कौशल किशोर
नई दिल्ली। केन्द्रीय चुनाव आयोग नगदी जब्त करने का पिछला सारा रिकॉर्ड इस चुनाव में तोड़ देती है। जब्त किए गए नगदी का आंकड़ा देख कर यही लगता है। आदर्श आचार संहिता लागू होने के कुछ समय बाद ही यह आंकड़ा 4,650 करोड़ रुपये पहुंच गया। देश भर में लागू किए गए चुनाव जब्ती प्रबंधन प्रणाली (ईएसएमएस) की मदद से ही ऐसा संभव हुआ है। पिछले विधान सभा चुनावों में भी इसका प्रयोग किया गया था। प्रतिदिन औसतन 100 करोड़ रुपये की बरामदगी में प्रायः सभी दलों के प्रत्याशी शामिल रहे हैं। दूसरे फेज के चुनाव से ठीक पहले कर्णाटक में भाजपा के उम्मीदवार डा. के. सुधाकर से 4.8 करोड़ रुपए नगदी की बरामदगी हुई। पिछली बार 2019 के पूरे चुनाव में जब्त कुल नगदी 3475 करोड़ की रुपये थी। यह पिछले चुनाव के दौरान एकत्र की गई कुल राशि से 34 फीसदी अधिक है। कोई आज दावे से नहीं कह सकता कि सात चरणों का मतदान खत्म होने पर यह कितना होगा? आंकड़ों से देश के इतिहास के सबसे महंगे चुनाव के साक्षी होने के संकेत मिलते हैं।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा चुनावी बांड की वैधता पर फैसला देने के ठीक दो महीने बाद प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी इसकी चर्चा करते हैं। समाचार एजेंसी एएनआई की संपादक स्मिता प्रकाश को दिए साक्षात्कार में उन्होंने पहली बार इस पर खुल कर बात किया। कहा कि शीर्ष अदालत द्वारा चुनावी बांड योजना को रद्द करने के बाद देश को पूरी तरह से काले धन की ओर धकेल दिया है और ईमानदारी से सोचेंगे तो हर किसी को इसका पछतावा होगा। हैरत की बात है कि इस मुद्दे पर सरकार और कोर्ट दोनों ही पारदर्शिता की बात करती है। साथ ही वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन पुनः संशोधित कर दूसरी स्कीम लाने की बात करती हैं।
प्रधान मंत्री इस योजना को सफलता की एक कहानी के रूप में देखने की अपील करते हुए कहते हैं कि इसमें यह दिखाया गया है कि राजनीतिक दलों को किसने योगदान दिया है। भाजपा को मिले 37 फीसदी राशि और शेष 63 फीसदी अन्य दलों के खाते में जाने का जिक्र भी करते हैं। गडकरी इसके पीछे की मंशा को नेक बताते हुए लोक तन्त्र में पारदर्शिता की अहमियत पर सवाल खड़ा करते। उच्चतम न्यायालय की मदद के बिना लेन देन के इस मामले का ज्ञान देश की जनता के लिए संभव नहीं था। अठारहवीं लोक सभा चुनाव के लिए आदर्श आचार संहिता लागू होने के बाद ही नोट के बदले वोट का असली खेल शुरु होता है। इस खेल से लंबे समय से भारतीय लोक तंत्र को नुकसान पहुंच रहा है।
साल 2008 में परमाणु समझौते के बाद वामपंथी दल ने संप्रग सरकार को बाहर से समर्थन देना बंद कर दिया था। नतीजतन अविश्वास प्रस्ताव का सामना करने वाली मनमोहन सिंह सरकार पर नोट के बदले वोट का आरोप लगा था। लोक सभा में अशोक अर्गल, फग्गन सिंह कुलस्ते और महावीर भगोड़ा जैसे तीन भाजपा सांसद नगदी के बंडल लहरा कर सत्ता पक्ष पर खरीद फरोख्त का आरोप लगाते हैं। इस मामले में तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) के सांसद रहे किशोर चंद्र देव की अध्यक्षता में संसदीय समिति बनाई गई थी। तत्कालीन लोक सभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी की सिफारिश पर दिल्ली पुलिस भी जांच शुरु करती है। हालांकि बाद में साक्ष्य के अभाव के नाम पर इसे दबा दिया गया। यह एक अबूझ पहेली बन कर गई।
राज्य की विधान सभाओं में खरीद फरोख्त बराबर होती है। इसी वजह से पांच सितारा होटलों में विधायकों को नजरबंद करने की परम्परा कायम हुई। विश्वास मत की आड़ में विकसित हुई इस व्यवस्था का अपना महत्व है। कांग्रेस नेता और तेलंगाना के मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी को जब राज्य की पुलिस द्वारा 2015 में गिरफ्तार किया गया था तो वह टीडीपी के सदस्य थे। नौ साल पहले उन्हें विधायक एल्विस स्टीफेंसन को वोट के लिए 50 लाख रुपए का रिश्वत देते हुए पकडा गया था। यह मामला आज भी कोर्ट में लंबित है। सत्ता के निचले पायदान पर स्थिति बहुत गंभीर है। लोकतंत्र में सबसे शक्तिशाली मानी जाने वाले आम नागरिक क्या इस पर किसी से पीछे रहना चाहते हैं? बारामती में शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले और अजीत पवार की पत्नी सुनेत्रा पवार के बीच जंग में निर्णय करने वाले जनता में ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो खुल कर पैसा लेने की बात स्वीकार रहे। ऐसा सीट खोज पाना मुश्किल है, जहां नोट के बदले वोट का खेल नहीं चलता हो।
नैतिकता विहीन इस राजनीति में नैतिकता की बात करने वाले मुफ्त में बिजली और पानी ही नहीं, बल्कि शराब और कबाब भी चाहने लगे हैं। पुरानी कहावत है, मुफ्त की चीज महंगी पड़ती है। इसके बावजूद आम नागरिकों में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो नोट के बदले वोट की तलाश में हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री ने खुले आम दिल्लीवासियों से दूसरी पार्टी से पैसे लेकर आम आदमी पार्टी को वोट करने की अपील किया। ऐसी दशा में यह नहीं कहा जा सकता है कि चुनावी बांड योजना के जारी रहने पर नगदी बांटने का खेल भी खत्म हो गया होता। आधुनिक भारत की राजनीति पर लालच का दुस्साध्य रोग हावी है। इस आधुनिकता से पहले देश की आम जनता ऐसी नहीं रही है। इसे दूर करना आसान काम भी नहीं है।
15 फरवरी को उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ पारदर्शिता की दलील पर फैसला देती है। सूचना का अधिकार के युग की मर्यादा के अनुकूल पारदर्शिता की बात पर इस फैसले का स्वागत हो रहा है। केंद्र सरकार इस योजना को लाने के लिए जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, कंपनी अधिनियम और आयकर अधिनियम में संशोधन कर मतदाताओं को अनुच्छेद 19(1ए) के तहत मिले राजनीतिक फंडिंग के बारे में जानकारी के अधिकार का उल्लंघन करती है। सरकार राजनीतिक चंदा को नगदी से बैंकिंग सिस्टम में लाने का काम ही पारदर्शिता समझती है। यदि इसमें सच्चाई नहीं होती तो ईडी और सीबीआई के छापों के बाद बॉन्ड खरीदने वाली कंपनियों के साथ भाजपा की सांठ गांठ पर चर्चा नहीं चल रही होती। प्रधान मंत्री मोदी सवाल कर रहे हैं कि किस व्यवस्था में ताकत रही कि वो ढूंढ के निकालते कि पैसा कहां से आया और कहां गया? इसके बिना राजनीतिक दलों की रहस्यमय फंडिग का रहस्य भी बरकरार रहता। चंदा देने वालों को विपक्षी दल के भ्रामक भय से सुरक्षा प्रदान करने के लिए गोपनीयता का विधान किया गया। पारदर्शिता की आड़ में इस गोपनीयता को सुप्रीम कोर्ट असंवैधानिक करार देती है।
इस एक संकट के साथ भय और भ्रम का मायाजाल पसरा है। मतदान की गोपनीयता का कानून इसी पर आधारित है। सामाजिक और आर्थिक गैर बराबरी के कारण ऐसा ही होता रहेगा। फिरंगियों को पता था कि देश की आजादी के लिए कुर्बानी देने वाले वीरों का भारत नियम कानून के बूते ही कमजोर किया जा सकता है। इंटरनेट मीडिया के आधुनिक दौर में मतदाता खुल कर अपनी बातें साझा कर रहे और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का व्यापार भी खूब चल रहा है। राजनीतिक अर्थशास्त्र का तिलिस्मी खेल आंखों के सामने हो कर भी ओझल प्रतीत होता है। इस परिस्थिति में आम जनता के सामने मनोरंजन के साधन बढ़ते रहेंगे और शासन व्यवस्था से जुड़ी बातें गोपनीयता का लबादा ओढ़ती बढ़ेगी। देशप्रेम और लोक सेवा की भावना आजादी की लड़ाई के प्राण तत्त्व माने गए। आजादी के बाद सामाजिक राजनीतिक क्षेत्र में क्या यह भाव कहीं है? सत्तर के दशक में स्थिति बदलती दिखती। आपातकाल एक विभाजन रेखा खिंचती है। राजनीति में धनबल व बाहुबल का शंखनाद होने लगा। क्या अब पारदर्शिता की बात पर विधायिका और न्यायपालिका में सहमति कायम होगी? राम मंदिर के बाद अब इस मामले में भी केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह अनौपचारिक बातचीत में न्यायमूर्तियों से चर्चा करने को आश्वस्त करते हैं।
राजनीतिक दलों की फंडिंग में पारदर्शिता की बात पर सुप्रीम कोर्ट भी मानती है कि कॉर्पोरेट योगदान पूरी तरह से व्यावसायिक लेन देन है। यह बदले में लाभ हासिल करने के इरादे से ही किया जाता है। सीएसआर, कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबलिटी के नाम पर बड़ा खेल चल रहा है। राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे पर नगदी और गोपनीयता की शर्तें हावी है। इक्कीसवीं सदी में इंटरनेट मीडिया और स्मार्ट फोन के दौर में क्रिप्टोकरेंसी और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसी तकनीकी आधुनिकता की नई परिभाषा गढ़ रही है। ऐसे में नोट के बदले वोट के खेल पर अंकुश लगाने के मामले में लोगों की दिलचस्पी बनी रहेगी