पावस में खटराग बहुत है
तुम ही इंतजार करते थे
हम तो पहले ही कहते थे
पावस में खटराग बहुत है
टपक रहा है घर का एक -एक कोना- कोना
किसका जगना किसका सोना
भीगी चादर और बिछौना
एक ओर बेरहम जुलाई
बच्चों के सर चढ़ी पढाई
महंगी कापी और किताबें
महंगा जूता और जुराबें
और दूसरी ओर पसीना
तिस पर ये आखीर महीना
घर का पंखा फुंका हुआ है
छाता तक तो फटा हुआ है
दोनों बच्चे हैं बीमार
साली आने को तैयार
अब बोलो कैसी बरसात ?
कैसी फुहारें कैसी रात ?
पावस तो उनकी है
जिनके सर पर कंक्रीट की छत है
घर के भीतर बरामदा है
घर के बाहर बरामदा है
हर कमरे में पंखे -कूलर
लाइट जाए तो जेनरेटर
छत के ऊपर बालकनी है
हर गमले में नागफनी है
शायद अब तुम समझ गयी होगी
मेरी भोली घरवाली
पावस के इतना खिलाफ मैं क्यों रहता था
जब -जब तुम इस पावस की बातें करतीं मैं क्यों कुढ़ता था
पावस से ही नहीं
किसी भी मौसम से कोई आस न रखना
नहीं बना है अब तक कोई ऐसा मौसम
जो अपने कमरे में उतरे
सीलन उमस घुटन औ’ पत्ती
घर पर इन चारो के पहरे
ये ऋतुऍं हैं इनके संग अब
सीखो रहना
कभी किसी ऋतु की भूले से
राह न तकना…
-डॉ जय नारायण बुधवार