सभी देवगण उपस्थित थे । देवताओं खी ओर से जो विशेष भेंट मिलीं उनमें अक्षय पात्र और कामधेनू गाय थी । भगवान् परशुराम जी अपने पाँच भाइयों में सबसे छोटे थे । उनकी एक बहन भी थी । उनके कुल चार नाम थे । नामकरण संस्कार में उनका “राम” रखा गया । माता उन्हे अभिराम कहती थी । पुराणों में वे भार्गव राम कहलाये और जब भगवान् शिव ने उन्हे दिव्यास्त्र परशु भेंट किया तो वे परशुराम कहलाये । उनके सात गुरु थे । पहली गुरु माता रेणुका, दूसरे पिता महर्षि जमदग्नि, तीसरे गुरू महर्षि चायमान, चौथे गुरू महर्षि विश्वामित्र, पाँचवे गुरू महर्षि वशिष्ठ छठवें गुरु भगवान् शिव और सातवें गुरू भगवान् दत्तात्रेय थे ।
उन्होंने समाज निर्माण और राष्ट्र निर्माण के लिये दो बार विश्व यात्रा की । संसार के हर क्षेत्र में उनकी उपस्थिति के चिन्ह मिलते हैं । उनके आगे चारों वेद चलते हैं । पीछे तीरों से भरा तूणीर रहता है । वे श्राप देने और दंड देने दोनों में समर्थ हैं । वे मानते थे कि व्यक्ति निर्माण में संतुलन होना चाहिए । ज्ञान का भी और सामर्थ्य का भी । सत्य अहिंसा क्षमा और परोपकार युक्त समाज निर्माण उनका लक्ष्य था । वे मानते थे कि धर्म की रक्षा के लिये और सत्य की स्थापना के लिये यदि हिंसा होती है तो वह भी अहिंसा है । इन्हीं मूल्यों की स्थापना के लिये महायुद्ध किये और एक सत्य धर्म से युक्त समाज का निर्माण किया ।
झूठा प्रचार
भगवान परशुराम जी के बारे में एक झूठा प्रचार यह है कि उन्होंने 21 बार क्षत्रियों का विनाश किया । स बसे पहले तो यहकि परशुराम जी अवतार सतयुग के समापन और त्रेता के प्रारम्भ के मिलन विंदू पर हुआ । इस काल में ब्राह्मण और क्षत्रिय शब्द प्रचलन में न थे । ऋषियों और राजाओं को उनके कुलों से जाना जाता था। उस काल में प्लानिंग ऋषियो के हाथ में थी और एग्जिक्यूशन राजाओं के हाथ में थी । यह परम्परा ईसा के चार सो साल बाद तक चली। योजना पूर्वक दोनों में विवाद पैदा किया गया।
सबसे पहले कालिदास के रघुवंश में यह सन्दर्भ आया और इसके बाद के सारे साहित्य में आने लगा। यह ठीक वेसा ही है जैसे तुलसी दास जी ने पहली बार लक्ष्मण रेखा खींची । इससे पहले किसी राम कथा में लक्ष्मण रेखा नहीं मिलती लेकिन तुलसी दास के बाद हर साहित्य में रेखा मिलती है। उसी प्रकार रघुवंश के बाद क्षत्रिय लिखा जाने लगा ।
इससे पहले संस्कृत में क्षत्रम् क्षयाय शब्द आया है जिसका अर्थ राज्यों का क्षय होता है न कि क्षत्रिय समूह का। कई स्थानों पर क्षत्रपम् विनाशाय शब्द आया । इसका अर्थ राजाओं का विनाश होता है । लेकिन दोनों के हिंदी में क्षत्रिय ही लिखा वे 21 स्थान हैं और 21 राजा हैं जिनसे संघर्ष हुआ । इन 21 में 7 ब्राह्मणों के और 4 यवनों के हैं जो देश के विभिन कोनो में हुए ।
एक शब्द ब्रह्म द्रुह आया जिसका अर्थ होता है ब्रह्म यनि परमात्मा की परम् सत्ता । ब्रह्म का अर्थ ब्राह्मण या ब्रह्मा न होता । लेकिन हिंदी अर्थ में ब्रह्म द्रुह को ब्राह्मण विरोधी लिखा गया है । ब्रह्म यनि ईश्वर । ब्रह्म द्रोह का अर्थ हुआ जो ईश्वर के विरोधी है जो स्वयं को ही ईश्वर घोषित कर देते हैं या जो ईश्वर का पूजन रुकवाते हैं जैसा रावण ने किया । यह एक समाज को बांटने का बड़ा षडयं त्र है । समाज के प्रबुद्ध वर्ग की ज़बाब दारी है कि वे विभाजन वादी षडयंत्रो से समाज को सावधान करे ।